संपादकीय
हिन्दुस्तान में अदालतों पर बढ़ते हुए, और बहुत बुरी तरह बढ़ चुके मामलों के बोझ की एक बड़ी वजह यह भी लगती है कि देश की सरकारें बदनीयत से भरे हुए अहंकार के फैसले लेती हैं, और फिर जब कोई प्रभावित पक्ष या जनहित याचिका इनके खिलाफ अदालत तक पहुंचती हैं, तो ऐसा लगता है कि एक ही संविधान की शपथ लेकर काम करने वाले दो पहलू, सरकार और अदालत आपस में लड़ रहे हैं। यह भी लगता है कि बड़ी अदालतों का आज का सबसे बड़ा काम देश की सरकारों से संविधान को बचाने का काम रह गया है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच यही है। सरकार के मनमाने फैसलों में से अधिकतर तो इसलिए खप जाते हैं कि विपक्ष ने भी कई बार वैसे ही फैसले लिए रहते हैं, और विरोध करने का उसका मुंह नहीं रहता। दूसरी बात यह भी रहती है कि मीडिया का एक खासा बड़ा हिस्सा या तो सरकार, या उससे फायदा पाने वाले कारोबार के साथ तालमेल बनाकर चलता है, और लोकतंत्र में यह एक गुंजाइश भी खत्म हो जाती है। ऐसे में कई मामलों में कोई आरटीआई एक्टिविस्ट कारगर साबित होते हैं, और उनकी महीनों या बरसों की मेहनत से हासिल जानकारी से मीडिया समाचार बना लेता है, विपक्ष विधानसभा और लोकसभा में सवाल उठा लेता है, और कोई जनसंगठन अदालत में पीआईएल लेकर पहुंच जाते हैं। इसलिए आज लोकतंत्र के तीन घोषित स्तंभों के बाद चौथा स्वघोषित स्तंभ, मीडिया भी पहले के तीन की तरह बहुत से मामलों में बेअसर हो जाता है, और ऐसे में इस सदी के दो नए सक्रिय तबके, आरटीआई एक्टिविस्ट, और जनसंगठन काम आते हैं।
आज की यह बात हम उत्तराखंड सरकार के एक बददिमाग फैसले को लेकर लिख रहे हैं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कल भयानक नाराजगी जाहिर करते हुए कहा है कि यह कोई सामंती युग नहीं है कि जो भी राजाजी बोलें, वही होगा। यह मामला उत्तराखंड में जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व से गंभीर आरोपों में हटाए गए एक अफसर को राजाजी टाइगर रिजर्व में नियुक्त करने का है जिसमें कि उत्तराखंड विभागीय मंत्री, और राज्य के मुख्य सचिव इस नियुक्ति से सहमत नहीं थे, फाइलों पर उनकी असहमति दर्ज है, लेकिन इसे दरकिनार करके मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यह नियुक्ति की। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर कड़ी आपत्ति की है कि अगर अपने ही मंत्री, और मुख्य सचिव से असहमति के बाद भी सीएम ऐसा करना चाहते थे तो उन्हें फाइल पर इसके ठोस कारण दर्ज करने चाहिए थे। अदालत ने सरकारी वकील के इस तर्क को खारिज कर दिया कि मुख्यमंत्री के पास किसी को भी नियुक्त करने का विशेषाधिकार होता है। अदालत ने कहा कि वे मुख्यमंत्री हैं तो क्या कुछ भी कर सकते हैं? उन्होंने सार्वजनिक विश्वास के सिद्धांत को कूड़ेदान में फेंक दिया। अदालत ने कहा कि सरकार एक अफसर को संत साबित करने पर तूली है।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में इसे अमृतकाल कहा जा रहा है क्योंकि आजादी के 75 साल पूरे हुए हैं। दूसरी तरफ इस देश के निर्वाचित नेताओं का यह हाल है कि वे अंग्रेजों के भी पहले के राजाओं के युग के विशेषाधिकार चाहते हैं कि वे जो चाहें वह करें। देश भर में निर्वाचित नेताओं की अगुवाई में चलने वाली सरकारों के अनगिनत फैसले सरकार का वक्त जाया कर रहे हैं। अपने पसंदीदा अफसरों के जुर्म दबाने के लिए, उन्हें बचाने के लिए सरकारें क्या-क्या करती हैं, इसे देश के तकरीबन हर राज्य में देखा जा सकता है। यह मामला जरूर उत्तराखंड से जुड़ा हुआ है, लेकिन अधिकतर राज्य इसी तरह के मामलों के गवाह हैं। छत्तीसगढ़ में तो हम ऐसे मामलों की भरमार देखते हैं जिनमें किसी एक पार्टी की तोप के निशाने पर जो अफसर रहते हैं, वे उस पार्टी की सरकार बनते ही उसके सबसे पसंदीदा बन जाते हैं, और लोकतंत्र के सिर पर चढक़र पांच बरस पेशाब करते हैं। आज ऐसा लगता है कि आईएएस अफसरों को चुने जाने के बाद मसूरी की जिस राष्ट्रीय अकादमी में प्रशासनिक और सरकारी कामकाज की ट्रेनिंग दी जाती है, वहां उन्हें साल दो साल लगातार मिसालें दे-देकर यह सिखाना अधिक काम का रहेगा कि कैसे-कैसे काम न किए जाएं। काम करना तो लोग खुद भी सीख सकते हैं, लेकिन संविधान की भावना और उसके शब्दों के खिलाफ जाकर काम न करना सीखना अधिक जरूरी है।
सरकार के फैसलों में से जितने गलत रहते हैं, उनमें से भी दो-चार फीसदी ही अदालतों तक जा पाते हैं, क्योंकि विरोध करने की ताकत सरकार जितनी तो किसी की रहती नहीं है। सरकार तो जब चाहे तब करोड़ों की फीस देकर महंगे से महंगे वकील ले आती है, और खुद के पास वकीलों की फौज तो रहती ही है। भारतीय शासन व्यवस्था को सत्तारूढ़ नेताओं, और अफसरों के बीच शक्ति संतुलन के हिसाब से बनाया गया था। खुद नेताओं के भीतर मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों के बीच अधिकारों और जिम्मेदारियों का एक संतुलन मंत्रिमंडल की व्यवस्था की शक्ल में रहता है। लेकिन जब अफसर बेईमान और सुविधाभोगी होने लगते हैं, तो वे सत्तारूढ़ नेताओं के गलत हुक्म पर भी सलामी बजाते रहते हैं। और यहीं से सत्ता के जुर्म शुरू होते हैं, जिनके चलते कई बार नेता और अफसर जेल जाते हैं। यह तो कभी हाईकोर्ट में, और कभी सुप्रीम कोर्ट में सरकारों के खिलाफ मामले ऐसे जजों के सामने चले जाते हैं जो सत्ता को खुश रखने के फेर में नहीं रहते, और कडक़ इंसाफ की बात करते हैं। हमारा मानना है कि देश के सभी प्रदेशों को उत्तराखंड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के इस रूख से नसीहत लेना चाहिए कि अब लोकतंत्र का दौर है, और सरकारें मनमानी करने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकतीं। नेताओं और अफसरों को अपनी अलग-अलग सीमाओं, और जिम्मेदारियों को समझना चाहिए क्योंकि ऐसा कोई एक अदालती फैसला भी उनका भविष्य चौपट कर सकता है, या जैसा कि हम इन दिनों छत्तीसगढ़ में देख रहे हैं, जेल भेज सकता है।