विचार / लेख
-चन्द्रशेखर गंगराड़े
जब-जब केंद्र एवं राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रहती हैं तब-तब अक्सर राज्यपाल एवं राज्य सरकार के बीच टकराव के समाचार सुनने में आते रहते हैं। राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य में राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारित करते हैं। जब केंद्र एवं राज्यों में एक ही दल की सरकारें होती थीं तब ऐसा कोई टकराव नहीं होता था लेकिन वर्ष 1967 के बाद जब से राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनने लगीं तब से राज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई और केंद्र सरकार राज्यपाल के माध्यम से राज्य सरकारों पर नियंत्रण का प्रयास करती रही हैं। इसी कारण अनुच्छेद 356 का उपयोग करते हुए कई राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया लेकिन जब धारा 356 का उपयोग बहुत ज्यादा होने लगा तब इस प्रवृत्ति का विरोध होने लगा और राज्यपालों की भूमिका का निर्धारण करने के लिए सरकारिया आयोग का गठन वर्ष 1983 में किया गया और उसने अपना प्रतिवेदन वर्ष 1987 में प्रस्तुत किया। जिसमें राज्यपालों की भूमिका, कर्त्तव्य और दायित्व आदि के संबंध में मार्गदर्शी सिद्धांत निर्धारित किए गए और सरकारिया आयोग की सिफारिशों के बाद ही राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के मामले कम होने लगे। उत्तरप्रदेश में तो फरवरी 1998 में तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी द्वारा उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बर्खास्त कर दिया था और जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया था तब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दखल देते हुए दो दिन के भीतर विधानसभा में कैमरे की निगरानी में मत विभाजन का निर्देश दिया और कहा कि दोनों में से जो जीतेगा उसे मुख्यमंत्री माना जाएगा तब तक के लिए दोनों मुख्यमंत्री बने रहेंगे। अंतत: श्री कल्याण सिंह को अधिक वोट मिले और वे मुख्यमंत्री पद पर काबिज बने रहे।
हाल ही में तमिलनाडु, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल,कर्नाटक तथा दिल्ली में राज्यपालों और वहां की सरकारों के बीच लगातार टकराव की काफी खबरें आ रही हैं। जहां राज्यपाल, राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों को अनुमति नहीं दे रहे हैं. इस कारण राज्य सरकारों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ रही है।
पंजाब के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 23 नवंबर 2023 को अपने फैसले में कहा कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर सहमति रोक रहे हैं तो उन्हें विधेयक को विधान सभा को वापस करना होगा और वे विधेयक को अनिश्चित काल के लिए अपने पास रोककर नहीं रख सकते. यहां तक कि पंजाब में और पश्चिम बंगाल में तो राज्य विधान सभा का सत्र आहूत करने में भी अवरोध की स्थिति उत्पन्न हुई, जिससे संवैधानिक संकट की स्थिति भी निर्मित हो रही है।
पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की कि कई विषयों को राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच सुलझाने की आवश्?यकता है और उन्होंने यह सलाह भी दी कि राज्यपाल मुख्यमंत्री के साथ बैठकर उन चीजों को हल करें जिनमें कोई परेशानी है।
पश्चिम बंगाल विधान सभा का सत्र तो बिना राज्यपाल की अनुमति के आहूत किया गया जबकि विधान सभा का सत्र संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत राज्यपाल ही विधान सभा सत्र को आहूत करने का आदेश देते हैं।
विगत दिनों पश्चिम बंगाल में एक और संवैधानिक संकट खड़ा हुआ। उपचुनाव में निर्वाचित दो विधायकों को शपथ दिलाई जानी थी जिन्हें राज्यपाल ने राजभवन में शपथ दिलाने का निर्णय किया लेकिन उन सदस्यों ने राजभवन में शपथ लेने से इंकार कर दिया और विधान सभा में ही शपथ लेने पर अड़े रहे। संविधान के अनुच्छेद 188 में यह प्रावधान है कि राज्यपाल किसी व्यक्ति विशेष को शपथ दिलाने के लिए अधिकृत कर सकते हैं और उन्होंने विधान सभा उपाध्यक्ष को अधिकृत भी किया लेकिन विधान सभा उपाध्यक्ष ने विधान सभा अध्यक्ष के रहते शपथ दिलाने में असमर्थता व्यक्त की और विधान सभा अध्यक्ष ने 5 जुलाई, 2024 को विधान सभा में शपथ दिला दी. जिस पर राज्यपाल ने आपत्ति दर्ज करवाई और इस संबंध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भी प्रेषित की है। हालांकि इस घटनाक्रम के संबंध में विधान सभा अध्यक्ष ने राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने के लिए पत्र भी लिखा।
पश्चिम बंगाल में तो राज्यपाल एवं राज्य सरकार के बीच जंग जैसी स्थिति निर्मित हो गई है। जहां राज्यपाल ने राज्य सरकार की मुख्यमंत्री के विरूद्ध मानहानि का वाद दायर किया, वहीं राज्यपाल ने राज्य सरकार की पुलिस का राज भवन में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया.
संविधान के अनुच्छेद 154 में यह प्रावधान है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह उसका प्रयोग संविधान के अनुरूप स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा वहीं अनुच्छेद 163 के तहत उसे अपने स्वविवेक से भी कार्य करने का अधिकार प्राप्त है और इसी स्वविवेक का अधिकार और मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करने के प्रावधान, ये दोनों ही इनके बीच टकराव का महत्वपूर्ण कारण हैं।
एक अन्य मामले में जब तमिलनाडु के एक मंत्री एम.आर. पोनमुडी को सजा होने पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाने के बावजूद राज्यपाल उन्हें मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं कर रहे थे तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मार्च, 2024 को राज्यपाल के इस कृत्य पर उन्हें फटकार लगाई।
तमिलनाडु में ही जब राज्य विधान सभा द्वारा वर्ष 2020 से 2023 के मध्य पारित विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति के लिए भेजा और राज्यपाल ने दिनांक 13 नवंबर, 2023 को उसे पुनर्विचार के लिए विधान सभा को वापस किया और विधान सभा ने पुन: दिनांक 18 नवंबर, 2023 को उन विधेयकों को यथावत पारित कर राज्यपाल को अनुमति के लिए भेजा और राज्यपाल ने उन्हें अपने पास लंबित रखने का उल्लेख दिनांक 28 नवंबर, 2023 को किया और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया तो राज्य सरकार ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि राज्यपाल को विधान सभा द्वारा पुन: पारित 10 विधेयकों को रोकने का कोई विवेकाधिकार नहीं है. यहां तक कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 1 दिसंबर, 2023 को सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी भी की कि विधान सभा द्वारा पुन: पारित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित नहीं रखा जा सकता।
चूँकि राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है और राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख भी होता है तो यह प्रयास होना चाहिए की विवादित मुद्दों पर आपस में विचारविमर्श कर लिया जाये ताकि विवाद की स्थिति न बने। (पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा)