संपादकीय
महाराष्ट्र के बदलापुर की एक स्कूल में जब कुछ हफ्ते पहले दो छोटी बच्चियों से यौन शोषण का मामला सामने आया, और अक्षय शिंदे नाम का एक नौजवान उसमें पकड़ाया, तो बड़ा बवाल हुआ। ट्रेनें रोकी गईं, और जगह-जगह प्रदर्शन हुए। महाराष्ट्र की शिंदेसेना-भाजपा गठबंधन सरकार के लिए यह खास शर्मिंदगी का मौका इसलिए भी था कि इसी वक्त बंगाल के कोलकाता में सरकारी मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर से बलात्कार और उसकी हत्या का मामला देश भर को विचलित कर रहा था, और वह वहां की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के खिलाफ भाजपा के हाथ एक बड़ा मुद्दा लगा था। ऐसे में जब एक-एक करके कई भाजपा राज्यों में तरह-तरह से बलात्कार की घटनाएं आने लगीं तो भाजपा के हमलों की धार खत्म हो गई। अब महाराष्ट्र में बदलापुर की यह घटना एक नया नाटकीय मोड़ ले चुकी है क्योंकि बच्चियों के यौन शोषण के आरोपी अक्षय शिंदे की पुलिस हिरासत में हथकड़ी लगे-लगे पुलिस गोली से मौत हो गई, और इसे महाराष्ट्र के बाम्बे हाईकोर्ट ने बड़ी हैरानी और गंभीरता के साथ लिया है, और राज्य की पुलिस को कटघरे में खड़ा किया है। अदालत ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि हथकड़ी लगे हुए मामूली कद-काठी के एक गिरफ्तार को चार-चार पुलिस अफसर नहीं संभाल सके, और उन्होंने आत्मरक्षा में इस आरोपी को गोली मारने की बात कही है जो कि पैरों पर मारने के बजाय सीधे सिर पर मारी गई है। अदालत ने पुलिस की कहानी को किसी भी तरह मानने से इंकार कर दिया है।
लेकिन हम पुलिस की फर्जी मुठभेड़ें बहुत से प्रदेशों में देखते रहते हैं, और आज की यह बात सिर्फ पुलिस मुठभेड़ तक सीमित नहीं है। दरअसल जैसे ही यह मुठभेड़ ‘मौत’ हुई, वैसे ही महाराष्ट्र में मुम्बई में कई जगहों पर गृहमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस के होर्डिंग लग गए जो फडऩवीस को पिस्तौल और मशीनगन लिए हुए दिखा रहे हैं, और होर्डिंग पर बस दो शब्द लिखे हैं- बदला पूरा। अब सवाल यह उठता है कि संविधान की शपथ लेकर काम संभालने वाली सरकारें अगर संविधान के ठीक खिलाफ जाकर अंधाधुंध मुठभेड़-हत्याएं करती हैं, बुलडोजरी इंसाफ करती हैं, तो कम से कम संविधान की शपथ दिलवाना बंद कर देना चाहिए। अगर एक निहत्थे, और हथकड़ी से जकड़े हुए मामूली से नौजवान को चार-चार हथियारबंद पुलिसवाले काबू नहीं कर सकते, और सिर में गोली मारना ही उनके पास अकेला विकल्प है, तो यह जाहिर है कि यह उस आरोपी को काबू में रखने के लिए नहीं, गृहमंत्री को होर्डिंग पर अपनी कामयाबी दिखाने का मौका देने के लिए किया गया काम है।
यह सिलसिला बहुत ही भयानक है। यह वही मुम्बई है जहां पर पुलिस के कुछ अफसर रिवॉल्वर का ट्रिगर दबाने के ऐसे शौकीन हो गए थे कि एक-एक के नाम दर्जनों मुठभेड़-हत्याओं का रिकॉर्ड दर्ज है। यह एक अलग बात है कि ऐसे ही एक सबसे चर्चित अफसर प्रदीप शर्मा को अभी फर्जी मुठभेड़-हत्या में उम्रकैद भी हुई है। इसके बावजूद पुलिस में हमेशा ही कुछ ऐसे अफसर रहते हैं जो कि पहले तो एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की शोहरत हासिल करते हैं, और उसके बाद वे अंडरवल्र्ड के किसी एक गिरोह के साथ मिलकर दूसरे गिरोह के लोगों को मार गिराने की सुपारी उठाते हैं, तो कभी जमीनों के धंधे में माफिया बन जाते हैं। पुलिस को जब कभी किसी गैरकानूनी काम के लिए बढ़ावा दिया जाता है, तो पुलिस सिर्फ उसी काम को करके नहीं थमती है। पुलिस उसके आगे बढ़ते हुए अपनी मर्जी के भी कई काम करती है, और बहुत से मामलों में वह धंधेबाज होकर भाड़े के हत्यारे का काम भी करने लगती है, रिवॉल्वर का डर दिखाकर वह वसूली-उगाही में भी लग जाती है।
हमारा ख्याल है कि बाम्बे हाईकोर्ट ने इस ताजा मुठभेड़-हत्या की कमजोर नब्ज पर हाथ धर दिया है, और जनता के बीच वाहवाही पाने के लिए करवाई गई राजनीतिक हत्याओं की ऐसी तेज जांच ही होनी चाहिए। लोगों को याद होगा कि 2019 में हैदराबाद में एक 26 बरस की डॉक्टर से बलात्कार, और उसके कत्ल के मामले में गिरफ्तार चार लोगों को पुलिस ने जुर्म की जगह ले जाते हुए नेशनल हाईवे के किनारे एक पुल के नीचे मुठभेड़ बताकर मार डाला था। बाद में एक न्यायिक जांच आयोग ने इसमें शामिल पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की थी, लेकिन उसे तेलंगाना हाईकोर्ट ने मई 2024 में स्टे कर दिया था। और जनता के बीच इन चार मुठभेड़-हत्याओं को लेकर पुलिस की ऐसी वाहवाही हुई थी कि पुलिस पर फूल बरसाए गए थे।
पुलिस को इस हद तक हत्यारा बनाने का एक बड़ा नुकसान यह होता है कि उसका अनुशासन पूरी तरह खत्म हो जाता है, वह अराजक हो जाती है, और चूंकि वह खुद जुर्म करने लगती है इसलिए उसे बाकी मुजरिम उतने बुरे भी नहीं लगते। लेकिन मुजरिम बनने के बाद पुलिस दूसरे कई किस्म के जुर्म भी करने लगती हैं। पंजाब में आतंक के दिनों में केपीएस गिल की पुलिस ने मानवाधिकारों को जितना कुचला था, जितने बेकसूर लोगों का कत्ल किया था, उसमें आज बहुत सारे पुलिसवाले कैद भुगत रहे हैं। अब सीसीटीवी कैमरों, मोबाइल फोन लोकेशन जैसे बहुत से वैज्ञानिक सुबूतों का वक्त है, और ऐसे में पुलिस को भी जुर्म करने से बचना चाहिए, और नेताओं को पुलिस से कत्ल करवाने से परहेज करना चाहिए। कुछ ऐसी हिन्दी फिल्में बनी हैं जिनमें कोई पुलिस अफसर ही मंत्रियों और नेताओं का कत्ल करते दिखते हैं।
महाराष्ट्र में गृहमंत्री अगर बदलापुर के आरोपी की पुलिस हिरासत में इस तरह हुई हत्या के बाद बदला-पूरा के होर्डिंग लगवाते हैं, या उनकी ऐसी हथियारबंद तस्वीर के साथ ऐसे होर्डिंग लगते हैं, तो यह देश में कानून के राज की बहुत बड़ी हेठी है। अदालत को तो ऐसे होर्डिंग की जांच भी करवानी चाहिए कि वे कैसे लगे हैं, और कैसे यह माना जा रहा है कि गृहमंत्री ने यह बदलापुर का बदला पूरा किया है। लोकतंत्र में हिरासत के मुजरिम की हत्या अगर किसी नेता को अपने फख्र का सामान लगती है, तो यह शर्मनाक नौबत है। इसका मतलब है कि जनता के मन में भी कानून का सम्मान खत्म हो गया है, और वह बंदूक की नली से निकले इंसाफ पर तालियां बजाती है। फिर सरकार और नक्सलियों में फर्क क्या रह गया, वे भी तो अपने हत्यारे फैसलों को बंदूक की नली से निकली क्रांति बताते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)