संपादकीय
असम में बलात्कार की कुछ अलग-अलग घटनाओं में गैरअसमी मुसलमान या हिन्दीभाषी गैरअसमी कोई बाहरी व्यक्ति आरोपों से घिरे मिले हैं, और नतीजा यह है कि प्रदेश में जगह-जगह क्षेत्रवाद पर काम करने वाले संगठन बाहरी मुस्लिमों और हिन्दीभाषी दोनों के खिलाफ बड़ी मुहिम छेड़े हुए हैं कि उन्हें बाहर निकाला जाए। कई जिलों में उन्हें दो-चार दिनों का समय दिया गया है कि छोडक़र निकल जाएं। इनमें असम के स्थानीय मुस्लिम संगठन भी सक्रिय हो गए हैं। राज्य सरकार ऐसा सामुदायिक तनाव फैलाने वाले दो दर्जन से अधिक संगठनों को पहचान कर उन्हें नोटिस भेज रही है, लेकिन कुल मिलाकर प्रदेश एक नए तनाव का केन्द्र बन रहा है। यह समझने की जरूरत है कि यहां भाजपा के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के कुछ बयानों के बाद यह ताजा तनाव खड़ा हुआ है। सरमा ने हाल ही में कहा था कि लोकसभा चुनाव में जहां-जहां कांग्रेस के वोट बढ़े, वहां एक विशेष समुदाय का हौसला इतना बढ़ गया है कि वो अपना दबदबा बढ़ाने के चक्कर में हैं, और हिन्दू महिलाओं पर अत्याचार इसी का नतीजा है। वे पहले भी कह चुके हैं कि असम को मियांभूमि नहीं बनने देंगे। असम में गैरअसमी मुसलमानों को मियां कहा जाता है, और भाजपा में आने के बाद से सीएम सरमा का इतिहास इसी तरह के बहुत ही भडक़ाऊ बयानों से भरा हुआ है।
अब हम असम की स्थानीय बारीकियों में गए बिना अगर यह देखें कि ऐसे तनाव का क्या नतीजा होगा, तो एक भयानक तस्वीर बनती है। अगर असम से हिन्दीभाषी लोगों को, जिनमें बहुतायत हिन्दुओं की है, उन्हें अगर भगाया जाता है, उनके खिलाफ सामाजिक तनाव खड़ा किया जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया तो बाकी देश में भी होगी। आज वहां पर मारवाड़ी समुदाय के एक-दो लोगों पर लड़कियों को छेडऩे का आरोप लगा तो कुछ जगहों पर इस समुदाय को बाहरी करार देते हुए पूरे मारवाड़ी समाज को घुटनों पर खड़ा करके माफी मंगवाई गई थी। उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में उग्र स्थानीय क्षेत्रवाद कोई नई बात नहीं है, लेकिन बाहर से पहुंचकर असम में कारोबार करने वाले, या दूसरे काम करने वाले हिन्दीभाषी लोगों को अगर वहां से इस तरह बाहर निकाला जाएगा, तो ये जिन प्रदेशों के लोग हैं, वहां के गिने-चुने असमिया लोगों को कैसी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ेगी?
हमने पिछले बरसों में मुम्बई में यूपी और बिहार के लोगों के खिलाफ शिवसेना और राज ठाकरे के आक्रामक तेवर देखे थे, और उनके हमले देखे थे। बाद में जब शिवसेना की राजनीतिक और चुनावी भागीदारी कांग्रेस और एनसीपी से हुई, तो शिवसेना का नजरिया व्यापक हुआ, और उसने संकीर्णता छोड़ी। अब शिवसेना के किसी आव्हान में यूपी-बिहार के खिलाफ हमलावर बात नहीं होती है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले कर्नाटक में भाजपा का शासन रहते हुए वहां से उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों के खिलाफ इतना तनाव खड़ा किया गया था, कि पूरी ट्रेनें भर-भरकर उत्तर-पूर्व के लोग लौट गए थे। एक प्रदेश के लोगों के खिलाफ दूसरे प्रदेश में, या किसी एक धर्म या भाषा के लोगों के खिलाफ किसी प्रदेश में ऐसी आक्रामकता भारतीय संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। जब देश में राष्ट्रवादी उन्माद की हवा फैलाई जाती है, तो वह लोगों की दिमागी हालत ऐसी कर देती है कि वे राष्ट्रवाद के साथ-साथ क्षेत्रवाद के उन्माद से भी भर जाते हैं। असम में आज ऐसा ही नजारा देखने मिल रहा है।
लेकिन क्षेत्रवाद के खतरे किस तरह के होते हैं इसकी एक भयानक मिसाल असम के इस चुनाव के साथ-साथ ही इन्हीं दिनों में पाकिस्तान में देखने मिल रही है, जहां पर बलूचिस्तान के इलाके में पहले तो वहां के स्थानीय लोगों ने बसों, और दूसरी गाडिय़ों को रोककर दूसरे प्रांत पंजाब के लोगों को नीचे उतारकर, उनके पहचान पत्र देख-देखकर, गोली मारी, और एक दिन में दर्जनों लोगों को मार डाला। इसके खिलाफ जब पाकिस्तान सरकार ने सैनिक कार्रवाई चालू की, तो बलूचिस्तान के हथियारबंद संगठनों ने बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों को भी मार डाला। अगर आंकड़े सही हैं, तो पिछले बीस घंटों में 130 सैनिकों को मारने का दावा भी बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी ने किया है। बलूचिस्तान का यह पूरा का पूरा आंदोलन पाकिस्तान के राष्ट्रीय हितों के भीतर अपने क्षेत्रीय हित को अलग से ढूंढने का है, और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि आज की तारीख में बलूचिस्तान का इलाका एक किस्म से पाकिस्तान की सरकार के काबू के बाहर हो चुका है।
कुछ लोगों को इन दो स्थितियों की हमारी तुलना अटपटी लग सकती है, लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि जब सामाजिक और राजनीतिक तनाव और टकराव बढ़ाया जाता है, तो उसे बाद में हर बार रोक पाना मुमकिन नहीं रहता है। असम में मुख्यमंत्री सरमा के बयान राज्य के भीतर एक बड़ा विभाजन करने वाले हैं। हो सकता है कि उन्हें और उनकी पार्टी बीजेपी को इसमें चुनावी फायदा दिखता हो, लेकिन समाज में इतनी गहरी खाई खोद देना ठीक नहीं है। भारत एक बड़ा देश है जिसमें विविधताओं का ताना-बाना देश को बांधकर रखता है। किसी एक धर्म, एक जाति, एक प्रादेशिकता के भरोसे यह ताना-बाना नहीं चल सकता। असम के आज के खतरे जल्द से जल्द काबू में लाए जाएं वही ठीक है, वरना अभी उत्तर-पूर्व का मणिपुर भारत के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी की जगह बना हुआ है, और वहां पर साल भर से अधिक हो चुका है कि किसी भी तरह से लोकतंत्र दुबारा कायम करना मुमकिन नहीं हो पाया है। हमारे कम लिखे अधिक समझा जाए, और असम या किसी भी दूसरे राज्य में ऐसा नफरती विभाजन खड़ा न किया जाए। पता नहीं संविधान की शपथ लेने वाला एक मुख्यमंत्री ऐसा कर कैसे सकता है। या तो फिर इस देश में संविधान की शपथ बंद ही कर देना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)