संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस सरकार तो क्या, बाजार भी नहीं रोक पा रहा है...
30-Sep-2024 3:25 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस सरकार तो क्या, बाजार भी नहीं रोक पा रहा है...

छत्तीसगढ़ सरकार ने सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस को लेकर अपना बरसों पुराना एक ऑर्डर दुबारा जारी किया, तो बड़ी खलबली मच गई है। सरकारी सेवा शर्तों में जिन डॉक्टरों को नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस मिलता है, वे भी धड़ल्ले से बाहर बाजार में प्रैक्टिस करते हैं। सेवा शर्तों में उन्हें महज अपने घर पर मरीज देखने की छूट रहती है, लेकिन अधिकतर सरकारी डॉक्टर बाजार में क्लिनिक खोलकर, या बड़े अस्पतालों से जुडक़र वहां नाम की तख्ती लगाकर प्रैक्टिस करते हैं। सरकारी नौकरी में जितने सर्जन और एनेस्थेटिस्ट हैं, वे या तो अपने नर्सिंग होम चलाते हैं, या किसी और निजी अस्पताल में हर दिन घंटों काम करते हैं। यह सब कुछ नियमों के खिलाफ है, लेकिन विधायक बनने के पहले से नेता ऐसे डॉक्टरों के मरीज रहते हैं, बड़े-बड़े अफसर अपने परिवारों को लेकर इन्हीं डॉक्टरों के क्लिनिक जाते हैं, और इसलिए आदेश निकालने से ज्यादा सरकार इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

अब अगर सरकारी मेडिकल कॉलेजों को देखें, तो वहां पढ़ाने वाले, और कॉलेज के अस्पताल के बाहर निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर सबसे अधिक ताकतवर होते हैं क्योंकि सत्ता के सर्वोच्च लोगों को जब जरूरत पड़ती है, तो ये सीनियर डॉक्टर ही सबसे पहले बुलाए जाते हैं, और इन्हीं की राजनीतिक पहुंच सबसे अधिक होती है। इसके साथ-साथ इस हकीकत को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों को पढ़ाने के लिए डॉक्टर मिल नहीं रहे हैं, और खुद सरकार तरह-तरह का फर्जीवाड़ा करके राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की टीम आने पर मेडिकल कॉलेजों में प्राध्यापक-चिकित्सकों की फर्जी हाजिरी दिखाती है, और किसी तरह मेडिकल सीटें रद्द होने के खतरे को टालती है। ऐसी हालत में जब चिकित्सा-प्राध्यापक मिल ही नहीं रहे हैं, तब निजी प्रैक्टिस के नियम को उन पर लागू करके उन पर कोई कार्रवाई करना भला कैसे मुमकिन हो सकेगा? इसलिए जहां डिमांड से बहुत कम सप्लाई है, वहां पर डॉक्टरों की कमी के बाद उन पर कोई नियम नहीं लादे जा सकते हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब मेडिकल कॉलेज की हर कुर्सी भरी रहे, और सरकार मनमानी करने वाले चिकित्सक-प्राध्यापकों को हटाने की हालत में रहे। ऐसा तो पूरे देश में कहीं भी नहीं है क्योंकि उत्तर भारत के हिन्दीभाषी प्रदेशों में मेडिकल कॉलेजों की ही कमी है, और नए कॉलेज न खुल पाने की एक वजह प्राध्यापकों की कमी भी है। दूसरी तरफ दक्षिण भारत के राज्यों में राष्ट्रीय औसत से अधिक मेडिकल कॉलेज हैं, और वहां दक्षिण भारतीय प्राध्यापक पूरे के पूरे लग जाते हैं।

अब जहां पर जरूरत के मुकाबले डॉक्टरों की कमी है, वहां पर हाल यह है कि देश के बहुत से बड़े-बड़े अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टर भी उन अस्पतालों से परे अपने निजी क्लिनिक भी कुछ घंटे चलाते हैं, और प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं। हो सकता है कि उनके निजी क्लिनिक में आने वाले मरीजों में से जिनको अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ती होगी, उन मरीजों से इन बड़े अस्पतालों को कारोबार मिलता होगा, और इसीलिए अस्पताल अपने इन विशेषज्ञ डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की छूट भी देते होंगे। दरअसल डॉक्टरी का पेशा, और इलाज का कारोबार, इन दोनों की प्राथमिकताएं बिल्कुल अलग-अलग होती हैं, और इनमें जब सरकारी व्यवस्था त्रिकोण का तीसरा कोण बन जाती है, तो यह पूरा मामला बड़ा जटिल हो जाता है। देश में जब तक विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता नहीं बढ़ेगी, तब तक निजी और सरकारी अस्पतालों के बीच विशेषज्ञ डॉक्टरों की खींचतान इसी तरह बनी रहेगी। दूसरी तरफ यह भी समझने की जरूरत है कि कोई भी मेडिकल कॉलेज अस्पताल सीधे विशेषज्ञ चिकित्सक नहीं उगलते। वे पहले तो एमबीबीएस डॉक्टर बनाते हैं, और फिर उनके अनुपात में एक बहुत छोटा सा हिस्सा विशेषज्ञ डॉक्टर बनता है। इसलिए देश में जब तक एमबीबीएस की सीटें नहीं बढ़ेंगी, तब तक न तो विशेषज्ञ डॉक्टर बढ़ेंगे, और न ही मेडिकल कॉलेज बढ़ेंगे।

लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले हमने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के एक फैसले की आलोचना की थी जिसने दक्षिण भारत के राज्यों में एमबीबीएस की सीटें बढ़ाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि वहां राष्ट्रीय औसत से अधिक मेडिकल सीटें हैं। आयोग पहले उत्तर भारत और हिन्दीभाषी राज्यों में मेडिकल सीटें बढ़ाना चाहता है, और इसलिए दक्षिण में चिकित्सा शिक्षा का विस्तार उसने हुक्म निकालकर रोक दिया है। अब यह एक राष्ट्रीय विसंगति है कि जिस दक्षिण भारत में चिकित्सा शिक्षा का (और बाकी उच्च शिक्षा का भी) एक बड़ा ढांचा तैयार किया है, उसे तो विस्तार से रोका जा रहा है, लेकिन उत्तर भारत के राज्य, और हिन्दी राज्य न तो ऐसा ढांचा बना पा रहे हैं, न बाहर के डॉक्टर जाकर इन राज्यों में काम करना चाहते हैं, और यहां आनन-फानन सीटों की बढ़ोत्तरी की गुंजाइश भी नहीं है। ऐसे में उत्तर भारत में भी पढ़ाने के लिए डॉक्टर तो दक्षिण भारत से ही आते दिखते हैं। दक्षिण के सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में उत्तर भारत और हिन्दी राज्यों से भी हर बरस हजारों चिकित्सा छात्र जाते हैं, जिनमें से बहुत से डॉक्टर बनकर अपने राज्यों में लौटते हैं। ऐसे में दक्षिण में विस्तार को रोकना खुद राष्ट्रीय जरूरत के खिलाफ है, और परले दर्जे की अदूरदर्शिता होने के साथ-साथ यह दक्षिण के साथ बेइंसाफी भी है। चूंकि कुछ राज्य नालायक और निकम्मे रह गए हैं, इसलिए देश के मेहनती और विकसित राज्यों को भी विस्तार और विकास से रोका जाए ताकि उत्तर-दक्षिण सब राष्ट्रीय औसत के पास रहें।

हमने सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस से निकली बात दूर तक ले जाकर उत्तर और दक्षिण को लेकर केन्द्र सरकार की एक निहायत, नाजायज सोच तक पहुंचा दी है, लेकिन जो लोग राष्ट्रीय हित को देखेंगे, वे सरकारी नीति की खामी बड़ी आसानी से देख सकेंगे। आज सरकारी मेडिकल कॉलेजों के डॉक्टर अपनी शर्तों पर काम करने की हालत में हैं, उनकी इस ताकत को कम तभी किया जा सकता है जब देश में सरकारी कुर्सियों से अधिक डॉक्टर इन कुर्सियों के लिए कतार में लगे हों। आज छत्तीसगढ़ और इस किस्म के दूसरे राज्यों के बस में कुछ भी नहीं है। निर्वाचित नेताओं से मंत्री-मुख्यमंत्री बने हुए लोग जनता में खपत के लिए चाहे जो भी बयान दे दें, उन पर कोई अमल नहीं हो सकता, खासकर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों के मामले में। भारत सरकार को देश के किसी भी हिस्से से डॉक्टर तैयार होने को बढ़ावा देना चाहिए। आज तो हालत यह है कि रूस, चीन, और बांग्लादेश तक से डॉक्टरी पढक़र हिन्दुस्तानी नौजवान लौट रहे हैं, और यहां पर काम कर रहे हैं। जब विदेशों में पढ़े डॉक्टरों को यहां जगह मिल रही है, तो फिर दक्षिण भारत से परहेज करना, और उत्तर भारत को बराबरी पर लाने के नाम पर परहेज करना एक बेदिमाग फैसला लगता है। चूंकि यूपी-बिहार में उद्योग नहीं लगे हैं इसलिए तमिलनाडु और गुजरात में भी उद्योग बढऩा रोक दिया जाए, क्या यह किसी समझदारी की बात होगी?

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news