संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मोबाइल से जुड़ी हिंसा और जुर्म को घटाना केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी, तुरंत पूरी करे
02-Sep-2024 6:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  मोबाइल से जुड़ी हिंसा और जुर्म को घटाना केन्द्र सरकार  की जिम्मेदारी, तुरंत पूरी करे

रेलवे पटरी पर बैठकर मोबाइल गेम खेलते हुए 13-14 बरस के दो दोस्त कल छत्तीसगढ़ में ट्रेन से कटकर मर गए। पहली नजर में यह खेल में उनका इस हद तक डूब जाना दिखता है कि उन्हें ट्रेन का हॉर्न सुनाई नहीं दिया, जिस पटरी पर ये बैठे थे उसकी कंपकपाहट का पता नहीं चला, और ट्रेन रोकने की कोशिश करते-करते भी ड्राइवर उन्हें बचा नहीं पाया। इन मौतों के पीछे खुदकुशी जैसी कोई और बात हों, तो वह पहली नजर में तो नहीं दिख रही है, बस इतना पता लग रहा है कि ये दोनों दोस्त लगातार साथ बैठकर मोबाइल गेम खेलते थे। कल ही छत्तीसगढ़ के एक दूसरे हिस्से में एक स्कूली बच्चे ने गेम खेलने के लिए मां से मोबाइल मांगा, और मोबाइल न मिलने पर उसने खुदकुशी कर ली। मोबाइल को लेकर खुदकुशी कोई नई बात नहीं है, देश में हर दिन कहीं न कहीं कोई न कोई बच्चे मोबाइल की मांग करते हुए, या उसे उनसे ले लेने के खिलाफ खुदकुशी करते हैं। हम इसी जगह पिछले महीनों में कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि मोबाइल फोन की लत बच्चों को किस तरह मौत तक ले जा रही है, और कई बच्चे खुदकुशी से परे कई किस्म के जुर्म में फंस रहे हैं, ताकि वे किसी तरह एक मोबाइल फोन पा सकें।

इसी तरह की दूसरी समस्या बच्चों के मोबाइल या कम्प्यूटर पर पोर्न देखने की है, और इसके चलते देश में नाबालिग बच्चे बड़ी संख्या में असल जिंदगी में सेक्स-अपराध में जुट रहे हैं, और उनके घर की लड़कियां भी उनसे सुरक्षित नहीं रह गई हैं। एक और दिक्कत बहुत छोटे बच्चों के परिवारों के सामने खड़ी है जहां पढ़ाई शुरू करने के पहले से ही बच्चे मोबाइल फोन या टीवी पर कार्टून फिल्म देखने में डूबे रहते हैं, और इस चक्कर में वे परिवार के बड़े लोगों के मोबाइल फोन का स्क्रीन लॉक खोलना भी जान जाते हैं। कई परिवारों में बच्चे उन्हीं बड़ों के कमरों में रहना चाहते हैं जो कि कुछ नर्मदिल हैं, और बच्चों को मोबाइल-टीवी की अधिक छूट देते हैं। बच्चों की सारी सोच स्क्रीन-केन्द्रित हो गई है, और उनकी कल्पनाशीलता, रचनात्मकता, सीखने की क्षमता, इन सब पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। मानव शरीर में विकास का क्रम हर उम्र में एक सरीखा नहीं रहता है। बचपन से किशोरावस्था तक जिन बातों को सीख लेने की उम्र रहती है, उन बातों को बाद में सीखा भी नहीं जा सकता। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि कई हफ्ते पहले हमने एक शोध रिपोर्ट का जिक्र करते हुए इसी जगह लिखा था कि जो माताएं अपने दुधमुंहे बच्चों को साथ लिए हुए उनसे बात करने के बजाय मोबाइल फोन पर लगी रहती हैं, उन बच्चों का शब्द सामथ्र्य कमजोर रहता है, वे कम शब्द सीख पाते हैं। इसी तरह जब घर के तमाम बड़े लोग अपने-अपने फोन और कम्प्यूटर पर व्यस्त रहते हैं, तो घर के बच्चे और किशोर-किशोरियां अपना या परिवार का कोई भी फोन लेकर अपनी मर्जी के काम करते हैं।

दुनिया के अलग-अलग देशों में इस बात पर बड़ी फिक्र चल रही है कि बच्चों का स्क्रीन टाईम कैसे घटाया जाए, और कैसे उन्हें सोशल मीडिया पर सुरक्षित रखा जाए, जिसका कि उन पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। अभी कुछ हफ्ते पहले ही हिन्दुस्तान के पुणे में एक वीडियो गेम खेलते हुए 14 बरस के  लडक़े ने उस खेल की एक चुनौती पूरी करने के लिए 14वीं मंजिल से छलांग लगा दी थी, और वह तुरंत ही मर गया था। आज पश्चिम में सोशल मीडिया पर छात्र-छात्राओं को ब्लैकमेल करके उनके खून की बूंद तक चूस लेने वाले ब्लैकमेलरों का अंतरराष्ट्रीय गिरोह काम कर रहा है, और संपन्न और विकसित देशों की जांच एजेंसियां भी इसे नहीं रोक पा रही हैं। ऐसे में ब्रिटेन सहित कुछ जगहों पर सरकारें स्कूलों में फोन पूरी तरह बंद कर रही हैं। फिर अभी इसी हफ्ते ब्रिटेन में एक मशहूर गुडिय़ा बार्बी के नाम पर एक ऐसा छोटा मोबाइल फोन बाजार में आया है जिससे सिर्फ कॉल की जा सकती है, एसएमएस किया जा सकता है, उसमें सिर्फ एक सरल सा मोबाइल गेम है, और कुछ भी नहीं है। न कैमरा है, न इंटरनेट है, और न ही सोशल मीडिया किसी तरह से उस पर मौजूद है। अब वहां इस पर बहस चल रही है कि जो बच्चे स्मार्टफोन इस्तेमाल करने के आदी हो चुके हैं, उन्हें इस साधारण फोन पर वापिस कैसे लाया जाए? लत कैसे छुड़ाई जाए?

आज यहां इन मुद्दों पर लिखने का मकसद यह है कि हम भारत सरकार से चाहते हैं कि वह राष्ट्रीय स्तर की एक विशेषज्ञ कमेटी बनाकर बच्चों के टीवी, फोन और कम्प्यूटर के इस्तेमाल को सीमित और सुरक्षित रखने के लिए एक ऐसी तैयारी करे जिसे इन उपकरणों को बनाने वाली कंपनियों, और संचार कंपनियों के लिए अनिवार्य किया जाए। मां-बाप पर यह सामाजिक दबाव आए, उसके पहले सरकार को उपकरणों में ऐसे तकनीकी इंतजाम करने चाहिए कि नाबालिगों के मां-बाप उन पर निगरानी रख सकें, उनकी समय सीमा तय कर सकें। अब अगर वीडियो गेम खेलने का नशा किसी को बर्बाद कर रहा है, तो मां-बाप उसके फोन या कम्प्यूटर से यह मालूम कर सकें, ऐसा इंतजाम सरकार को तमाम उपकरणों पर करना चाहिए। इससे खुद सरकार का बोझ कम होगा क्योंकि आज तरह-तरह की जानलेवा हिंसा, आत्मघाती हिंसा, या मानसिक विकास का थम जाना, कुल मिलाकर तो देश का ही नुकसान है, और इसका सबसे बड़ा बोझ सरकार की एजेंसियों, अदालतों, और अस्पतालों पर पड़ता है।

बाजार में आने वाले हर फोन, कम्प्यूटर, और टीवी पर घर के बड़े लोगों के नियंत्रण का बिल्कुल साफ-साफ इंतजाम होना चाहिए, ताकि छोटे बच्चों को अगर कुल तीस मिनट टीवी देखने की छूट हो, तो उसके बाद वे उस पर कुछ भी न देख सकें। हमें यह भी लगता है कि फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया को खुद भी यह इंतजाम करना चाहिए कि नाबालिगों के मां-बाप उस पर बच्चों की समय सीमा तय कर सकें, और उनकी सारी हलचल को अपने फोन या कम्प्यूटर पर देख भी सकें। अभी भी शायद कुछ मोबाइल एप्लीकेशन ऐसे हैं जिससे कि लोग अपने बच्चों के मोबाइल फोन पर निगरानी रखने का काम कर सकते हैं, लेकिन ऐसे निगरानी एप्लीकेशन निजी कंपनियों के हैं, और उनके कई दूसरे तरह के खतरे हैं। भारत सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझना चाहिए, और बिना देर किए हुए नाबालिगों के सभी किस्म के टीवी-मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल पर निगरानी, और उन पर नियंत्रण की सहूलियत जुटाकर मां-बाप के हाथ देनी चाहिए। अभी लगातार बच्चे जितने खराब किस्म के जुर्म में फंस रहे हैं, उनमें इन उपकरणों और सोशल मीडिया का बड़ा हाथ है। इस मोर्चे पर तुरंत कार्रवाई की जरूरत है क्योंकि हर दिन हिन्दुस्तान के लाखों और बच्चे इस नशे में फंस रहे हैं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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