संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चूंकि हवा में चारों तरफ मर्यादा पुरूषोत्तम राम का नाम है, इसलिए जज सोचें
06-Aug-2020 7:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चूंकि हवा में चारों तरफ  मर्यादा पुरूषोत्तम राम का नाम है, इसलिए जज सोचें

सुप्रीम कोर्ट के एक चर्चित वकील और सामाजिक मुद्दों को लेकर अदालत के बाहर भी खड़े दिखने वाले प्रशांत भूषण को अदालत की अवमानना में सुप्रीम कोर्ट ने कटघरे में खड़ा किया है। इसकी एक वजह तो न्यायपालिका के बारे में ट्विटर पर उनकी की गई आलोचनात्मक टिप्पणियां हैं, और दूसरी वजह मुख्य न्यायाधीश के एक महंगी विदेशी मोटरसाइकिल पर बैठी तस्वीर को न्यायपालिका का अपमान बताने वाला ट्वीट है। उनके खिलाफ 10 बरस से अधिक पुराना एक अवमानना केस और खोल लिया गया है जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कई जजों को भ्रष्ट बताया था, और माफी मांगने से इंकार कर दिया था। 

मौजूदा मुख्य न्यायाधीश लॉकडाऊन के वक्त नागपुर में अपने घर पर रहते हुए ऑनलाईन अदालती काम कर रहे हैं, और इसी दौरान सुबह घूमते हुए उन्हें एक महंगी विदेशी मोटरसाइकिल दिखी, तो वे उस पर सवार होकर बैठने का लालच छोड़ नहीं पाए। बाद में पता लगा कि वे अपनी वकालत के दिनों में भी एक भारी-भरकम मोटरसाइकिल चलाने के शौकीन रहे हुए हैं, और अभी जिस विदेशी मोटरसाइकिल पर वे बैठे थे, वह भाजपा के एक बड़े नेता की थी। वैसे तो सार्वजनिक जगह पर किसी मोटरसाइकिल पर बैठकर उसे देखना इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनना चाहिए था, लेकिन उसकी तस्वीरें आकर्षक थीं, और मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक लोगों को उस पर कहने के लिए कुछ न कुछ था। कुछ को अदालतों से कोई शिकवा-शिकायत चले आ रही थी, तो कुछ को जज का ऐसी महंगी, और भाजपा नेता के बेटे की विदेशी फटफटी पर बैठना अटपटा लगा। 

अब प्रशांत भूषण की ओर से सुप्रीम कोर्ट को कहा गया है कि जो अवमानना का कानून हिन्दुस्तान में चले आ रहा है वह एक लोकतांत्रिक-संविधान के अनुकूल नहीं है। इसे लेकर अदालत में संविधान पर एक बुनियादी बहस चलनी है, और उसके तकनीकी पहलुओं पर हम यहां जाना नहीं चाहते, लेकिन इतना जरूर कहना चाहते हैं कि अदालतों के जजों को बात-बात पर अपनी अवमानना देखना बंद करना चाहिए। अपने आपको किसी टूथपेस्ट के इश्तहार के सुरक्षाचक्र के भीतर हिफाजत से रखने की सोच लोकतांत्रिक नहीं है। प्रशांत भूषण के लगाए हुए आरोपों पर अदालत ने पिछले 10 बरस से कार्रवाई रोक रखी थी, और अब उसे फिर से खोलना भी इसलिए अटपटा है कि उनकी ताजा आलोचना सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश की है। 

लेकिन इस मुद्दे पर लिखने आज हम नहीं बैठे होते अगर कल राम मंदिर का भूमिपूजन नहीं हुआ रहता, और वह भूमिपूजन नहीं हुआ रहता अगर पिछले मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कमर कसकर रात-दिन सुनवाई चलाकर इस मामले में फैसला न दिया होता। हम जजों के ओवरटाईम के खिलाफ भी नहीं हैं, क्योंकि अदालतों में 50-50 साल से मुकदमे खड़े और पड़े हुए हैं। लेकिन कल दिन भर राम का नाम सुनते हुए और देखते हुए यह लगा कि जिस रंजन गोगोई की बेंच के सुनाए फैसले की वजह से राम को यह मंदिर नसीब हो रहा है, वह राम सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, और उसके अपने चाल-चलन में कहां हैं? 

राम का नाम हिन्दुस्तान में बहुत सम्मान के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम कहकर लिया जाता है। उन्होंने सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं को, प्रजा की अपेक्षाओं को, इतनी बारीकी से और इतनी बेरहम हद तक जाकर निभाया था कि किसी एक गैरजिम्मेदार नागरिक के उछाले हुए सवाल पर उन्होंने अपनी गर्भवती पत्नी तक को घर और राज से बाहर निकाल दिया था। रंजन गोगोई रामजन्म भूमि मामले की सुनवाई करते हुए कई हजार बार राम के बारे में सुन चुके रहे होंगे। दूसरी तरफ जब रंजन गोगोई के निजी स्टाफ की एक महिला कर्मचारी ने उन पर सेक्स-शोषण का आरोप लगाया था, तो रंजन गोगोई ने सार्वजनिक जीवन की आम मर्यादा, और देश के कानून के तहत आम जांच-नियमों को कुचलते हुए उस महिला की सुनवाई करने के लिए खुद ही जजों की बेंच में बैठना तय किया था। हमारी कानून की बहुत ही साधारण समझ यह कहती है कि उनका यह काम पूरी तरह से नाजायज था, और कानून के खिलाफ था। उनकी उस हरकत से पूरे सुप्रीम कोर्ट की इज्जत मिट्टी में मिली थी, और हिन्दुस्तान की आम महिला के मन में अपने खुद के अधिकारों के प्रति भरोसा चकनाचूर हो गया था। उस वक्त कुछ और जज रंजन गोगोई के साथ बेंच पर बैठने के लिए तैयार भी थे, बैठे भी, उन्होंने रंजन गोगोई को उम्मीदों के मुताबिक बेकसूरी का सर्टिफिकेट भी दे दिया, और दूसरी तरफ उस शिकायतकर्ता महिला की नौकरी भी बहाल कर दी। यह पूरा सिलसिला कीचड़ में मिला दिए गए पानी की तरह इतना गंदला था कि लोगों को इसके मुकाबले डबरे का कीचड़ अधिक पारदर्शी दिख रहा था। रामजन्म भूमि मामले की सुनवाई करने वाले, और अपने कार्यकाल में उस फैसले को सुना देने के लिए कसम खाकर बैठे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने राम के चाल-चलन से पूरी तरह अछूते रहते हुए अपने खुद पर लगी सबसे बुरी तोहमत के केस में कटघरे में खड़े रहते हुए भी जज की कुर्सी पर बैठना तय किया था जो कि न्याय के सामान्य और प्राकृतिक सिद्धांतों के भी खिलाफ बात थी। 

अब ऐसी न्यायपालिका अगर अपने आपको अवमानना की फौलादी ढाल के पीछे छुपाकर, बचाकर रखना चाहती है, तो क्या यही लोकतांत्रिक न्याय व्यवस्था है? प्रशांत भूषण के मामलों की तकनीकी बहस आगे चलेगी, और उस पर हम कानूनी बारीकियों के जानकार नहीं हैं। लेकिन बहुत से ऐसे मौके रहते हैं जब कानून का कम जानकार होना कानून के प्रति एक बुनियादी और स्वाभाविक समझ में मदद करता है। हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या किसी दूसरे जज की आलोचना, उनके व्यक्तिगत चाल-चलन, उनकी संदिग्ध ईमानदारी की आलोचना किसी कोने से भी अदालत की आलोचना नहीं कही जा सकती। जज कभी न्यायपालिका नहीं हो सकते। अगर ऐसा है तो फिर मोदी देश हैं, एक समय इंदिरा देश थीं, कभी सरकार को राष्ट्र मान लेने की चूक होगी, और कभी सरकार की आलोचना को राष्ट्रविरोध करार दे दिया जाएगा। यह सिलसिला निहायत अलोकतांत्रिक है कि किसी ओहदे पर बैठे हुए व्यक्ति को ही वह ओहदा मान लिया जाए, वह संस्था मान लिया जाए। 

आज जब चारों तरफ मर्यादा पुरूषोत्तम राम की धुन बज रही है, लोग दो-तीन दिन कोरोना को भी भूलकर महज शिलान्यास और भूमिपूजन की चर्चा में डूब गए, जब पूरा देश टीवी पर मंदिर ही देखता रह गया, तो सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी यह समझना चाहिए कि जिनके हाथों में राम राज चलाने जैसे अधिकार होते हैं, उन्हें अपना निजी जीवन किस तरह पारदर्शी रखना पड़ता है। अवमानना का पहला शिकार पारदर्शिता होती है। यह कानून लोकतंत्र के साथ कदम मिलाकर नहीं चल सकता। इसे खत्म किया जाना चाहिए, और हो सकता है कि प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई चलते-चलते सुप्रीम कोर्ट के जजों को किसी बोधिवृक्ष के तले बैठने जैसा कोई असर हो, और देश की न्यायपालिका पारदर्शी और लोकतांत्रिक हो सके।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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