विचार / लेख
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-चन्द्र प्रकाश बाजपेयी
संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 300 से ज़्यादा सदस्यों वाली संविधान सभा की पहली बैठक में 9 दिसंबर 1946 को कहा था ‘एक संविधान चाहे जितना अच्छा हो वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों।‘
संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संसदीय प्रजातंत्र अर्थात् जनता के द्वारा, जनता के लिये जनता का शासन। क्या यह मूलाधार राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान और राजनीति के क्षेत्र में लगभग 50 वर्षों से अधिक अनुभव प्राप्त व्यक्ति के संज्ञान में नहीं है? यह प्रश्न बार-बार विचार में आता है और ऐसा विश्वास भी नहीं होता। तब क्या यह विश्वास योग्य है जो राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इन दिनों देश में न केवल चर्चा में, अपितु समाचार पत्रों एवं मीडिया में भी सुनाई दे रहा है कि राजस्थान के राज्यपाल पर ऊपर का दबाव है? हालांकि राजनीति के जानकार इस उजागर लेकिन छिपे सच को जानते ही हैं।
राज्यपाल के पद पर विराजमान व्यक्ति भारत के संविधान जिसका मूलाधार गवर्नमेंट आँफ इंडिया एक्ट 1935 है, के तहत केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिये नियुक्त किया जाता है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि यदि राज्यों में संविधान के प्रावधानों का पूर्ण तरह पालन नहीं हो रहा हो तथा यदि कोई असंवैधानिक कार्य होता दिखे तो वह समुचित कार्रवाई करें, किंतु आश्चर्यजनक है कि जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, उन पर ही संविधान के प्रावधानों का मखौल उड़ाने के आरोप लग रहे हैं।
संविधान सभा में संसदीय प्रणाली के उपरोक्त मूलभूत सिद्धांत की पूर्ति के लिये विस्तृत विचार विमर्श हुआ और सिद्धांततः क्योंकि राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है, जवाब देह होती है अतः विधानसभा सत्र बुलाने का अधिक़ार राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख मुख्यमंत्री में निहित किया गया। वह जब भी आवश्यक समझे अपनी जवाबदेही या उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिये विधानसभा के सत्र आहूत कर सकें और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर सके।
संविधान के अनुच्छेद 174 में राज्य के विधान मंडल के सत्र सत्रावसान और विघटन के प्रावधान किये गये है। इसमें उल्लेखित है कि राज्यपाल समय- समय पर राज्य के विधान मण्डल के सदन या प्रत्येक सदस्य को ऐसे समय और स्थान पर जो ठीक समझे अधिवेशन के लिये आहूत करेगा किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिये नियत तारीख़ के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होगा।
संविधान सभा में जब सत्र को आहूत करने के संबंध में इस अनुच्छेद पर चर्चा हो रही थी तब संविधान सभा के सदस्य के टी शाह और क़ुछ अन्य सदस्यों ने संशोधन के प्रस्ताव भी रखे। संशोधन क्रमांक 1473 और 1478 संविधान की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1940 /9 पार्ट-2 में एक आशंका भी ज़ाहिर की गई। वह यह थी कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल साधारण अथवा असामान्य समय में इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री की सलाह को न मानते हुए यदि सत्र आहूत नहीं करते हैं तो ऐसी स्थिति में संविधान में यह भी प्रावधान करना चाहिये कि प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री विधानमण्डल के अध्यक्ष या परिषद् के सभापति से सलाह कर सत्र आहूत कर सकें। इससे यह स्पष्ट है कि विधानसभा का सत्र बुलाना कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र की बात है और मुख्यमंत्री तथा मंत्रिपरिषद यह निर्णय लेती है कि विधान सभा का सत्र आहूत किया जाना है। यह राज्यपाल के विचार क्षेत्र की बात नहीं कि वह मुख्य मंत्री के प्रस्ताव को रोके।
राज्यपाल को केवल विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों के मामलो में ही, विचार करने और कारण बताते हुए पुनः विधानसभा को भेजने का अधिकार संविधान के अन्तर्गत है। विधानसभा का सत्र आहूत करने के प्रस्ताव पर विचार करने अथवा वापस करने या अस्वीकृत करने जैसा कोई भी प्रावधान संविधान में नहीं है। अपितु इस अनुच्छेद पर चर्चा के समय बाबा साहब अंबेडकर ने यहां तक कहा कि- यदि ऐसा होता है राष्ट्रपति या राज्यपाल उनके कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं स्वच्छ्न्दता पूर्ण व्यवहार करते हैं, यह तो संविधान का उल्लंघन होगा। जाहिर है राजस्थान विधानसभा सत्र बुलाने के मामले को संविधान की धाराओं के बीच उलझाने की राजनीतिक कोशिश करते हुए ये अनदेखी तो की ही जा रही है। (संदर्भ:- संविधान सभा की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1949 संशोधन 1473, 1474)
(लेखक कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय सचिव हैं। पूर्व विधायक हैं तथा म. प्र. विधान सभा के उत्कृष्ट विधायक रह चुके हैं।)