संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बुलडोजरों को रोकने में इतने बरस लगा दिए?
03-Sep-2024 4:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बुलडोजरों को रोकने में इतने बरस लगा दिए?

देश के कई प्रदेशों ने उत्तरप्रदेश की योगी सरकार की शुरू की गई बुलडोजर-संस्कृति को तेजी से अपना लिया था। इसमें आमतौर पर भाजपा की सरकारें थीं, लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने भी कुछ मामलों में इसकी नकल की थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने बहुत साफ-साफ कह दिया है कि किसी मामले में कोई आरोपी हो, या अदालत में साबित हो चुका गुनहगार, सरकार किसी का घर नहीं ढहा सकती। पिछले 6-8 बरस से बलात्कार या हत्या, या किसी साम्प्रदायिक तनाव का हवाला देते हुए योगी सरकार ने यह सिलसिला चला रखा है कि जिस पर शक हो, या जिस पर आरोप लगा हो, उसके मकान-दुकान को म्युनिसिपल द्वारा किसी वक्त दी गई नोटिस को धूल झड़ाकर निकाला जाए, और बुलडोजर भेजकर उसे अवैध कब्जा करार देकर गिरा दिया जाए। सरकार ने अपनी यह संवैधानिक जिम्मेदारी भी छोड़ दी थी कि म्युनिसिपलों के ऐसे नोटिस तो आधे शहर को जारी हो चुके रहते हैं, शाम किसी पर किसी धार्मिक जुलूस पर पथराव का आरोप लगे, और अगली सुबह उसका मकान गिरा दिया जाए, और कहा जाए कि यह तो पहले से जारी नोटिस पर कार्रवाई है, तो यह तो लोकतंत्र नहीं था। हमें अफसोस इस बात का है कि बरसों से प्रचारित की जा रही यह अनोखी बुलडोजरी संस्कृति योगी से जुड़े हुए लोगों को तो गर्व का अनुभव करा रही थी, लेकिन एक-एक करके कई राज्यों तक इसके फैल जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट को इसमें कोई खामी नहीं दिखी थी। अब जाकर जस्टिस बी.आर.गवई, और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन ने कहा कि अदालत के पहले के रूख के बावजूद सरकार के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। अब अदालत इस पर आम दिशा-निर्देश बनाएगी, जो सभी राज्यों पर लागू होंगे।

इस बारे में अदालत में जजों ने सरकारों की तरफ से मौजूद वकील से सवाल करते हुए अपना रूख साफ किया है, और यह वही रूख है जो हम बरसों से अपने इसी कॉलम में लिखते आ रहे हैं। हमने बार-बार बुलडोजरी कार्रवाई को अलोकतांत्रिक कहा था, और अदालत से दखल की उम्मीद की थी। वह दखल बरसों देर से आई है, इससे आमतौर पर अल्पसंख्यक, मुस्लिम समुदाय के लोगों पर बुलडोजर चले हैं, लेकिन ऐसी कार्रवाई का खून सरकारी अमले के मुंह लग गया है जो कि अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए साम्प्रदायिकता की हद तक जाकर किसी एक खास धर्म के लोगों को निशाना बनाने का रिकॉर्ड कायम कर चुका है। अदालत के फैसले के पहले का उसका यह जुबानी रूख इतनी देर से आया है कि इतने वक्त में बुलडोजरों का निशाना बना हुआ अल्पसंख्यक समुदाय एक दहशत में जीते रहा है कि उस पर कहीं कोई तोहमत लग गई, तो सौ-पचास बरस पुराना मकान भी ढहा दिया जाएगा। हमारा ख्याल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को नसीहत देने में अंधाधुंध देर की है, और देश का एक समुदाय जब इतनी आशंकाओं में जीते आ रहा है, तो लोकतंत्र पर से उसका भरोसा खत्म करने में सुप्रीम कोर्ट की इस देरी ने भी बड़ा योगदान दिया है। 

राज्य सरकारों में सत्ता पर काबिज पार्टियों और नेताओं के ऐसे बुलडोजरी फैसले किसी भी जागरूक न्यायपालिका के रहते हुए उन्हीं राज्यों में रोक दिए जाने चाहिए थे। हालत यह हो गई है कि बुलडोजरों को एक गौरव का प्रतीक मान लिया गया है, और हाल के बरसों में देश के कई प्रदेशों में नेताओं के स्वागत में बुलडोजरों पर चढक़र लोग फूल बरसाते हैं, या बुलडोजर सरीखी दूसरी तोडफ़ोड़ करने की मशीनों से फूल गिराए जाते हैं। बुलडोजर को एक धर्मान्ध और साम्प्रदायिक, अलोकतांत्रिक और हिंसक ताकत का गौरवशाली प्रतीक बना दिया गया है, और अब तो कई जगहों पर उन्मादी जनता यह मांग करती है कि बलात्कार या हिंसा के किसी आरोपी के घर पर तुरंत बुलडोजर चलाया जाए। यह पौन सदी की लोकतांत्रिक समझ और सहनशीलता का एक दशक से कम में अंत है, क्योंकि जिस अंदाज में सत्ता को नापसंद लोगों के मकान-दुकान के खिलाफ पुराने नोटिस निकालकर छांट-छांटकर उन पर बुलडोजर चलाया जाता है, उससे लोगों की हिंसक भावनाओं को लोकतांत्रिक जिम्मेदारी से पूरी ही आजादी मिल जाती है। किसी अदालत को यह नहीं सूझा कि वह राज्य सरकार और म्युनिसिपल से पूछे कि जिन नोटिसों के आधार पर उन्होंने इन चुनिंदा नापसंद लोगों के निर्माण गिराए हैं, उस दर्जे के और कितने नोटिस उनके म्युनिसिपल इलाके में बिना कार्रवाई के पड़े हुए हैं, और उनमें से किसी धर्म के लोगों के कितने नोटिस बकाया हैं। अदालत का ऐसा एक सवाल सरकारों और म्युनिसिपलों की बदनीयत को उजागर कर देता कि उसके चुनिंदा निशाने किन पैमानों पर और किन वजहों से तय किए गए हैं।

लोकतंत्र में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी बड़ी संवैधानिक अदालतों को इतनी सामान्य समझबूझ भी इस्तेमाल करनी चाहिए कि अगर सरकारें बदनीयत हो गई हैं, साम्प्रदायिक हो गई हैं, लोकतंत्र को कुचल रही हैं, तो उन्हें संदेह का अंधाधुंध लाभ देते जाने के बजाय, आम लोगों को एक हिफाजत दी जाए, ताकि उनकी जिंदगी भर की मेहनत से बने मकान-दुकान कुछ घंटों में खत्म न कर दिए जाएं। देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर जब भी कोई खतरा रहे, उसे रोकने का काम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी अदालतों को रहता है जो कि किसी मामले में फैसला देने के पहले भी कार्रवाई को रोककर जरूरतमंद लोगों को हिफाजत की राहत दे सकते हैं। अनगिनत दूसरे मामलों में अदालतें ऐसे स्थगन देती रहती हैं, लेकिन बुलडोजरी संस्कृति के उन्मादी नारों से भी सुप्रीम कोर्ट जजों की नींद पता नहीं क्यों नहीं खुलीं, क्योंकि इस संस्कृति से न सिर्फ अल्पसंख्यकों के पुराने मकान-दुकान गिर रहे थे, बल्कि भारत का धर्मनिरपेक्ष ढांचा भी गिर रहा था। हम उम्मीद करते हैं कि अब एक पखवाड़े बाद सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई और करेगा, और पूरे देश के लिए एक नीति तय करेगा। जब भी सरकार के किसी काम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला देता है, उससे तमाम सरकारों को आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण करने का एक मौका भी मिलता है। हमारा ख्याल है कल सुप्रीम कोर्ट जजों ने जो रूख दिखाया है, उसके बाद ऐसी कार्रवाई फिलहाल थम जाएंगी, और अदालत को यह हिसाब तो साफ-साफ मांगना चाहिए कि जैसे नोटिसों के आधार पर चुनिंदा अल्पसंख्यकों के निर्माण गिराए गए हैं, वैसे नोटिस और कितने लोगों को कितने बरस से जारी पड़े हुए हैं, और उन पर कोई कार्रवाई न करके सिर्फ कुछ आरोपियों पर ही क्यों की गई है? यह भेदभाव लोकतंत्र पर एक गहरी चोट भी है, यह भी समझने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news