संपादकीय
देश में शायद अब तक की सबसे बड़ी नक्सल-मुठभेड़ में कल बस्तर में सुरक्षाबलों ने 30 से ज्यादा नक्सलियों को मार गिराया। यह मुठभेड़ वहां के नारायणपुर और दंतेवाड़ा जिलों की सीमा पर हुई, और इसी दौरान मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय बीजापुर और दंतेवाड़ा जिलों के दौरे पर ही थे। यह शायद पहला मौका रहा होगा कि इतने करीब मुख्यमंत्री का दौरा चल रहा था, और इतनी बड़ी मुठभेड़ हो रही थी। कल रात तक लाशें बरामद हो रही थीं, और यह छत्तीसगढ़ की अब तक की सबसे बड़ी मुठभेड़ है, और कुछ महीने पहले ही, 16 अप्रैल को बस्तर के ही कांकेर में एक दूसरी मुठभेड़ में 29 नक्सली मारे गए थे। प्रदेश में विष्णुदेव साय सरकार के इन 9-10 महीनों में दो सौ से अधिक नक्सली मारे जा चुके हैं, जो कि अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से लेकर अब तक का अभूतपूर्व और असाधारण रिकॉर्ड है। लेकिन इसके साथ-साथ जो दूसरी बड़ी बात इससे भी महत्वपूर्ण है, वह है सुरक्षाबलों को कम से कम नुकसान पहुंचना। पहले नक्सली हमलों में एक साथ दर्जनों सुरक्षा जवान शहीद होते थे। मुठभेड़ में भी राज्य और केन्द्र के सुरक्षाबलों की शहादत होती थी। लेकिन साय सरकार के आने के बाद से बस्तर की ऐसी कोई मुठभेड़ नहीं हुई है जिसमें सुरक्षाबलों को अधिक नुकसान हुआ हो। इसके साथ-साथ एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि बेकसूर लोगों को नक्सली बताकर मार डालने की जो तोहमत सुरक्षाबलों पर हमेशा लगती है, वह भी अब नहीं के बराबर हो गई है, और यह दर्ज करने लायक बात है कि ऐसी मुठभेड़ में आसपास के ग्रामीणों की मौतें भी बहुत ही कम हुई हैं। हम इस नौबत को केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की इस घोषणा से जोडक़र नहीं देखते कि मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। उनके कहने के पहले से राज्य में भाजपा सरकार के तहत पुलिस और सुरक्षाबल लगातार लगे हुए थे, और सरकार बनते ही जल्द ही नक्सल मोर्चों पर कामयाबी मिलने लगी थी।
बस्तर में पुलिस वही है, केन्द्रीय सुरक्षाबल भी वे ही हैं, उनकी गिनती में भी बहुत बड़ा इजाफा नहीं हुआ है, लेकिन ऐसा लगता है कि बस्तर के भीतर के इलाकों में जिस तरह सुरक्षाबलों के कैम्प आगे बढ़ते जा रहे हैं, और जिस तरह सरकार की नक्सल-समर्पण नीति के तहत बड़ी संख्या में नक्सली या नक्सल-समर्थक आत्मसमर्पण कर रहे हैं, उससे नक्सलियों की पकड़ उनके परंपरागत इलाकों पर से कमजोर हो रही है। जो इलाके पूरी तरह नक्सल कब्जे में थे, वहां भी सुरक्षाबल पहुंच रहे हैं, और उनके पीछे-पीछे सरकार की कुछ योजनाएं भी जा रही हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय दशकों तक शोषण, भ्रष्टाचार, और जुल्म का शिकार रहा बस्तर सरकार पर से इतने लंबे समय तक भरोसा खोया हुआ था कि वहां नक्सलियों को जगह मिली थी, और सरकारी तंत्र की विश्वसनीयता खत्म सरीखी थी। आज की वहां की सुरक्षाबलों की कामयाबी लंबे वक्त की मेहनत, और सरकारी बंदूकों की असाधारण बड़ी मौजूदगी दोनों की वजह से है। साथ-साथ यह भी हुआ है कि सरकार ने अपनी योजनाओं को नक्सलियों के हटने के बाद पैदा एक शून्य ने तेजी से आगे बढ़ाया है। ऐसा लगता है कि ग्रामीण आदिवासियों को कहीं मुखबिर बताकर, तो उन पर कोई और तोहमत लगाकर नक्सली उन्हें जनसुनवाई के नाम पर इंसाफ का आडंबर दिखाते हुए मार डालते आए हैं, उससे भी धीरे-धीरे जनता में नक्सलियों के लिए हमदर्दी खत्म हुई है। इस इलाके में नक्सल मौजूदगी और उनकी हिंसा से ऐसी खतरनाक नौबत बनी हुई थी कि वह न तो सिर्फ जनकल्याणकारी योजनाओं से सुलझनी थी, और न ही सिर्फ सरकारी बंदूकों से। इन दोनों का मिलाजुला इस्तेमाल, और नक्सलियों के आत्मसमर्पण को बढ़ावा देने से ऐसी मुठभेड़ की सुरक्षाबलों की योजना कामयाब हो पाई है।
राज्य में पिछली सरकार कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की थी, और अपने मंत्रिमंडल में बेताज बादशाह की तरह वे पूरा पुलिस महकमा भी अघोषित रूप से संभालते ही थे। आज बस्तर में कोई भी बड़े अफसर बदले नहीं हैं, और वे कांग्रेस सरकार के समय से अब तक बने हुए हैं। ऐसे में पांच बरस में कांग्रेस को जो कामयाबी नहीं मिली थी, वह अगर इन 9-10 महीनों में मिली है, तो उसके पीछे राज्य सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति एक बड़ी वजह लगती है। फिर यह बात भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस भाजपा सरकार के कार्यकाल में नक्सल मौतें दो सौ के करीब पहुंचने को हैं, लेकिन मानवाधिकार हनन की शिकायतें भी पांच-दस से अधिक मौतों को लेकर नहीं हैं। एक तरफ सुरक्षाबलों की अपनी हिफाजत, और दूसरी तरफ बेकसूरों को मार डालने की शिकायतें इतनी कम, यह छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से कभी नहीं हो पाया था। भाजपा के पिछले मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के कार्यकाल में तो मानवाधिकार हनन की घटनाओं का सैलाब सा था। और उसकी कम से कम एक बहुत बड़ी वारदात में सुरक्षाबलों द्वारा की गई कोई डेढ़ दर्जन हत्याओं की रिपोर्ट आने पर भी पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कोई कार्रवाई नहीं की थी।
आज की भाजपा सरकार कम अनुभवी है। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय, और उनके दोनों उपमुख्यमंत्री जिनमें गृहमंत्री विजय शर्मा शामिल हैं, ये सभी पहली बार राज्य सरकार में हैं। विजय शर्मा ने सरकार में विचार-विमर्श के पहले ही खुद होकर नक्सलियों से शांतिवार्ता की पेशकश की थी, और उस बात को दर्जन भर बार दुहराया भी था, लेकिन बातचीत का वह सिलसिला कहीं से शुरू ही नहीं हो पाया। इसी दौरान मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कुछ हफ्ते पहले राज्य के एसपी-आईजी की एक बड़ी बैठक ली थी, और उसमें भी नक्सल-मोर्चे को लेकर अमित शाह की तय की गई समय सीमा पर चर्चा हुई थी। गृहमंत्री कोई भी रहें, जिलों के कलेक्टर-एसपी मुख्यमंत्री के प्रति सीधे जवाबदेह भी रहते हैं, और ऐसा लगता है कि बस्तर में अधिकारियों को जुल्म ढहाए बिना कार्रवाई करने की जो छूट दी गई है, उससे यह कामयाबी हासिल हुई है। मुख्यमंत्री ने बार-बार यह भी कहा है कि उन्हें नक्सलियों का भी खून बहना ठीक नहीं लगता है, और उन्हें हिंसा छोडक़र लोकतंत्र की मूलधारा में आना चाहिए। लेकिन अभी तक कोई विश्वसनीय मध्यस्थ न होने से शांतिवार्ता की पहल भी शुरू नहीं हो पाई है।
लोकतंत्र में किसी भी तरह की विचारधारा को हथियारबंद आंदोलन की छूट नहीं मिल सकती है। हमने भारत के पड़ोस में नेपाल में माओवादियों को हथियार छोडक़र संसदीय चुनाव में शामिल होते देखा है। अभी-अभी श्रीलंका में एक माक्र्सवादी-माओवादी नेता राष्ट्रपति चुने गए हैं। दुनिया के कुछ और देशों में भी वामपंथी नेता या उनकी पार्टियां जीतकर सत्ता पर पहुंचे हैं। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि भारत में भी नक्सली इस अंतहीन सशस्त्र संघर्ष को खत्म करें, कोई भरोसेमंद मध्यस्थ ढूंढकर सरकार से जनकल्याण के मुद्दों पर बात करें, और सीधे-सरल आदिवासियों पर बंदूकों की लड़ाई का संघर्ष न थोपें। छत्तीसगढ़ की साय सरकार ने नक्सलियों को खत्म करने के मोर्चे पर बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है। लेकिन जब नक्सली इस हद तक घिर गए हैं, और कमजोर हैं, तो यह एक बड़ा माकूल वक्त है कि उन्हें बातचीत के लिए तैयार किया जा सके। जब कोई हथियारबंद आंदोलन कमजोर होते चलता है, तो वह किसी समझौते या शांतिवार्ता के लिए तैयार भी होता है। फिलहाल जान की बाजी लगाकर, तमाम किस्म के खतरे उठाकर बस्तर के मोर्चे पर राज्य की पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षाबलों के जो लोग तैनात हैं, कल की कामयाबी उनके नाम है क्योंकि उन्होंने लोकतंत्र को बचाने के लिए रात-दिन काम करके नक्सलियों को खत्म किया है। नक्सलियों का भी खून बहे बिना अगर उन्हें लोकतंत्र की मूलधारा में लाया जा सकता है, तो यह राज्य सरकार की एक अधिक बड़ी कामयाबी होगी, और सुरक्षाबलों पर हर दिन होने वाला करोड़ों का खर्च भी बचेगा।