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उत्कृष्ट साहित्य : त्रिलोकनाथ पांडेय का लिखा- 'फर्जी खबरों का मायाजाल'
22-Jul-2020 10:57 PM
उत्कृष्ट साहित्य : त्रिलोकनाथ पांडेय का लिखा- 'फर्जी खबरों का मायाजाल'

त्रिलोकनाथ पांडेय

22 मार्च को भारत में हुए जनता कर्फ्यू और 24 मार्च से लगातार चल रहे लॉकडाऊन के बीच साहित्य के पाठकों की एक सेवा के लिए देश के एक सबसे प्रतिष्ठित साहित्य-प्रकाशक राजकमल, ने लोगों के लिए एक मुफ्त वॉट्सऐप बुक निकालना शुरू किया जिसमें रोज सौ-पचास पेज की उत्कृष्ट और चुनिंदा साहित्य-सामग्री रहती थी। उन्होंने इसका नाम ‘पाठ-पुन: पाठ, लॉकडाऊन का पाठाहार’ दिया था। अब इसे साप्ताहिक कर दिया गया है। इन्हें साहित्य के इच्छुक पाठक राजकमल प्रकाशन समूह के वॉट्सऐप नंबर 98108 02875 पर एक संदेश भेजकर पा सकते हैं। राजकमल प्रकाशन की विशेष अनुमति से हम यहां इन वॉट्सऐप बुक में से कोई एक सामग्री लेकर ‘छत्तीसगढ़’ के पाठकों के लिए सप्ताह में दो दिन प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले दिनों से हमने यह सिलसिला शुरू किया है। 
यह सामग्री सिर्फ ‘छत्तीसगढ़’ के लिए वेबक्लूजिव है, इसे कृपया यहां से आगे न बढ़ाएं। 
-संपादक

'फर्जी खबरों का मायाजाल' 

-त्रिलोकनाथ पांडेय

(त्रिलोक नाथ पांडेय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे। सराहनीय सेवाओं के लिए भारतीय पुलिस पदक एवं विशिष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुलिस पदक से सम्मानित किया जा चुका है। ‘प्रेमलहरी’ उनकी पहली औपन्यासिक कृति है, दूसरा उपन्यास ‘चाणक्य के जासूस’ राजकमल प्रकाशन से इसी माह प्रकाशित होगा।)


असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मामृतं गमय
शान्ति शान्ति शान्ति:
(मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।)

यह पवमान मंत्र या पवमान अभयारोह मंत्र है, जिसे प्राचीन भारत में सोमयज्ञ की शुरुआती स्तुति केरूप मेंयजमान द्वारा गाया जाता था। फर्जी ख़बरों के मायाजाल में फँसे हुए व्यक्ति की मनोव्यथा को यह मंत्र भलीभाँति व्यक्त करता है। फर्जी खबरों के मायाजाल से उत्पन्न अंधकार से निकलने के लिए वह छटपटा रहा है, क्योंकि उसने देखा है कि किस प्रकार इस अंधकार की आड़ में मौत आ पहुँची और कईयों को लील गई।
गंगा-तट पर बसे प्राचीन भारत के एक बड़े गाँव का दृश्य है यह। गाँव के एक व्यक्ति ने अपने एक पड़ोसी पर आरोप लगाते हुए शोर मचाया कि उसकी दो गायों की मृत्यु पड़ोसी द्वारा विष दे देने के कारण हुई। उसने गाँव में कई जगह इस आरोप की चर्चा भी की। यह जानते हुए भी कि गायों की मृत्यु एक अनजान बीमारी से हुई और गोस्वामी पुरानी शत्रुता के कारण पड़ोसी पर दोष मढ़ रहा है, गोस्वामी के मित्रों ने आरोप को खूब हवा दी। इससे गाँव में तरह-तरह की अफवाह फैलने लगी। परिणामस्वरूप, पहले से ही गुटबंदी और वैमनस्य से ग्रस्त उस गाँव में विकट विषाक्तता व्याप्त हो गई। इसमें भयंकर हिंसा हुई और कई लोग मारेगये। बाद में, व्यथित ग्राम-प्रमुख नेदेवताओं केकोप को दूर करनेके लिए एक सोमयज्ञ का आयोजन किया, जिसमें बड़े भावुक मन से उसने यह मंत्र-गान किया कि हमें झूठ से सच्चाई की ओर ले चलो; झूठ से उपजे अँधेरे से सच्चाई के उजाले की ले चलो और इन परिस्थितियों से उपजे मौत से बचाकर हमें अमरत्व की ओर ले चलो।
दूसरा दृश्य देखिये। महाभारत का युद्ध चल रहा है। पन्द्रहवें दिन गुरु द्रोणाचार्य कौरवों की सेना के सेनापति बनाए गए हैं। द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों दोनों केगुरु थे। दोनों को उन्होंने अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी थी। यद्यपि वह कौरवों की ओर से लड़ रहे हैं, लेकिन उनका सहज स्नेह पांडवों की ओर है। यह बात दुर्योधन को खल गई। उसने गुरु पर आरोप लगाया कि मन से वह पांडवों की ओर हैं। आरोप से क्षुब्ध गुरु द्रोण ने पांडव सेना का संहार शुरू किया।

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पांडवों के रणनीतिकार श्रीकृष्ण जानते थे कि द्रोण को सीधी लड़ाई मेंहरा पाना असंभव है। अत: उन्होंने उन्हें छलपूर्वक समाप्त करने की योजना बनाई। सबको मालूम था कि द्रोण अपने बेटे अश्वत्थामा को बहुत चाहते हैं। श्रीकृष्ण ने इसका लाभ उठाते हुए अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी खबर रच दी। उस झूठी खबर को पांडव सैनिकों ने चारों ओर फैला दिया।
द्रोण ने यह खबर सुनी तो उन्हें विश्वास न हुआ। ब्रह्मास्त्र को प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखा रखी थी। अश्वत्थामा अजेय और अमर था। अमर अश्वत्थामा आखिर कैसे मर सकता है! खबर की पुष्टि के लिए द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा, जो अपनी सत्यवादिता के लिए विख्यात थे। युधिष्ठिर बोले, ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा’ (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन पता नहीं कि वह नर था या हाथी।) ‘हाथी’ शब्द युधिष्ठिर ने बड़े धीमे से बोला और उसेकवर करनेके लिए श्रीकृष्ण नेजोर से अपना शंख बजा दिया। परिणामस्वरूप, द्रोण शोक में अस्त्र-शस्त्र त्याग कर चुपचाप बैठ जाते हैं और उसी समय उनका वध कर दिया जाता है।
अफवाह की प्रक्रिया को समझने के लिए यह कथा बहुत उपयुक्त है। अपनी षडय़ंत्रपूर्ण योजना के अंतर्गत श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा नामक एक हाथी को मरवा कर और जान-बझूकर कुटिलतापूर्वक इस दुष्प्रचार (डिसइनफार्मेशन) को प्रारंभ किया। यहाँ नीयत सबसे महत्वपूर्ण कारक है। जब शरारत की नीयत से कोई खबर गढ़ी जाय तो यह दुष्प्रचार (डिसइनफार्मेशन) है, जबकि गलत खबर (मिसइनफार्मेशन) किसी व्यक्ति या समूह द्वारा जाने-अनजाने में फैलाया जाता है। वह व्यक्ति या समूह किसी दुष्प्रचार अभियान (डिसइनफार्मेशन कैंपेन) का मात्र वाहक हो सकता है। वह अपने उस कृत्य के परिणामों से परिचित भी हो सकता है और जान बूझकर उसे फैलाने में शामिल हो सकता हैया निर्दोष और मूर्खतापूर्ण ढंग से भी उसमें शामिल हो सकता है। इस पूरी प्रक्रिया, जिसे अफवाह-चक्र चलाना (रनिंग द रयुमर मिल) कहते हैं, का नियंत्रण प्राय: उस व्यक्ति केहाथों में होता है जो डिसइनफार्मेशन कैंपेन शुरू करता है।
नीयत को ही आधार बनाकर अफवाह को तीन हिस्सों में बाँट सकते हैं। खतरनाक इरादे से फैलाई गई अफवाह रयुमर है; तो प्राय: प्रचार के उद्देश्य से प्रोपेगंडा चलाया जाता है, जबकि हलके-फुल्के ढंग से हाँ की गई बातें गप्पें (गॉसिप) कहलाती हैं।
इसी प्रकार, फर्जी ख़बरें दो तरह की होती हैं। पहली तो वे जो बिल्कुल ही फर्जी होती हैं, बिल्कुल मनगढ़ंत होती हैं और जिनका उद्देश्य लोगों को बहकाना; उनकी मति फेर देना या किसी प्रकार की गैरकानूनी गतिविधि में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करना। दूसरी तरह की फर्जी खबरें वे होती हैं जो पूरी सही नहीं होती हैं। उनमें सच और झूठ का घालमेल होता है। वे खबरें झूठी हो सकती है या आंशिक रूप से झूठी हो सकती हैं। अगर खबर सच भी हो तो उसका प्रस्तुतीकरण इस तरह से किया जाता है कि लक्षित व्यक्ति या समूह को वह अनुचित ढंग से प्रभावित करे। उदहारण के लिए, किसी सच्ची घटना के बारे रिपोर्टिंग करते समय कोई संवाददाता जान-बूझकर किसी ऐसे कोण को उभार (हाईलाइट कर) देता है कि घटना की जिम्मेदारी किसी खास व्यक्ति या वर्ग केऊपर आ जाय।

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एक जमाने से अफवाहें संचार और संवाद के विभिन्न माध्यमों के जरिये फैलाए जाते रहे हैं। मौखिक संवाद तंत्र के अलावा पुस्तक/पुस्तिकाएँ, पत्रिकाएँ, पर्चे, लेख/आलेख, समाचार पत्र इत्यादि प्रमुख पारंपरिक माध्यम रहे हैं। यहाँ तक कि प्रायोजित पाठ्य सामग्री से लदे गुब्बारे और अन्य चीजें भी शत्रु के क्षेत्र में शरारतन उड़ाकर या फेंककर पहुँचा दी जाती हैं ताकि वहाँ के निवासियों/नागरिकों की निष्ठा  (लॉयल्टी) को प्रभावित या पलटा (सबवर्ट) जा सके। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में मुख्य रहे हैं टीवी, रेडियो और लाउडस्पीकर वगैरह।
सोशल मीडिया का सहारा पाकर तो अफवाहों को जैसे पंख लग गये हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से तो कोई फेक न्यूज़ क्षण मात्र में दुनिया में फैल जाती है। व्हाट्सअप, ट्विटर, फेसबुक। लिंक्डइन, इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कोई कुछ भी बेरोकटोक डाल देता है। छेड़छाड़ की हुई विडियो, मेमे, उलटे-सीधे प्रचार और भडक़ाऊ संदेश सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चलते रहते हैं।
अफवाहों की समस्या सेपूरी दुनिया जूझ रही है, लेकिन भारत के सन्दर्भ में यह समस्या कुछ ज्यादा ही जटिल और विकट है। इसके कुछ कारण इस प्रकार हैं-
0 भारत में भीड़ तंत्र की प्रबलता है। यहाँ कभी गणेशजी दूध पीने लगते हैं; मुहनोचवा से लोग आतंकित हो जाते हैं; कोई फर्जी युवक वैज्ञानिक बन जाता है; किसी साधु के सपने के आधार पर सोना खोजने के लिए खुदाई होने लगती है। यह अंतहीन सिलसिला है और आये दिन इस प्रकार के नए-नए प्रकरण उभरते रहते हैं। इन सबके पीछे अफवाह काम करती है।
0 भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार अभी भी अपेक्षित स्तर का नहीं है, जिसकेकारण जागरूकता का अभाव हैऔर वैज्ञानिक सोच की कमी है।
0 बहुत से भारतीयों की सोच पर साम्प्रदायिकता और जातीयता इस कदर हावी रहती है कि वे सच्चाई को भी इन्हीं चश्मे से देखते हैं। स्वाभाविक है वे दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
0 अफवाह के स्रोतों को परखने और फर्जी खबरों से सच्ची खबरों को अलग करने की तकनीक की न समझ है और न इस तकनीक की सहज उपलब्धता है। 
दुनिया भर के साइबर वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों और गुप्तचर विश्लेषकों ने अफवाह फैलने की प्रक्रिया के विभिन्न माडलों का अध्ययन और अनुसंधान किया है। इनमें से एक सरलीकृत मॉडल नीचे चित्रित है, जिसमें रेखाचित्रों के माध्यम से दिखाया गया है कि सोशल मीडिया के जरिये अफवाहें किस तरह फैलती हैं।
अफवाह फैलाने की प्रक्रिया ने आजकल बड़ी विशिष्टता हासिल कर ली है। बड़े सभ्य और शिष्ट (युफेमिस्टिक) ढंग से अब इसे ‘सार्वजनिक दृष्टिकोण का प्रबंधन’ (पब्लिक परसेप्शन मैनेजमेंट) भी कहा जाने लगा है। बड़े-बड़े विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं का दल रात-दिन लगा रहता है झूठी (फेक), ठगने वाली खबरें गढऩे और उन्हें बहुत शिष्ट और विश्वसनीय शब्दों में ढालने में। इनके मूल में दुर्भावना ही निहित होती है। यही डिसइनफार्मेशन का उद्भव-बिन्दु है। आगे की कार्रवाई मिसइनफार्मेशन ब्रिगेड जाने-अनजाने करता रहता है।

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कई बार सार्वजनिक दृष्टिकोण (पब्लिक परसेप्शन) को सुधारने के नाम पर गुप्तचर एजेंसियाँ परम गोपनीय ढंग से ‘मनोवैज्ञानिक अभियान’ (साइकोलॉजिकल ऑपरेशन/साई ओप्स) चलातेहैं। इस प्रक्रिया में प्राय: मनमाफिक लेख लिख/लिखवा कर बड़े पत्रकारों के नाम से मशहूर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाए जाते हैं। इन्हें टीवी के समाचारों, डिबेटों, प्रायोजित कार्यक्रमों और प्रचारों में भी चालाकी से घुसेड़ दिया जाता है। यही नहीं, साहित्य और संस्कृति के माध्यमों और मंचों सेभी इन्हें खूब हवा दी जाती है। कई बार अफवाहें विभिन्न स्तरों पर लोगों की भावनाओं को भडक़ाने में भी भरपूर सहायक होती हैं। विभिन्न वर्गों, जातियों, जनजातियों के मन में धार्मिक विद्वेष, वैचारिक मत-मतान्तर, भाषा-विवाद एवं क्षेत्रीयता तथा वर्ग विशेष के प्रति शोषण और अन्याय किए जाने की बातें उभारकर अफवाहें लक्षित व्यक्ति, समूह या वर्ग को भडक़ाती रहती हैं।
अफवाहों के बड़े घातक और गंभीर परिणाम होतेहैं। अफवाह के जरिये किसी झूठी या अर्धसत्य खबर फैलाकर ऐसा सनसनीखेज माहौल बना दिया जाता है कि लोग गैरकानूनी हरकतें करने पर उतारू हो जाते हैं। इससे सरकार के सामने क़ानून-व्यवस्था की भारी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। बच्चा चोरी, गोवंश की हत्या इत्यादि की अफवाहें अक्सर लोगों को मॉब लिंचिंग के लिए उकसा देती हैं। एक अनुमान 2 के अनुसार सन 2018 में सोशल मीडिया पर फैल रही अफवाहों के कारण देश में कम से कम 20 लोगों की मौत हो गई।
कई बार अफवाहों के माध्यम से सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील (सत्य, असत्य या अर्धसत्य) बातें ऐसी तेजी से फैलती हैं कि साम्प्रदायिकता का बवंडर खड़ा हो जाता है जिससे जबरदस्त सांप्रदायिक तनाव तथा हिंसा शुरू हो जाती है। जब तक लोगों को असलियत का पता चलता है काफी नुकसान हो चुका होता है। इसीलिए कहा जाता है कि जब तक सत्य अपने जूतों के फीते बाँधता है, झूठ शहर का पूरा चक्कर लगा आता है। इस वर्ष (2020) 23 फरवरी से 1 मार्च तक दिल्ली में हुए हिंसक उपद्रवों और सांप्रदायिक हिंसा में व्हाट्सएप के माध्यम से फैलाई जा रही अफवाहों की प्रमुख भूमिका रही।
अफवाहें फैलाकर लोगों को भडक़ाने की प्रवृत्ति कोई नई नहीं है। यह आदिमयुगीन है। इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है कि राजा की मृत्यु की झूठी ख़बरें या रानी का किसी अन्य व्यक्ति से अवैध संबंध की ख़बरें उड़ाकर प्रजा को बरगलाया जाता था। कहा जाता है कि जब 1657 में मुगल बादशाह शाहजहाँ दिल्ली के लालकिले में बीमार पड़ा था और अपने नियमित ‘झरोखा-दर्शन’ से कई दिन अनुपस्थित रहा तो अफवाह फैल गई थी कि बादशाह की मृत्यु हो गई। 3 कहते हैं इस आफवाह के निराकरण के लिए दारा शिकोह नेबीमार बादशाह को किलेकेझरोखेमेंबैठवा कर स्थानीय लोगों को दर्शन कराया।
इतिहास में अनेक दृष्टान्त उपलब्ध हैं जो साक्षी हैं कि युद्ध के समय अफवाहों को एक जबरदस्त सामरिक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। एक पक्ष अपने गुप्तचरों द्वारा चुपके से इस तरह की खबरें फैलवा देता था जिससे उसकी ताकत खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखे ताकि दुश्मन डर जाय, या ताकत इतनी कम दिखे कि दुश्मन भ्रम में पड़ जाय। यही नहीं, कई बार एक पक्ष युद्ध/आक्रमण संबंधी अपनी योजना/रणनीति के बारे में झूठी खबरें दुश्मन के खेमे में ऐसी होशियारी से डलवा देता था कि विरोधी उसके झांसे में आ जाय और उसे मुँह की खानी पड़े।

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आधुनिक काल में अफवाहों की ताकत का एक बड़ा उदाहरण भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कारणों में देखा जा सकता है। 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों को इन्फ़ील्ड रायफल के लिए नए तरह के कारतूस दिए गए, जिन्हें लोड करने से पूर्व दांतों से फाडऩा था। उन कारतूसों के बारे में अफवाह फैल गई कि उनमें गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है। इससे हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के सिपाही भडक़ उठे। इसी बीच उनमें यह भी अफवाह फैल गई कि भविष्यवाणी हुई है कि कंपनी का राज सौ साल पूरा होते ही खत्म हो जायेगा। सिपाहियों को पूरा विश्वास हो गया कि 1757 में हुए प्लासी के युद्ध के बाद सत्ता में आई कंपनी का राज 1857 मेंसमाप्त हो जायेगा।
अफवाह-जनित अभियान का एक ज्वलंत उदाहरण अमेरिका द्वारा 2003 मेंइराक पर किया हुआ हमला है। व्यापक रूप से फैले अफवाह के आधार पर अमेरिका ने दुनिया को विश्वास दिलाया कि इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने जैविक हथियारों सहित सार्वजानिक विनाश के अस्त्र (मास डिस्ट्रक्शन वेपन्स) छिपा रखे हैं। इस अफवाह के चलते ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया सहित दुनिया के कई देश ईराक के विरुद्ध आक्रमण में अमेरिका के साथ शामिल हुए। इराक की हार के बाद वहाँ ऐसे हथियार मिले ही नहीं जिनके बारे में इतना हल्ला मचाया गया था। जाहिर है यह नाकामी अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की रही जो सच का समय से पता न लगा सकी थीं और अमेरिकी नेतृत्व ऐसी ही निराधार ख़बरों के आधार पर दिग्भ्रमित हुआ।
अफवाहों के कुछ सकारात्मक उपयोग भी हैं। यदि एक पक्ष किसी बात को जान-बूझकर छुपाये रखता है या किसी मुद्दे पर जान-बूझकर चुप्पी साधे रहता है तो दूसरा पक्ष अफवाहों द्वारा ऐसा माहौल बना देता है कि पहला पक्ष उस बात को जाहिर कर देने के लिए या उस मुद्दे पर अपना बयान देने के लिए विवश हो जाता है। उदहारण के लिए जब सरकार कर्मचारियों के वेतन या लाभ संबंधी माँगों को अनसुना करती रहती है या चुप्पी साधे रहती है तो कर्मचारी संगठन अक्सर अफवाहों का बाजार गर्म कर देते हैं जिससे कर्मचारियों में उहापोह उत्पन्न होने लगता है और सरकार की छवि बिगड़ती है तथा कार्यक्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा स्पष्टीकरण या नीतिगत निर्णय जल्दी आ जाता है। अभी हाल में ही यह अफवाह बड़े जोर-शोर से उठी कि केन्द्रीय कर्मियों की सेवानिवत्ति तीस वर्ष की सेवा या पचास वर्ष की आयुद्वारा निर्धारित होगी। इस अफवाह ने ऐसा जोर पकड़ा कि भारत सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है।
अभी जब उत्तरी कोरिया के शासक किम जोंग की मृत्यु को लेकर रहस्य का भारी पर्दा पड़ा हुआ था और दुनिया सच्चाई जानने को आतुर थी तो अन्तरराष्ट्रीय अफवाहों का ऐसा बवंडर उठा कि इस तरह के अन्तरराष्ट्रीय दबावों की परवाह न करने वाला उत्तर कोरिया भी मामले में सच्चाई जाहिर करने के लिए किम जोंग के विभिन्न फोटो और विडियो को रिलीज़ किया, यद्यपि उनकी विश्वसनीयता पर भी अफवाहें बहुत दिनों तक उड़ती रही थीं।
अफवाहों का गुप्तचर प्रणाली मेंभी एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। किसी वांछित तथ्य तक पहुँचने में गुप्तचरों के सारे उपाय असफल हो जाते हैं तो अफवाहों का सहारा लेकर उस तथ्य के संरक्षक पर चुपके से दबाव बनाया जाता ताकि अपने बचाव में उस तथ्य के बारे में कुछ बोलने के लिए उसे विवश किया जा सके। इसके अलावा गुप्तचरों द्वारा अफवाहों को कई अन्य रूपों में भी प्रयोग और उपयोग किया जाता है।
अफवाहें परेशानी का सबब तब बनना शुरू हुईं जब राजनीतिक दलों ने इन्हें अपने प्रचार के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया। यह प्रवृत्ति भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बड़े घातक ढंग से उभरी है। ऐसा माना जाता है कि कई राजनीतिक दलों ने अपने-अपनेआईटी सेल बना रखे हैं, जिनमें अफवाह गढऩे और उन्हें फैलाने के फन में माहिर लोगों की चुपकेसेबड़ी तादाद में भरती की जाती है। ये लोग विभिन्न मंचों पर फर्जी रूप धारण कर (जैसे सोशल मीडिया में फर्जी अकाउंट खोल कर) विरोधी पक्ष के विरुद्ध झूठ और नकारात्मकता फैलाने का काम करते हैं।
अफवाहों की यह प्रक्रिया कई बार बड़े स्तर पर दो प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच भी चलती है। इसे गौरवान्वित करने के लिए अक्सर मनोवैज्ञानिक युद्ध (साइकोलॉजिकल वार या साई वार) भी कहा जाता है। भारत पाकिस्तान के बीच अफवाहों का युद्ध निरन्तर चलता रहता है। कोरोना महामारी केदौर में भी पाकिस्तान भारत के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाने से बाज नहीं आ रहा है। एक समाचार पत्र (हिंदुस्तान) ने अभी हाल में (19 मई 2020) भारत के राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा समन्वयक लेफ्टिनेंट जनरल राजेश पन्त के हवाले से कहा है कि पाकिस्तान की तरफ से झूठे प्रचार का किम्पेंइन दिनों काफी तेज हो गया है। पाकिस्तान अब 500 से भी ज्यादा फेक ट्विटर हैंडल का इस्तेमाल करते हुए भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करनेलगा है। साइबर क्षेत्र के विशेषज्ञ अचिन जाखड के मुताबिक भारत के खिलाफ दुष्प्रचार से जुड़े तमाम समूह ट्विटर, दूसरे साइबर प्लेटफार्म के जरिये भारत पर लगातार हमले कर रहे हैं। इन्टरनेट पर भारतीय राजनीतिक दलों को निशाना बनाया जाता है तो कभी आफवाह फैलाई जाती है कि भारतीय लोग मुसलामानों से नफरत करते हैं। वहीं कभी कश्मीर को मुक्त करने के हैशटैग चलाये जाते हैं। जानकारों की राय में ऐसी आफवाह फैलाने वालों का लक्ष्य होता है कि भारत-विरोधी दो-तीन मुद्दे हर हफ्ते ट्रेंड कराए जायं। एक आंकलन के मुताबिक पाकिस्तान की तरफ से करीब सात लाख भारत-विरोधी ट्वीट किए जा चुके हैं। ट्वीट केलयेपाकिस्तान ने अपने प्रभावशाली व्यक्तियों का इस्तेमाल भी करना शुरू कर दिया है। (हिंदुस्तान, 19 मई 2020)। ऐसे समूहों को पाकिस्तान की ओर से आफवाहें फैलाने के लिए निर्देश मिलते रहते हैं। पहले यह अभियान टीवी पर प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिये चलता था, जो आज भी जारी है।
 यह हो सकता है कि कुछ लोग खास तौर से दुष्प्रचार (डिसइनफार्मेशन) अभियान में लगाए जाते हों। हो सकता है वे बहुत प्रशिक्षित और वेतनभोगी लोग हों। हो सकता है वे किन्हीं लोगों के निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु या किसी एजेंडा विशेष के तहत फेक खबरें गढ़ते हों और उन्हें दुष्प्रचार अभियान की प्रक्रिया में फिट कर देते हों। यहाँ तक तो बात समझ में आती है, लेकिन यह विचार और विश्लेषण का बिन्दु बन जाता है कि आखिर क्यों जन सामान्य ऐसी फर्जी ख़बरों की पालकी ढोता रहता है। ऐसे लोगों के मनोविश्लेष्ण का यहाँ प्रयास किया गया है।

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हम अक्सर अपनी उम्मीदों, अपेक्षाओं और विश्वासों के आधार पर कुछ धारणाएँ बना लेते हैं। ये धारणाएँ हमारे दृष्टिकोण को जबरदस्त ढंग से प्रभावित करती हैं। ऐसी स्थिति मेंहम समस्या के वास्तविक स्वरूप को देखने के बजाय उसके उस पक्ष को ही सिर्फ देखने लगते हैंजो हम देखना चाहते हैं या जिसे हमारी धारणा दिखाना चाहती है। ऐसी अवस्था में हमें यथार्थ दिखना बंद हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि धारणाएँ हम जान बूझकर निर्मित करते हैं। यह अक्सर हमारी उस मानसिकता के कारण होता है जो हममें वर्षों से विकसित होती है। इसके विकास में कई कारक कार्यशील होते हैं, जैसे हमारा पारिवारिक परिवेश, हमारी शिक्षा-दीक्षा, किसी विशिष्ट विचारधारा के प्रति हमारा झुकाव और हमारी सांगठनिक या संस्थागत प्रतिबद्धता। सच कहें तो हमारी धारणा हमारे व्यक्तित्व का ही एक रूप है जिसे हम पूरी तरह त्याग नहीं पातेऔर हमारी धारणा (जो सहज और स्वाभाविक सी लगती है) किसी स्थिति? को परखने, उसका मूल्याँकन करने और उसके संबंध में निर्णय लेनेकी हमारी क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करती है।
हम अपनी मानसिकता और धारणाओं के अनुसार ही सूचनाओं की सत्यता को स्वीकार करते हैं। फिर उसी तरह की सूचनाओं का बहाव हमारी ओर होने लगता है और उन सूचनाओं की सत्यता पर विश्वास करके उन्हें हम दूसरों को अग्रसारित करने लगते हैं। इस प्रकार, बहुत सारी सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक चक्र चल पड़ता है। यही नहीं, हम अनजाने में अपने मन में एक प्रतिध्वनि-कक्ष (इको चैम्बर) निर्मित कर लेते हैं जिसमेंएक खास किस्म की सूचनाएँ ही बार-बार आती-जाती रहती हैं।
सामान्य जन का अपना कोई एजेंडा नहीं होता। इनके मन में कोई खास दुर्भाव नहीं होता। येबस एक खास तरह की मानसिकता से प्रेरित लोग होते हैं, जो ज्यादातर सहज विश्वासी होते हैं। ऐसे लोग बड़ी आसानी से दुष्प्रचार फैलाने वालों के हाथ का खिलौना बन जाते हैं। ये लोग थोड़ा ठहरकर सूचना की सत्यता के लिए प्रतीक्षा करने या स्वयं सत्यता का पता लगाने के लिए कुछ कोशिश करने के बजाय समान विचारधारा वाले लोगों और मित्रों की ओर सूचना को आगे बढ़ा देते हैं। इस तरह, एक-दूसरे से गुजरते हुए झूठी सूचना भी सच्चाई का बाना धारण कर घूमने लगती है।
सामान्य लोगों को सच्चाई का पता लगा पाना भी इतना आसन नहीं होता। न तो उनकेपास इतना धीरज होता है और न सच्चाई को खोज निकालने की इतनी ललक। पुराने जमाने के रोमन राजनीतिज्ञ और इतिहासकार पब्लिअस कोमेलिअस टीसीटस (56-120 ई.) ने सही ही कहा था कि सत्य का पता जांच और देरी से लगता है, जबकि झूठ का जल्दबाजी और अनिश्चितता से।
ऐसे लोग दूसरों को सनसनीखेज खबर जल्दी बता कर उन्हें प्रभावित करने के चक्कर में बिना सच्चाई जाने झूठी-सच्ची खबरों को आगे बढ़ाते रहते हैं। कई बार किसी ख़ास अजेंडे के तहत आई हुई सूचना को ये लोग जान-बूझकर अपने आका को खुश करने के लिए भी आगे बढ़ा देते हैं।
किसी आपातस्थिति मेंऐसेलोग दुष्प्रचार अभियान चलाने वाले लोगों का और जल्दी शिकार हो जाते हैं। भय, उत्तेजना और अधीरता के कारण ये सीधे सामान्य जन झूठी सनसनीखेज खबरों और झूठी चेतावनियों और आशंकाओं को अनजाने में फैलाकर पूरे माहौल में भय भर देते हैं।
इन्हीं में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो यह जानते हुए कि कोई खबर बिलकुल सच है, फिर भी उसको झूठ के रूप में प्रचारित करते हैं क्योंकि उस सच्ची खबर से उनके अपने हितों को हानि पहुँच सकती है या वह सच्ची खबर उन्हें नापसंद या मनमुताबिक नहीं है या उनकी विचारधारा में फिट नहीं बैठती है।

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यह न है कि सिर्फ सामान्य लोग ही झूठी ख़बरों के शिकार हो जाते हैं। बहुत शिक्षित और सूचना के अनेक संसाधनों से सम्पन्न लोग भी जाने-अनजाने झूठी या निराधार सूचनाओं पर विश्वास कर लेते हैं और उन्हें अपनी अवधारणा गढऩे या अपने तर्क का आधार बनाने की भूल कर बैठते हैं। इस मामले में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक वाकये 4 का अक्सर उल्लेख किया जाता है। भारत में किसी सूचना की सत्यता का पता लगाने में भारत के प्रधानमंत्री से बढक़र कौन साधन-सम्पन्न हो सकता है भला! अपने बयान में सच्चाई पर टिके रहने की जिम्मेदारी भारत की सबसे पवित्र और जिम्मेदार मानी जाने वाली संस्था भारतीय संसद के आलावा कोई अन्य स्थान हो सकता है क्या भला! कहते हैं कि संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान 6 फरवरी, 2020 को बोलते हुए प्रधानमंत्री ने जम्मू व कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटाये जाने की चर्चा करते हुए उस राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के एक ट्वीट का हवाला दिया। उमर अब्दुल्ला के ट्वीट में दावा किया गया था कि अगर अनुच्छेद 370 हटाया गया तो ऐसा भूकम्प आ जायेगा कि जम्मू- कश्मीर भारत से अलग हो जायेगा। कहते हैं कि उमर अब्दुल्ला का ट्वीट व्यंग्यात्मक था जो कि व्यंग्य वेबसाइट ‘फेकिंग न्यूज़’ में 28 मई, 2014 को प्रकाशित एक लेख में उद्धृत हुआ था। बाद में पता चला कि प्रधानमंत्री फेक न्यूज़ के शिकार हो गयेथे। कहते हैं कि उमर अब्दुल्ला ने 27 मई, 2014 केअपने ट्वीट में‘भूकंप’ शब्द का कहीं उल्लेख ही नहीं किया था। उनका ट्वीट शब्दश: यूँ था,
“Mark my words & save this tweet—long after Modi Govt is a distant memory either J&K won’t be part of India or Art 370 will still exist 2/n” कार्यपालिका के प्रमुख केरूप मेंकार्य करने वालेव्यक्ति (प्रधानमंत्री) के लिए न जाने कितनी एजेंसियाँ होती हैं जो बड़ी फुर्ती सी ऐसी बातों फैक्ट-चेकिंग कर सकती हैं, जो जाहिर है नहीं हुआ होगा।
सही ख़बरों को लोगों तक पहुँचाने के महान दायित्व को वहन करने का दावा करने वाली मीडिया भी फेक न्यूज़ या अफवाहों से अपने को अक्सर बचा नहीं पाती। कई मीडिया चैनलों पर तो खुलेआम आरोप भी लगते रहते हैं कि वे किसी विशेष एजेंडे के तहत कुछ ख़ास तरह की ख़बरों को तरजीह देते हैं। विश्लेषण किया जाय तो इसके पीछे कई कारण नजर आते हैं। सिर्फ सत्य के प्रति प्रतिबद्ध रहने की जिनसे उम्मीद की जाती है उन्हें किसी न किसी राजनीतिक विचारधारा या एजेंडे को आगे बढ़ाते देखा जाता है। इनके पीछे मीडिया घरानों और पत्रकारों के निहित स्वार्थ की भूमिका मानी जाती है। कई बार टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में भी मीडिया के लोग फेक न्यूज़ के शिकार हो जाते हैं। कई बार कोई सनसनीखेज खबर जल्दी से अपने श्रोताओं/दर्शकों तक पहुँचाने के चक्कर में भी मीडिया अफवाहों का शिकार हो जाता है। कभी-कभी सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध करने के चक्कर मेंमीडिया के लोग उल-जुलूल खबरों का सहारा लेने लगते हैं। कभी ऐसा भी होता है कि किसी वर्तमान समाचार को किसी पुराने या हेरा-फेरी किए हुए विडियो के साथ इस प्रकार पेश किया जाता है कि समाचार का सन्दर्भ ही विकृत या विषाक्त हो जाता है।
अभी हाल के दिनों मेंसोशल मीडिया की नकारात्मकता ज्यादा उभर कर आई है। झूठ, अफवाह, नफरत और गलत धारणाओं को बढ़ावा देने वाली सामग्री की भरमार हो गई है। ट्रोल नामक एक नई प्रजाति प्रकट हो गई है, जो दूसरों को गालियाँऔर धमकियाँ देने में सक्रिय रहती है। इसके कारण कई गंभीर और विचारशील लोगों ने सोशल मीडिया से दूरी बनाना शुरू कर दिया है। 
यहाँ एक महत्वपूर्ण मुद्दा उभरता है कि फेक न्यूज़ या अफवाह की पहचान कैसे की जाय। लगातार सामने आती रहने वाली खबरों में से फेक न्यूज़ को पहचान कर अलग कर पाना एक सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन कार्य है। आइये, पड़ताल करते हैं कि कैसे इस कठिनाई से पार पाया जाय। 
यदि अग्रसारित होते हुए कोई खबर आप तक पहुँचेऔर वह खबर आपको उद्वेलित या भयभीत कर दे तो ऐसी खबर से चौकन्ना हो जाइये। थोड़ा रुककर विचार कीजिये कि ऐसी खबर या संदेश भेजने वाले की मंशा क्या हैयदि लगता है कि वह खबर लोगों की भावनाओं को भडक़ाने की नीयत से फैलाई जा रही है तो आप उस अभियान का हिस्सा मत बनिये। दूर रहिये ऐसे खबर या संदेश से।
इसी प्रकार, यदि कोई समाचार/संदेश आपको इतना सनसनीखेज लगे कि आप उस पर सहसा विश्वास न कर पायेंतो उस खबर की सत्यता जाने बिना उसे आगेमत अग्रसर करिये। यह मत सोचिये कि अगला व्यक्ति उसकी सच्चाई का पता लगायेगा और उसेआपको भी बतायेगा। आप पर विश्वास करके वह व्यक्ति उस खबर को आप की ही तरह आगेबढ़ा देगा। आपकी विश्वसनीयता की कीमत पर जो अविश्वसनीय खबर एक बार आगे बढ़ी तो उस शृंखला में कईयों की विश्वसनीयता को खाती-पचाती और मजबूत होती हुई एक झूठी बात भी एक जबरदस्त सच्चाई का रूप धारण कर लेती है। झूठ के परिचालन की इस शृंखला में अपनी कड़ी जोडऩे से बचिए, शृंखला टूट जायेगी या कम से कम कमजोर तो पड़ ही जायेगी।
आपके पास पहुँचने वाले संदेशों का रंग-ढंग यदि सामान्य संदेशों से भिन्न हो तो समझिये कहीं कुछ गड़बड़ है। उदाहरण के लिए शब्दों में वर्तनी-दोष हो या वाक्यों की बनावट ऊबड़-खाबड़ हो तो समझ लीजिये कि उस संदेश का सृजन किसी अनाड़ी नेया किसी दुर्भावनाग्रस्त व्यक्ति ने हड़बड़ी में किया है। इसी प्रकार, यदि संदेश में दिया हुआ लिंक किसी जाने-माने स्रोत या साईट का है, किन्तु उसमें कहीं स्पेलिंग की गलती या कुछ अक्षरों का संयोजन कुछ असामान्य ढंग से हुआ है तो सतर्क हो जाइये। वह स्रोत या साईट फर्जी हो सकता है। उसेभूल सेभी न खोलें, न अग्रसारित करें। पहली बात तो यह है कि अक्सर फर्जी संदेशों में किसी स्रोत या साईट का उल्लेख ही नहीं होता। अगर खुदा न ख्वास्ता विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए संदेश-प्रेषक ने स्रोत/साईट का उल्लेख किया हो तो उपर्युक्त सलाह पर जरूर गौर करिए।
कोई समाचार पाने पर थोड़ा रुकें, थोड़ा उस पर विचार करें। दूसरों को जल्दी से वह समाचार सुनाने के उतावलेपन के बजाय अन्य समाचार माध्यमों पर भी थोड़ा गौर कर लें। कोई घटना सच होगी तो जरूर वह किसी अन्य समाचार माध्यम पर भी उपलब्ध होगी या जल्दी ही उपलब्ध हो जायेगी। यदि अन्य माध्यमों और स्रोतों पर वह उपलब्ध नहीं हैतो उस समाचार के संदिग्ध होने संभावना बढ़ जाती है। लेकिन, यह भी संभव है कि कोई झूठी खबर कई माध्यमों से एक साथ परिचालित होने लगती है। ऐसी स्थिति में उस खबर की सच्चाई का पता लगा पाना मुश्किल होता है। ऐसी हालत में उस माध्यम पर भरोसा करिये जिसकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता सुस्थापित है।
यदि किसी व्यक्ति, संस्था या माध्यम ने समाचार की सत्यता के संबंध में कभी आपका विश्वास भंग किया है, तो उसेत्यागिये। तजिय ताहि कोटि वैरी सम, क्योंकि ऐसेलोग न जाने कब फर्जी खबरों के मायाजाल में आपको फँसा देंगे।
इस संबंध में मार्क ट्वेन की वह सलाह याद रखिये जो उन्होंने कभी भाषा में विशेषण के प्रयोग को अनुशासित करने के लिए दिया था- व्हेन इन डाउट, लीव इट आउट। अगर किसी खबर या संदेश की सत्यता पर जरा भी शक हो तो उससे बचिये। अपनी विश्वसनीयता की कीमत पर किसी फर्जी खबर को फैलाने के बजाय उससे दूर रहिये। थोड़ा इंतजार कीजिये। सच्चाई को सामने आने दीजिए। 
ये तो कुछ सामान्य सलाह हैं सामान्य जन के लिए। इनके अलावा फैक्ट-चेकिंग के लिए ऑनलाइन कई एप्प भी हैं, जिनकी मदद सत्य का पता लगानेके लिए जा सकता है।
फर्जी खबरों के फैलाने के प्लेटफार्म केरूप में दुरूपयोग किए जाने के लिए व्हाट्सएप खासा बदनाम होता रहा है। आजिज आकर व्हाट्सएप अपने प्रयोगकर्ताओं को गाइडलाइंस और सलाह जारी करता रहा है। एक अनुमान के अनुसार भारत में बीस करोड़ 5 से भी ज्यादा लोग व्हाट्सएप का प्रयोग करते हैं। इतने बड़े मार्किट बेस को कोई-कोई दुरुपयोग किए जाने के आधार पर यूँ ही नहीं गंवाना चाहेगा। यही कारण है कि व्हाट्सएप अपने प्लेटफार्म का दुरूपयोग रोकने के लिए कदम उठता रहा है। इसकी शुरुआत व्हाट्सएप ने भारत भर में “Share Joy, Not Rumors” नामक अभियान से किया, जिसेदस सेज्यादा भाषाओं में देश के सारे संचार माध्यमों के जरिये प्रसारित किया गया। यही नहीं फेक न्यूज के प्रसारण को रोकने के लिए व्हाट्सएप ने कुछ फिल्मों का निर्माण भी कराया। व्हाट्सएप ने अपने प्रयोगकर्ताओं से वैकल्पिक तौर पर आग्रह भी किया है कि यदि कोई प्रयोगकर्ता चाहे तो किसी संदिग्ध संदेश को फैक्ट-चेकिंग के लिए उसके साथ शेयर कर सकते हैं या क़ानून-व्यवस्था देखने वाले अधिकारियों को सूचित कर सकते हैं। व्हाट्सएप ने अपने प्रयोगकर्ताओं की सुविधा के लिए Boom Live और Alt News जैसे वेबसाइट के साथ सहभागिता भी की है।
व्हाट्सएप पर संदेशों, खासकर कोरोना वायरस से संबंधित संदेशों, को अग्रसारित करने की आवृत्ति पाँच तक सीमित कर दी गई है। इस सीमा ने फर्जी खबरों के तीव्र प्रवाह पर रोक तो लगाई है, लेकिन फर्जी खबरों पर पूर्ण रोक लगा देने में इसकी सफलता अभी भी परखी जानी है। कोरोना वायरस के संबंध में फैलने वाली अफवाहों को रोकने के लिए व्हाट्सएप संदेशों को अग्रसारित करने की आवृत्ति को और कम कर रहा है। अब कोई यूजर एक बार में किसी संदेश को सिर्फ एक बार अग्रसारित कर सकता है। इससे स्वत: पता लग जाता है कि कोई संदेश विशेष एक साथ लगातार पाँच बार अग्रसारित हो गया है या नहीं।
गूगल न्यूज़ ने फेक न्यूज़ के प्रति जागरूकता लाने और सच का पता लगाने के तरीकों के बारे में 8000 पत्रकारों को अंग्रेजी सहित सात भारतीय भाषाओँ में सन् 2018 में एक प्रशिक्षण प्रारंभ किया, जो दुनिया में इस दिशा में अपनी तरह का सबसे बड़ा कदम माना गया। 6 व्हाट्सएप ने भी पाँच टिप्स जारी किए गये थे जो व्हाट्सएप यूजर को फर्जी ख़बरों/संदेशों को पहचानने में उपयोगी बताया गया। यहीं नहीं, जुलाई, 2018 में अपने प्लेटफार्म से फैल रहे फेक ख़बरों और अफवाहों को रोकने के लिए व्हाट्सएप ने अपने यूजरस को 10-बिन्दुओं वाले टिप्स जारी किए। व्हाट्सएप के इस प्रयास की समाचार माध्यमों में खूब चर्चा रही और कुछ विशेषज्ञों के हवाले यह दावा किया गया कि व्हाट्सएप पर परिचालित हो रहे फर्जी संदेशों को रोकने की जिम्मेदारी व्हाट्सएप और व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन लोगों की है क्योंकि इस संबंध में उनकी भूमिका मध्यस्थों (Intermediary) की है और वे मध्यस्थों से संबंधित उत्तरदायित्वों (Intermediary  liability) के प्रति कानूनन बाध्य हैं। लेकिन, यहाँ ध्यान देने की बात है कि व्हाट्सएप या व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन को ग्रुप के किसी सदस्य द्वारा फेक संदेश पोस्ट किए जाने के लिए प्रतिनिधिक रूप से (vicariously) कानूनन उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। स्वामी-सेवक (master-servant) और कर्ता-अभिकर्ता (principal-agent) की तरह के संबंधों के लिए प्रतिनिधिक उत्तरदायित्व (vicarious liability) लागू होता है। ऐसा संबंध व्हाट्सएप और व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन गु्रप के किसी सदस्य साथ नहीं होता। इस संबंध में जारी किए गए सलाह (एडवाइजरी) नैतिक रूप से तो उचित हैं, किन्तु कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं दंडनीय अपराध। ऐसा कोई क़ानून भारत मेंअभी नहीं है जो इस प्रकार की साइबर गतिविधि को दंडनीय अपराध कह सके। इस संबंध में श्यामसुंदर एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1989) 4 SCC 630 तथा आर। कल्याणी बनाम जनक सी। मेहता (2009) 1 SCC5 16 में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ द्रष्टव्य हैं। यही नहीं, आशीष भल्ला बनाम सरेश चौधरी (2016) के मामले में भी दिल्ली उच्च न्यायलय ने माना कि ग्रुप के किसी सदस्य द्वारा मानहानिकारक संदेश पोस्ट किए जाने पर ग्रुप का एडमिन जिम्मेदार नहीं है।

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व्यावहारिक रूप से भी देखा जाय तो पता चलेगा कि ग्रुप के एडमिन ग्रुप के पास किसी सदस्य को हटाने का बहुत सीमित सामथ्र्य होता है। जब तक एडमिन खुद कोई आपत्तिजनक सन्देश नहीं पोस्ट करता वह किसी सदस्य की गलती के लिए कैसे जिम्मेदार हो सकता है! हाँ, यह बात अलग है कि किसी अवैध उद्देश्य से वह ग्रुप बनाता है तो एडमिन जरूर जिम्मेदार होगा। उदाहरण के लिए अभी बच्चों के शोषण वाली चाइल्ड पोर्नोग्राफी को प्रसारित करने वाला कोई ग्रुप।
अफवाह फैलाने वालों के विरुद्ध भारत में अब तक पुराना क़ानून ही काम करता रहा है। इस संबंध में न्यूज़18 में 7 जुलाई 2018 को प्रकाशित एक लेख में उद्धृत साइबर मामलों के सुप्रसिद्ध वकील पवन दुग्गल का एक कथन विचारणीय है। पवन दुग्गल कहते हैं, ‘सोशल मिडिया के आने से पहले बने भारतीय कानूनों में विशेषता की कमी होने के कारण ऐसे कानून इन समस्याओं को रोकने में असफल हैं। भारतीय आईटी क़ानून इससे निपटने में सक्षम नहीं है। व्हाट्सअप जैसे बिचौलिए भारतीय बाजारों का लाभ तो उठाना चाहते हैं, लेकिन भारतीय कानों का पालन नहीं।’ आगे जोर देते हुए दुग्गल कहते हैं कि आईटी एक्ट के सेक्शन 87 के तहत भारत सरकार फेक न्यूज़ की समस्या से निपटने के लिए कठोर बना सकती है। भारत को इन बिचौलियों के प्रति कठोर होना होगा और उन्हें भारतीय कानून के पालन के लिए झुकना होगा। हमें अपने साइबर स्पेस की शुचिता को बढ़ाना होगा और स्कूलों के पाठ्यक्रम में साइबर कानून संबंधी जागरूकता लाना होगा।’
यहाँयह उल्लेख करना समीचीन होगा कि भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 505 में सार्वजनिक शरारत करने के लिए किए गए कृत्यों से निपटने का प्रावधान किया गया है, हालाँकि अफवाह फैलाने के संदर्भ में इस धारा की उपधारा 2 प्रासंगिक है। धारा 505 (2) व्यक्तियों के वर्गों के बीच शत्रुता या शत्रुता की इच्छा को बढ़ावा देने या बढ़ावा देने के बयान से संबंधित है। यह प्रावधान उन मामलों से संबंधित है जहॉं बयानों को शरारत के इरादे से किया जाता है, साथ ही जहाँ संभावित प्रभाव शरारत का कारण बनता है।
कोविद-19 की भयावहता को फैलाने वाले अफवाहों पर अंकुश लगाने के लिए भारत सरकार ने 24 मार्च, 2020 से आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 54 के अंतर्गत झूठी चेतावनी फैलाने को दंडनीय अपराध बनाया है। कुछ समाचारपत्रों के अनुसार कोविद के संबंध में झूठी चेतावनी फैलाने के आरोप में कुछ लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी शुरू की है।
फेक न्यूज और अफवाहों से लोगों को बचने का सबसेबढिय़ा तरीका  है कि उन्हें इस संबंध में जागरूक किया जाय। इसके लिए विभिन्न प्रचार माध्यमों के साथ-साथ स्कूलों की कक्षाओं में पढ़ाया जाय। पता लगा है कि सरकार इस तरह का कुछ ठोस कदम उठा रही है। केरल के कन्नूर सहित कुछ स्थानों पर इस तरह की जागरूकता कक्षाएँ 8 चलने की योजना है।

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