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रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के जटिल रिश्ते
02-Jul-2020 5:56 PM
रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के जटिल रिश्ते

अज्ञेय के ‘दिनमान‘ से जाने के समय उसमें तीन समकालीन-समवयस्क कवि काम कर रहे थे। रघुवीर सहाय संपादक, श्रीकांत वर्मा विशेष संवाददाता और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उपमुख्य संपादक। इससे पहले और बाद में भी किसी और पत्र-पत्रिका में ऐसा दुर्लभ संयोग रहा हो। उस समय तीनों की कवि के रूप में अपनी महत्वपूर्ण जगह और ख्याति थी। तीनों एकदूसरे को बरसों से जानते थे और तीनों के अपने-अपने अहम थे। शायद रघुवीर सहाय में सबसे कम।
कभी इलाहाबाद की वाम विरोधी लेखकों की संमूह ‘परिमल‘ में सक्रिय सर्वेश्वरजी अस्सी के दशक तक अतिवामपंथी तेवर में आ चुके थे। युवा वामपंथी कवियों में वह खासे लोकप्रिय थे। उनकी कविताओँ के अलावा उनके ‘बकरी’ नाटक ने भी तब अभूतपूर्व प्रसिद्धि पाई थी, हालांकि साहित्यकारों-आलोचकों के एक वर्ग उन्हें अधिक तवज्जो नहीं देता था,जो बाकी दोनों कवियों को देता था।
रघुवीर सहाय ‘सीढ़ियों पर धूप में ‘ और उसके बाद अपने पहले स्वतंत्र कविता संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध‘ के कारण चर्चा में थे।डा.नामवर सिंह की सबसे चर्चित पुस्तक ‘कविता के नये प्रतिमान‘ के केंद्र में जो कवि थे,उनमें रघुवीर सहाय का स्थान काफी ऊपर था। श्रीकांत वर्मा ने इस बीच अपने कविता संग्रह ‘माया दर्पण‘ के कारण अपनी एक जगह बनाई थी। वह कांग्रेस के नजदीक भी आ रहे थे। बाद में वह राज्यसभा सदस्य बने।
तीनों ‘दिनमान’ में रहकर भी एकदूसरे से एक हद तक असहज थे,हालांकि सर्वेश्वर जी और सहाय जी कामकाजी संबंध बेहतर थे। श्रीकांत वर्मा और रघुवीर सहाय में असहजता का भाव दफ्तर के भीतर-बाहर प्रकट था।वह किसी से छुपा नहीं था।
रघुवीर जी के संपादक बनने के बाद श्रीकांत जी कुछ देर के लिए कार्यालय आते। अज्ञेय जी के संपादक रहते उपसंपादक रहने तक उन्होंने ‘दिनमान‘ में कला की कवरेज का दायित्व बखूबी निभाया। उनके विशेष संवाददाता बनने पर यह जिम्मेदारी प्रयाग शुक्ल पर आ गई। अब श्रीकांत जी कुछ देर के लिए दफ्तर आते,प्रायः अपने कनिष्ठ कवि- सहयोगियों प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज से साहित्य-कला पर कुछ चर्चा करते और चले जाते। वैसे भी ‘दिनमान‘ में संपादकीयकर्मियों के लिए समय का कोई कड़ा बंधन नहीं था। वैसे भी विशेष संवाददाता की खूबी रोज समय पर आकर देर तक दफ्तर में रहना नहीं, ‘फील्ड‘ में रहना मानी जाती है। श्रीकांतजी सप्ताह में एक खास दिन राजनीतिक रिपोर्ट लिखवाते।विषय के निर्धारण की प्रक्रिया उनकी यह थी कि वह इसके लिए संपादक के पास एक पर्ची भेजकर दो- तीन विषय सुझाते। उनमें से जिस पर संपादक निशान लगा देते, उस पर पत्रकारिता की भाषा में जिसे स्टोरी कहा जाता है,उसकी डिक्टेशन दे देते। उस दिन वह अपने साथ संबंधित अखबारों की कुछ कतरनें भी लाते,ताकि कुछ बुनियादी तथ्यों में चूक न रहे। अपने अन्य सहयोगियों की तरह ही संपादक उनकी स्टोरी को भी यथावत छापते। श्रीकांत जी को शायद ही कभी शिकायत रही हो कि उनके लिखे के साथ संपादक ने ‘छेड़छाड़‘ की।
यह कहना कठिन है दोनों के संबंधों में खटास कैसे, कब और क्यों आई। प्रयाग शुक्ल को याद है कि शुरू के दिनों में इनमें से कोई एक विदेश यात्रा पर जा रहा था तो इस उपलक्ष्य में इसके जश्न में इन्होंने उन्हें भी शामिल किया। समाजवादी नेता रामनोहर लोहिया से दिल्ली में पहली बार रघुवीर जी को मिलवाने का श्रेय श्रीकांत जी लेते थे, हालांकि रघुवीर जी के एक लेख बताता है कि लोहिया जी से उनकी पहली मुलाकात 1967 में हुई थी। वैसे आरंभ में श्रीकांत वर्मा भी डॉ. लोहिया से प्रभावित थे।
श्रीकांत वर्मा ने शायद पहली बार रघुवीर सहाय की कविता का उल्लेख हरिशंकर परसाई द्वारा संपादित ‘वसुधा‘ पत्रिका के अक्टूबर, 1957 में किया था,ऐसा उनकी रचनावली से पता चलता है। रघुवीरजी की ताजा प्रकाशित कविता ‘एकांतवासी ‘ का उन्होंने अपने स्तंभ ‘ कलम की दिशा ‘ में नोटिस लेते हुए लिखा थाः ‘ निश्चय ही कवि(रघुवीर सहाय) ने इस अकेलेपन का अनुभव तीव्रता से किया होगा किंतु यह उस प्रखरता से व्यक्त नहीं हुआ है। यही कारण है कि कविता बहुत कुछ एकांत का घोषणापत्र बन गई है।‘ लेकिन यह एक कवि का अपने एक समकालीन की एक कविता के बारे में तटस्थ विश्लेषण है जिसमें कहीं कोई व्यक्तिगत कलुष नजर नहीं आता। इसके करीब चार महीने बाद डॉ. नामवर सिंह को लिखे एक पत्र (12 फरवरी,1958) में वह रघुवीर सहाय के ‘कल्पना‘ छोड़कर दिल्ली फिर से आ जाने की सूचना देते हैं मगर यह संयोग नहीं हो सकता कि न तो ‘श्रीकांत वर्मा रचनावली‘ में (इसके अलावा) और न ‘रघुवीर सहाय रचनावली‘ में एक दूसरे के प्रति कुछ सकारात्मक मिलता हो,नकारात्मक जरूर है। लिखित रूप में 1972 से ये कटुताएँ साफ नजर आती हैं। ‘श्रीकांत वर्मा रचनावली‘ में ऐसे डायरी अंश और पत्र हैं, जिनमें रघुवीर सहाय के प्रति व्यंग्यात्मकता और कटुता है। ‘रघुवीर सहाय रचनावली‘ में प्रकाशित 1989 के आसपास लिये गये एक साक्षात्कार में रघुवीरजी ‘दिनमान‘ के प्रसंग में श्रीकांत वर्मा के प्रति कटु नजर आते हैं।यह उस कटुता का प्रमाण है या नहीं, यह कहना मुश्किल है मगर रघुवीर सहाय ने अपने समय के कई साहित्यकारों के निधन के बाद उन्हें याद करते हुए उन पर लिखा है,जिनमें उनके सहयोगी कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तो हैं लेकिन श्रीकांत वर्मा की मृत्यु 1986 में होने पर भी वह मौन रहे,कहीं कुछ लिखा नहीं।संभव है किसी ने कहा न हो।
अरविंद त्रिपाठी द्वारा लिये गए एक साक्षात्कार में श्रीकांत वर्मा से अपने दौर के महत्वपूर्ण समकालीन कवियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाम लिया मगर रघुवीर सहाय का नहीं। 6 फरवरी 1972 को जर्मनी के हिंदी विद्वान लोठार लुत्से के दिल्ली के आयोजित एक भाषण का उल्लेख अपनी डायरी में करते हुए श्रीकांत वर्मा लिखते हैं- ‘रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर वहाँ अधिक आग्रह के साथ मौजूद थे। इनकी भावभंगिमा और व्यवहार से लग रहा था कि ये अपने लिए विशेष बर्ताव की माँग कर रहे हैं-ठीक अज्ञेय की तरह। अंतर केवल इतना है कि अज्ञेय अपने लिए विशेष बर्ताव की ‘व्यवस्था‘ कर लेते हैं,ये दोनों नहीं कर पाते। लगता है इन दोनों की सबसे बड़ी आकांक्षा अज्ञेय का प्रामाणिक संस्करण होने की थी।‘ इसके करीब छह माह बाद 18 अगस्त,1972 को अशोक वाजपेयी को लिखे एक पत्र में श्रीकांत वर्मा कहते हैं कि ‘पहचान सीरिज‘ (एक) की समीक्षा ‘धर्मयुग‘ में हो रही है और वह ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान‘ और ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में भी करवायेंगे मगर जहाँ तक ‘दिनमान‘ का प्रश्न है, वहाँ व्यक्तिगत मित्रता और शत्रुता ईमानदारी से निबाही जाती है(पहचान-1 इसमें श्रीकांत वर्मा द्वारा किया गया मायकोवस्की की कविता का अनुवाद भी प्रकाशित है) इसको लेकर पहले ही उनसे गरमागरमी हो चुकी है और कुछ अन्य साहित्यिक और राजनीतिक सवालों को लेकर मेरे और उनके बीच तनाव है। वह मुझे हरा तो नहीं सकते हैं मगर दिमागी परेशानियों में डालने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। खैर ‘ दिनमान‘ अपनी प्रतिष्ठा खो चुका है-साहित्यिक और राजनीतिक दोनों जगह-इसलिए पहचान की समीक्षा वहाँ निकले या न निकले, क्या फर्क पड़ता है?‘ इसके करीब तीन साल बाद 15 अप्रैल, 1975 को अशोक वाजपेयी को लिखे एक और पत्र में वह मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा प्रकाशित ‘पूर्वग्रह‘ पत्रिका के बारे में व्यंग्यकार शरद जोशी द्वारा ‘ धर्मयुग‘ में छेड़े गए विवाद कॆ प्रसंग में रघुवीरजी के संदर्भ में लिखते हैं- ‘चाहे ‘धर्मयुग‘ या ‘दिनमान‘ या कोई बड़ा पत्र, सभी कला परिषद की लोकप्रियता और ‘पूर्वग्रह‘ की कामयाबी से अपनी सत्ता को चुनौती का अनुभव करते हैं, इसलिए इनसे बहुत उम्मीद करना व्यर्थ है।‘ इसके नौ दिन बाद श्रीकांतजी फिर से अशोक वाजपेयी को पत्र में लिखते हैः ‘ दिनमान‘ ने अब ‘धर्मयुग‘ जैसा रवैया अपना लिय़ा है। आरंभ में जब तुम्हारे विरुद्ध पत्र आए, तब रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर उन्हें छापने को बहुत उत्सुक थे। बाद में समर्थन में कई पत्र आए, वे अब नहीं छाप रहे। ‘ वह यहाँ ही नहीं रुकतेः ‘ रघुवीर सहाय दस लोगों से दस तरह की बातें कह रहे हैं। मैंने जब उन्हें वक्तव्य दिया तो उन्होंने उस पर हस्ताक्षर कर दिये। अब वह कहते फिर रहे हैं कि मैं वक्तव्य से सहमत नहीं।‘ अशोक वाजपेयी स्पष्ट करते हैं कि श्रीकांतजी को रघुवीरजी से बहुत शिकायतें थीं मगर ‘दिनमान‘ में ‘पहचान‘ की कवरेज होने न होने से उनके प्रति सम्मान में कमी नहीं आई। उन पर पूर्वग्रह का एक विशेषांक निकला, वह विश्व कविता समारोह में भारत से बुलाये गए कुल छह कवियों में से एक और हिंदी से अकेले थे। और भी कई आयोजनों में वह आते रहे। वैसे जब ये दोनों कवि ‘दिनमान‘ में नहीं रहे तो संभवतः 1983 में भोपाल के एक आयोजन में दोनों ब्लड प्रेशर की कौनसी दवाई कितनी अच्छी है,इस पर बात कर रहे थे।जब बहुत देर तक यही बातें चलती रहीं तो अशोक वाजपेयी ने उन्हें टोका कि आप बहुत देर से यह क्या बात कर रहे हैं, आपकी बात सुनकर तो कोई अच्छा -भला आदमी भी बीमार हो जाए।
केंद्र में जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद श्रीकांत वर्मा को सांसद होने के बावजूद राजनीतिक दबाव में ‘दिनमान‘ से 31मई, 1977 को त्यागपत्र देना पड़ा था। उसके पीछे मैनेजमेंट पर राजनीतिक दबाव की बात को स्वीकार की मगर श्रीकांत जी इस प्रकरण में संस्थान के दोनों संपादकों- रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती के साथ ही टाइम्स समूह के ‘ कुछ हिंदी लेखकों ’ की भूमिका पर भी संदेह जाहिर करते हैं। वह दावे से कहते हैं- ‘ इमर्जेंसी के दौरान मैंने इन लोगों की मदद की थी, सरकारी व्यवस्था के खूनी पंजों से इन्हें बचाया था।‘ उन्हें हटाये जाने पर उनका संदेह वात्स्यायनजी तक जाता है, जिनकी उसी दौरान ‘ नवभारत टाइम्स ‘ का प्रमुख संपादक बनाने की चर्चा सार्वजनिक हो चुकी थी।
खैर श्रीकांत वर्मा की इन बातों की प्रामाणिकता पर चर्चा न करें, जो हमारा विषय नहीं है,फिर भी उनकी इस बात से तो शायद ही कोई सहमत हो कि 1975 में ‘दिनमान‘ ने अपनी ‘साहित्यिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा‘ खो दी थी। उधर रघुवीर सहाय भी एक साक्षात्कार में अपनी कटुता नहीं छिपाते और चूँकि वह खुद ‘ दिनमान ‘में बाद में आए थे, इसलिए तथ्यों के बारे में कुछ गड़बड़ कर जाते हैं। जैसे उनका यह कथन दुरुस्त नहीं है कि 1964 की शुरुआत से थोड़ा पहले श्रीकांत वर्मा के ‘ दिनमान ‘में शामिल होते समय वात्स्यायनजी उन्हें ‘ उपसंपादक या ऐसा ही कुछ रखना चाहते थे मगर श्रीकांत वर्मा का आग्रह बड़े पद के लिए था,इसलिए शुरु में ही रमाजी(बैनेट कोलमैन कंपनी के स्वामी साहू शांतिप्रसाद जैन की पत्नी, जो आधुनिक साहित्य में दिलचस्पी रखने के कारण समकालीन साहित्यकारों को नजदीकी से जानती थीं।) के कहने पर वात्स्यायनजी उन्हें विशेष संवाददाता के पद पर रखने को राजी हो गए।‘ तथ्य यह है कि श्रीकांत जी ने उपसंपादक के रूप में ‘दिनमान‘ में काम आरंभ किया था, उनकी पदोन्नति बाद में हुई। रघुवीर जी यह भी मानते हैं कि विशेष संवाददाता बनने के पीछे श्रीकांत वर्मा के ‘ बुनियादी मतलब‘ थे। ‘वह शुरू से ही एक कांग्रेस एम पी(मिनी माता) के साथ लगे हुए थे और उसकी बदौलत वह पार्लियामेंट के दफ्तरों में आया- जाया करते थे।.. पर वे प्रेस प्रतिनिधि नहीं थे।‘एक सवाल के जवाब में वह यह भी कहते हैं कि ‘ श्रीकांत वर्मा जर्नलिज्म के नाम पर पोलिटिक्स करना चाहते थे।‘

रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के मन में एकदूसरे के प्रति कटुता का एक प्रसंग विनोद भारद्वाज भी बताते हैः रघुवीरजी के बहुत बीमार होने पर श्रीकांत वर्मा उनका हालचाल जानने के लिए उन्हें भी साथ ले गए। रघुवीर जी के घऱ जाने से पहले रास्ते में श्रीकांतजी ने अशोका होटल में व्हिस्की के दो पैग लिए, फिर आरके पुरम नर्वस हालत में पहुँचे। चूँकि विनोद भारद्वाज वहीं पास में रहते थे, इसलिए श्रीकांत वर्मा के जाने के बाद भी वह रघुवीरजी के पास रुके रहे। तब रघुवीरजी बोलेः ‘ जिसकी वजह से मैं बीमार पड़ा हूँ, वही हालचाल पूछने आ गया।‘ कुँवर नारायण से वैसे मजाक में ही रघुवीरजी ने कहा था कि दोनों(श्रीकांत जी और सर्वेश्वर जी) उनका ब्लड प्रेशर बढ़ाते रहते हैं।)। अगर विश्वास करना चाहें कि श्रीकांत वर्मा के मन में आपातकाल के दौरान रघुवीरजी के प्रति कितनी कटुता और विद्वेष था, इसका कुछ जिक्र ‘दिनमान ‘ में वर्षों तक दिनमान के गैरसंपादकीय सहयोगी रहे तथा ‘ आडवाणी के साथ 32 साल ‘ के लेखक विश्वंभर श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक में श्रीकांत वर्मा को 18 जून, 1977 को लिखे एक पत्र का उल्लेख किया है।लेखक का दावा है कि आपातकाल के दौरान उन्हें जेल जाने से बचाने का दावा राज्यसभा में एक प्रसंग में श्री वर्मा ने किया,तो इसका खंडन करते हुए श्री श्रीवास्तव ने उन्हें यह पत्र लिखा था। उन्होंने कहा था कि आपने कम से कम तीन बार मुझसे उस दौरान कहा था कि मैं प्रधानमंत्री(इंदिरा गाँधी) को) को पत्र लिखूँ कि मैंने तो ‘दिनमान ‘ के संपादक रघुवीर सहाय की ‘प्रेरणा’ से जनसंघ अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के निजी सहायक का दायित्व स्वीकार किया था लेकिन मैंने आपकी राय स्वीकार नहीं की और न ही आपने मुझे जेल जाने से बचाया।‘

मंगलेश डबराल कहते हैं कि स्थिति यह थी कि ‘ दिनमान‘ के उन दिनों में लोग इन तीनों कवियों के बारे में एक मजाक चलता था कि ये तीनों बड़े कवि एकदूसरे की बीमारी का कारण हैं। मजाक छोड़ें मगर यह संयोग है कि ये तीनों इस दुनिया से समय काफी पहले चले गए। 1986 में श्रीकांत वर्मा मात्र 53 वर्ष की उम्र में, 1983 में सर्वेश्वर जी केवल 56 वें वर्ष में और 1990 में रघुवीर सहाय 61 वर्ष की उम्र में।

रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा दोनों के करीब रहे प्रयाग शुक्ल, श्रीकांत जी की इस बात से सहमत नहीं कि आपातकाल में उन्होंने रघुवीर सहाय समेत तमाम लोगों को ‘ सरकारी व्यवस्था के खूनी पंजों ‘ से बचाया था। प्रयागजी ने बताया कि खुद उनका एक बार श्रीकांत जी से इस पर विवाद हुआ था। फिर वह ऐसा दावा क्यों करते थे? क्या यह उनका कोई अपराध बोध था या अपने को जनता सरकार के संभावित कोप से बचाने की रणनीति या कोई ग्रंथि? प्रयागजी समेत ‘दिनमान‘ के अन्य सहयोगी भी नहीं मानते कि जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद श्रीकांतजी को ‘ दिनमान ‘ से हटाने में रघुवीर सहाय की कोई भूमिका हो सकती है। रघुवीर जी के सहयोगियों का अनुभव रहा है कि उन्होंने कभी अपने कितने भी बड़े विरोधी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया। यह अलग बात है कि श्रीकांत जी के मन में स्वभावगत आशंकाएँ रहा करती हों।
(रघुवीर सहाय की जीवनी- ' असहमति में उठा एक हाथ ' का एक अंश),राजकमल प्रकाशन। 
(फेसबुक पर विष्णु नागर ने पोस्ट किया है)

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