संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पर्यावरण और किफायत, एक ही बात, अलग नहीं
04-Oct-2024 4:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पर्यावरण और किफायत, एक ही बात, अलग नहीं

कल छत्तीसगढ़ में हुए एक हरित शिखर सम्मेलन में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने जलवायु परिवर्तन को दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती बताया। उन्होंने छत्तीसगढ़ की इस खूबी को भी गिनाया कि प्रदेश का 44 फीसदी हिस्सा जंगल या पेड़ों से घिरा हुआ है, और इस बरस राज्य सरकार ने प्रदेश में चार करोड़ वृक्ष लगाए हैं। उन्होंने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ में की जा रही और कोशिशों का भी जिक्र किया। उनकी इस बात पर सोचते हुए यह सूझता है कि छत्तीसगढ़ जैसे किसी भी राज्य को जलवायु परिवर्तन की रफ्तार कम करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। यह राज्य तो आदिवासियों और गरीब जनता से भरा हुआ है, इसलिए यहां पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना बड़ा सीमित रहता है। जिसके पास खर्च करने को अधिक न हो, वे धरती पर अधिक बोझ भी नहीं बनते। और छत्तीसगढ़ जैसा राज्य जंगलों के बीच बसाहट की वजह से भी, गरीबी की वजह से भी, और गैरशहरी आबादी भी काफी होने से पर्यावरण को नुकसान कम पहुंचाता है। दूसरी तरफ इस राज्य में पर्यावरण को जितने किस्म के खतरे हैं, उनमें से अधिकतर ऐसे खनिज और खनिज आधारित उद्योगों की वजह से हैं जो कि राज्य के बाहर भी पूरे देश के काम आते हैं। लोहा, कोयला, और इससे चलने वाले कारखाने, इनकी वजह से पर्यावरण को सबसे बड़ा नुकसान है, लेकिन इनकी खपत स्थानीय कम है, और देश के दूसरे हिस्सों के लिए ज्यादा है।

लेकिन जब पर्यावरण की चर्चा होती है तो एक-एक बूंद पानी को बचाना भी पर्यावरण को बचाना होता है, और इस नाते हमको लगता है कि हर राज्य को यह सोचना चाहिए कि वह बचत किन-किन चीजों की कर सकते हैं। अब जैसे भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों के जितने मंत्री, अफसर, और संवैधानिक पदों पर बैठे हुए दूसरे ऐसे लोग जिन्हें जनता के पैसों पर सहूलियत मिलती है, उन पर जनता का खूब सारा खर्च होता है। बिजली, पानी, तनख्वाह, और रखरखाव का खर्च जाता तो जनता की जेब से है, लेकिन यह पर्यावरण पर भी भारी पड़ता है। सरकारी बंगलों और दफ्तरों में अंधाधुंध बड़े-बड़े निर्माण होते हैं, और फिर उसके हर हिस्से को एयरकंडीशंड करके सुख जुटाया जाता है। बहुत बड़े-बड़े लॉन बनते हैं, और फिर उनकी घास को हरा-भरा रखने के लिए अंधाधुंध पानी डाला जाता है। बड़े नेताओं, अफसरों, और बड़े जजों की गाडिय़ों के साथ तरह-तरह की दूसरी गाडिय़ां भी चलती हैं, उनसे ट्रैफिक पर दबाव पड़ता है, और साथ-साथ हर गाड़ी का ईंधन भी खर्च होता है। और अब तो केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग फैसलों से हर प्रदेशों में ऊंचे-ऊंचे ओहदों को दर्जनों तक पहुंचा दिया है, और इनमें से हर किसी को बंगलों की, कर्मचारियों की, और अंधाधुंध बिजली की सहूलियत जनता के पैसों से मिलती है। रिटायर होने वाले अफसर, और जज अब शायद कभी बेरोजगार नहीं रहेंगे, और उनके पुनर्वास के लिए इतने सारे ओहदे बन गए हैं कि वे जनता के हक की हिफाजत के नाम पर बने हैं, लेकिन वे जनता पर परजीवियों की तरह बोझ बन जा रहे हैं।

हमारा मानना है कि किसी भी राज्य को ऐसी बंगला संस्कृति से आजादी पानी चाहिए जो कि जनता के पैसों पर चलती है। इससे बेहतर यह है कि सरकारी और संवैधानिक ओहदों पर बैठे हुए लोगों को एक ऐसा मकान-भाड़ा मिले जिससे वे अपने खुद के घर में, या किराए के घर में रह सकें, और रखरखाव के एक भत्ते से काम चला सकें। यह बात हम सिर्फ सरकारी खजाने के खर्च को घटाने के लिए नहीं कह रहे, यह बात हम पर्यावरण पर बोझ घटाने के लिए भी कह रहे हैं। जब सब कुछ मुफ्त का मिलता है तो उसका इस्तेमाल भी बड़ी बेरहमी से होता है। कांग्रेस के लोगों के सामने गांधी का जीवन सादगी की एक मिसाल है, दूसरी तरफ भाजपा अपने पितृपुरूष दीनदयाल उपाध्याय की सादगी की चर्चा करती है। देश गरीब बना हुआ है, और जनता की जरूरतें किसी भी कोने से पूरी नहीं हो रही हैं। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के नेताओं को सत्ता में आने पर भी सादगी पर बने रहना चाहिए, और जलवायु परिवर्तन में रोकथाम के लिए सादगी की मिसाल इसी स्तर से शुरू होगी, तभी वह नीचे तक असर कर सकेगी। आज जब मंत्री और बड़े अफसर बहुत बड़े-बड़े गैरजरूरी हॉल सरीखे दफ्तर के कमरे बना लेते हैं, और उन्हें खूब बिजली खर्च करके खूब ठंडा करके रखते हैं, तो फिर उनके नीचे के तमाम लोग भी इसी जीवनशैली और कार्य-संस्कृति पर अमल करते हैं। छत्तीसगढ़ के पहले वित्तमंत्री रामचन्द्र सिंहदेव राजघराने के होने के बावजूद जिस सादगी और किफायत से रहते थे, वह देखते ही बनती थी। इसी वजह से जोगी सरकार में वित्तमंत्री की हैसियत से वे सब पर सादगी लाद भी सकते थे। सरकारों को किफायत पर अमल इसलिए भी करना चाहिए कि उनकी अपनी कोई जेब नहीं होती है, और वे जनता के पैसों पर ही सुख-सुविधा जुटाती हैं।

पर्यावरण को बचाना, और किफायत बरतना, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और सत्ता की ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों को अपने जीवन को मिसाल की तरह औरों के सामने पेश करना चाहिए। अपने पर एक पैसा भी खर्च करने के पहले उन्हें यह सोचना चाहिए कि क्या इतनी सहूलियत राज्य की बाकी जनता को भी हासिल है जो कि रियायती या बिना भुगतान के अनाज पर किसी तरह जिंदा है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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