संपादकीय
लोकतंत्र में जनता के जानने का अधिकार, और उनके सामने अपने समाचार-विचार रखने का अधिकार भारत में मीडिया को, और खासकर अखबारों को बड़ा महत्वपूर्ण बनाता है। समाज के बाकी तबकों की तरह अखबारों में भी नीति-सिद्धांतों की कुछ गिरावट आई है, लेकिन वे मीडिया के बाकी हिस्सों से परे आज भी अधिक जिम्मेदार और अधिक जवाबदेह बने हुए हैं। और अखबारों की वजह से ही लोकतंत्र के बाकी तबके, विधानसभा और संसद, सरकार, और न्यायपालिका को भी अखबारों की वजह से सजग रहने, जानकारी पाने, और खुद भी जवाबदेह बने रहने का एक बेहतर मौका मिलता है। यह एक अलग बात है कि आज बहुत से अखबारों का बहुत सा हिस्सा सरकार और बाजार से प्रभावित और प्रायोजित रहता है, लेकिन छोटे-बड़े कई किस्म के अखबारों में से चूंकि हर किसी का मुंह एक साथ बंद नहीं किया जा सकता, उनकी चुप्पी को एक साथ नहीं खरीदा जा सकता, इसलिए अखबार आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। जब राजनीतिक दलों और सरकारों को नीति और नीयत की अधिक फिक्र नहीं रह गई है, उनकी झिझक अधिकतर बातों के लिए खत्म हो चुकी है, तब भी अखबारों की वजह से उनके हर गलत काम छुप नहीं पाते, और अधिकतर काम कभी न कभी सतह पर आ ही जाते हैं।
हम अखबारों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि वे नेताओं, और उनके संगठनों, सरकारों, और उनके अलग-अलग हिस्सों के लिए आज भी समय रहते उनकी आंखें खोलने वाले हैं। अखबारों में अपने बारे में नकारात्मक समाचार पढक़र सरकारों का बौखलाना पहले के मुकाबले बढ़ते चल रहा है, क्योंकि अखबार खुद अपनी महंगी अर्थव्यवस्था के लिए सरकारी इश्तहारों और उससे दूसरे किस्म की मेहरबानियों के मोहताज हो गए हैं। इसलिए सरकार को यह शिकायत हो सकती है कि उसकी मदद से छपने वाले अखबार उसकी गलतियों और गलत कामों को छुपाने में मदद नहीं करते। लेकिन यह छुपाना किसी भी समझदार सरकार के लिए लंबे फायदे की बात नहीं होती है। अगर अखबारों में सरकारी भ्रष्टाचार, गड़बड़ी, मनमानी का सच न छपे, तो सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी खुशफहमी में जीने लगेंगे कि सब ठीक चल रहा है। हमने न सिर्फ इमरजेंसी के दौर में देखा है, बल्कि बाद में भी कुछ अलग-अलग सरकारों के राज में बिना इमरजेंसी के भी देखा है कि अपने बारे में हकीकत छपते देखना जिन्हें मंजूर नहीं होता, वे आगे किसी चुनाव में बहुत बुरी तरह शिकस्त पाते हैं। कई सरकारें अखबारों को कभी खरीदकर, तो कभी डराकर काबू में रखती हैं, और अपने बारे में सब कुछ अच्छा-अच्छा छपा देखना चाहती हैं। इससे कुछ पल के लिए तो जनधारणा प्रबंधन में मदद मिल सकती है, लेकिन जब हकीकत सचमुच ही खासी नकारात्मक रहती है, तो उसके ऊपर अखबारों की चुप्पी की चादर ढांककर लंबे समय के लिए इसे नहीं दबाया जा सकता।
लोकतंत्र में जहां पर जनता के हाथ वोट है, और जो जनता खासी लोकप्रिय, लुभावनी, कामयाब, और फायदे देने वाली सरकार को भी निपटा देती है, वहां पर जनता के बीच के मुद्दों और हालात को दिखाने वाले समाचारों को दबाना खुद सत्ता के लिए समझदारी नहीं होती। समाचार तो धीरे-धीरे करके जनता के विचार तैयार करते हैं, लेकिन यह बात नहीं भूलना चाहिए कि जमीनी हालात बिना अखबारों के भी जनता के खयालात बदलते चलते हैं। लोग जब सरकारी बदइंतजामी, भ्रष्टाचार, कुशासन से परेशान रहते हैं, उस वक्त अखबारों में तो खबरों को कुछ या अधिक हद तक दबाया जा सकता है, लेकिन जनता का असंतोष दबते-दबते चुनाव में विस्फोट की तरह सामने आता है। हमने बहुत से प्रदेशों में इस तरह के विस्फोट देखे हैं जब अच्छी-भली चलती हुई सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी के हार का कोई आसार नजर नहीं आता था, और चुनावी सर्वे से लेकर ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल तक सत्तारूढ़ पार्टी की एकतरफा जीत की भविष्यवाणियां चल रही थीं, और पार्टी निपट गई। छत्तीसगढ़ में ही पन्द्रह बरस की रमन सरकार जिस बुरी तरह खारिज हुई थी, उसके कोई आसार नहीं दिख रहे थे। ठीक इसी तरह पिछले पांच बरस की भूपेश सरकार दसियों हजार करोड़ के फायदे वोटरों को देते हुए भी जिस बुरी तरह हारी है, वह भी इस बात का सुबूत है कि मीडिया-मैनेजमेंट नाम के एक बदनाम शब्द का अंधाधुंध इस्तेमाल जनता को तो अंधेरे में नहीं रखता, सत्ता को जरूर अंधेरे में रखता है, अतिआत्मविश्वासी बना देता है, और इन दोनों का मिलाजुला असर अहंकार में तब्दील होता है।
किसी भी समझदार सत्ता के लिए अखबार में उसके बारे में छपी नकारात्मक खबरें रोजाना अपने को संभालने का सबसे अच्छा मौका रहती हैं। सत्ता के हर दर्जे के भागीदार अपने मातहत लोगों की गलतियों को, गलत कामों को खबरों में देखकर उनमें सुधार की कोशिश कर सकते हैं, और ईमानदार आत्मविश्लेषण लोगों को पांच बरसों में लगातार सुधार का एक मौका देता है। दिक्कत यह होती है कि नेताओं के इर्द-गिर्द के दायरे एक रणनीतिक धुंध बनाकर रखना चाहते हैं ताकि नेता को सब कुछ अच्छा दिखता रहे। नतीजा यह होता है कि नेता खुशफहमी में रहते हैं, और जनता तो तकलीफ पाई हुई रहती है, और पांच बरस बाद उसके सामने जब ईवीएम आती है, तो वह सरकार से अपने सारे हिसाब-किताब एक उंगली से तय करती है। लोकतंत्र में हर दिन अखबारों में छपने वाली असफलताओं को देख-देखकर अगर सत्ता अपने इंतजाम को सुधारते चले, तो उसे पांच बरस बाद नाजायज घोषणाओं, और नाजायज तौर-तरीकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हम लोकतंत्र में उस सरकार को सफल मानते हैं जो लोकतंत्र के दूसरे औजारों पर भरोसा करती है। इनमें अखबार भी एक औजार हैं जिनमें रोज आईने की तरह अपना चेहरा देखकर सरकार संभल सकती है कि उसे कहां-कहां अपना काम सुधारना है।
यह लोकतंत्र में कोई बहुत बड़ी आदर्श व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक सहज स्थिति रहनी चाहिए। यह एक अलग बात है कि कुछ लोग सत्ता को अंधेरे में रखने के लिए अखबारों का चुप रहना पसंद करते हैं, और पांच बरस जाकर सत्ता ऐसे अंधेरे में रहते हुए गड्ढे में गिर जाती है। समझदार सत्ता को लोकतंत्र का फायदा उठाना चाहिए, और हर दिन के अखबार से अपनी गड़बडिय़ां देखकर उन्हें सुधारना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)