संपादकीय
गणेशोत्सव को लेकर इस बरस तनातनी कुछ अधिक दिख रही है। पहले ही दिन छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के एक गांव में गणेश पंडाल में लाउडस्पीकर पर संगीत बजाने को लेकर खूब झगड़ा हुआ, और दो खेमों के बीच इतनी मारपीट हुई कि बांस से पीट-पीटकर एक खेमे के तीन लोगों को मार डाला गया। दस दिनों तक चलने वाला जो गणेशोत्सव खुशियां लेकर आना चाहिए, वह लाशें लेकर आया है। और इसमें गणेशजी की कोई गलती नहीं है, गलती उन लोगों की है जो गणेश-पूजा के साथ अनिवार्य रूप से लाउडस्पीकर जोड़ देते हैं, चंदा उगाही से लेकर सडक़ पर ट्रैफिक रोकने तक की मनमानी करते हैं। कल ही राजधानी रायपुर में बनाया गया एक बहुत बड़ा गणेश पंडाल हवा से गिर गया, और नीचे दबी एक कार चकनाचूर हो गई, लोग किसी तरह बच गए। इधर बिलासपुर में बसा हुआ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट लगातार नोटिस पर नोटिस जारी करते जा रहा है, और पुलिस और प्रशासन शोरगुल के कारोबारियों को कागजी नोटिस थमाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले रहे हैं। कई अफसरों का यह कहना है कि त्यौहार के बीच धार्मिक भावनाएं इतनी उभरी और भडक़ी हुई हैं कि भीड़ को हाईकोर्ट का आदेश समझाना खतरे से खाली नहीं है। दस दिन के गणेशोत्सव के पंडाल बनते और हटते मिला लें, तो सडक़ों पर बीस दिन का कब्जा हो जाता है, और आसपास का कारोबार तबाह होता है, सडक़ों पर आवाजाही घंटों तक फंसी रहती है। धर्म के नाम पर जो आक्रामक और हिंसक तेवर भीड़ के रहते हैं, उससे उलझना आसान और महफूज काम नहीं रहता, इसलिए पुलिस ऐसे जुलूसों को रोकने के बजाय उनके साथ-साथ उनकी हिफाजत करते चलती है।
आज ही अखबारों में खबरें हैं कि किस तरह बिजली के तारों से गणेश पंडालों के लिए सीधे बिजली ले ली गई है, और इसकी वजह से कई इलाकों में बत्ती गुल हो रही है। यह हाल प्रतिमाओं को लेकर जाने से लेकर प्रतिमाओं के विसर्जन तक चलते रहता है, और जब पुलिस-प्रशासन की हिम्मत ऐसी अराजकता को रोकने-टोकने की नहीं होती, तो मुश्किल में फंसने वाली त्रस्त जनता भला क्या कर लेगी। हमारा ख्याल है कि प्रदेश में लाउडस्पीकरों, और धार्मिक अराजकता के बाकी प्रदर्शन-प्रतीकों को देखते हुए हाईकोर्ट को अपना आदेश खुद ही वापिस ले लेना चाहिए, और शासन-प्रशासन से माफी भी मांग लेनी चाहिए कि उन्हें पिछली कुछ बरसों से अदालत से जो तकलीफ हुई है, उसके लिए आज जैन क्षमायाचना के दिन माफ किया जाए। जिन आदेशों पर अमल नहीं हो सकता, उनकी वजह से लोगों का भरोसा सरकारों, अदालतों, और जनता की किसी काल्पनिक ताकत, सब पर से उठ जाता है।
हम दुर्ग जिले में परसों रात मारपीट में हुए तीन कत्ल पर बात करें, तो पता लगा है कि वहां तमाम नौजवान नशे में भी थे। अब एक तरफ दारू का नशा, दूसरी तरफ धर्मान्धता का नशा, और इन सबके साथ जब बेरोजगार निठल्लों के पास ढेर सा खाली वक्त हो, आगे की जिंदगी के लिए कोई भी उम्मीद न हो, तो फिर लोग नशे में एक-दूसरे को निपटाते हुए कानून के बारे में नहीं सोचते। गांवों का हाल यह है कि शाम के बाद आबादी का एक बड़ा हिस्सा नशे में डूबा रहता है, और ऐसे में ही घर-परिवार में आपस में होती हिंसा भी लगातार बढ़ती चल रही है। पुलिस परिवारों के भीतर, दोस्तों के बीच होते कत्लों की लाशें उठाते हुए बुरी तरह थकी हुई है, और ऐसे में कानूनी और गैरकानूनी, दोनों तरह के नशे आगे में घी डाल रहे हैं। अब ऐसे माहौल में लाउडस्पीकरों की आवाज पर झगड़े, धार्मिक जुलूसों में चाकूबाजी से कत्ल, गणेश पंडालों में बैठकर शराब पीना, और जुआ खेलना, सभी तरह के काम चल रहे हैं। यह अराजकता लोगों में हिंसा बढ़ाती चल रही है, और पुलिस-प्रशासन इसे रोकने की सोचने के पहले यह सोचना शुरू कर देते हैं कि धार्मिक और धर्मान्ध भीड़ से टकराव लेना समझदारी तो होगी नहीं।
चुनाव जीतने के लिए तो किसी समुदाय में धार्मिक भावनाएं भडक़ाना समझ में आता है, लेकिन जब भडक़ने की यह आग चुनाव के बाद शांत नहीं होती, और पूरे पांच बरस भभकती रहती है, तो इससे न सिर्फ धर्मान्ध हिंसा, बल्कि कई मौकों पर साम्प्रदायिक हिंसा का भी खतरा बढ़ जाता है, सार्वजनिक जीवन में अराजकता तो स्थाई रूप से बढ़ ही चुकी है, और फिर एक धर्म के मुकाबले दूसरे धर्म या धर्मों का अराजक-प्रदर्शन भी बढ़ते चलता है। एक दूसरी बड़ी दिक्कत नौजवान पीढ़ी के सामने अपनी खुद की संभावनाओं को लेकर है। जिस पीढ़ी को किसी काम-धंधे से लगना चाहिए, नौकरी ढूंढनी चाहिए, या कोई रोजगार शुरू करना चाहिए, उसे एक के बाद एक अंतहीन धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में इस तरह जोतकर रखा जा रहा है कि मानो तांगे में किसी घोड़े को जोतकर रखा गया हो, और उसकी आंखों को कवर लगाकर ढांक भी दिया गया हो, ताकि उसे दाएं-बाएं का कुछ न दिखे, और वह विचलित न होकर सीधा दौड़ते जाए। आज नौजवान पीढ़ी को धर्म और राजनीति के कवर लगाकर उसकी असल संभावनाओं की तरफ उसका देखना रोक दिया गया है। और लोग जयकारों में, जिंदाबाद-मुर्दाबाद में, और अपने धर्म की रक्षा करने, और दूसरे धर्म के लोगों को सरहद के पार फेंकने के फतवों में डूबे हुए हैं। जिंदगी के लिए जिनके सामने कोई मकसद और मंजिल न हों, वैसे लोगों को किसी भीड़ और जुलूस का हिस्सा बनाना बड़ा आसान रहता है, और आज वही कुछ चल रहा है।
रोजमर्रा की जिंदगी पर धर्म का प्रदर्शन जिस बुरी तरह हावी हो चुका है, उस पर जनता तो कुछ भी रोकने-टोकने की हालत में नहीं है। सार्वजनिक जीवन में चैन से जीने के अपने हक का दावा करने वाले लोगों पर धर्मविरोधी होने की तोहमत लगाते हुए उनका जीना हराम कर दिया जाता है। इस सिलसिले को बदलने के लिए कानून के राज को फिर से कायम करना रहेगा, लेकिन सरकारों की दिलचस्पी इसमें कम है, और बड़ी अदालतों के जज अपने ही फैसलों पर अमल नहीं करवा पा रहे हैं। इस नौबत का कोई भी इलाज हमें तब तक नहीं दिखता, जब तक कि सरकारों में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)