विचार / लेख

हमारे ‘गुरुदेव’ को कोरिया के लोग भी कुछ ऐसा ही दर्जा क्यों देते हैं?
07-Aug-2020 7:23 PM
हमारे ‘गुरुदेव’ को कोरिया के लोग भी कुछ ऐसा ही दर्जा क्यों देते हैं?

-पवन वर्मा

सात मई, 2011 दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल के लिए एक ऐतिहासिक तारीख थी. इस दिन हम भारतीयों के ‘गुरुदेव’ रबींद्रनाथ टैगोर का 150वां जन्मदिवस था और इसी मौके पर सोल के सांस्कृतिक केंद्र देइहांग्रो में उनकी एक कांस्य प्रतिमा का अनावरण हुआ. दक्षिण कोरिया की राजधानी में यह किसी विदेशी हस्ती की पहली प्रतिमा थी.

सोल में इस प्रतिमा का अनावरण भारत की तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने किया था. अमूमन ऐसा होता है कि राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए दो देश एक दूसरे की ऐतिहासिक हस्तियों की प्रतिमाओं को अपने यहां स्थापित करते हैं. लेकिन टैगोर की इस प्रतिमा के मामले में यह बात सीधे-सीधे नहीं कही जा सकती.

दक्षिण कोरिया में रबींद्रनाथ टैगोर को मिला यह सम्मान सिर्फ एक नोबेल पुरस्कार प्राप्त भारतीय कवि का सम्मान नहीं था. दरअसल इस देश की नई पीढ़ी तक टैगोर को जानती है और उन्हें एक मार्गदर्शक यानी गुरु की तरह ही आदर देती है. और यह तब है जब दुनिया के कई देशों की यात्रा करने वाले टैगोर सुदूर पूर्वी एशिया के इस देश में कभी नहीं गए!

तो फिर टैगोर कोरियाई लोगों के बीच इतने प्रतिष्ठित कैसे हो गए? दुनिया के और देशों की तरह कोरिया का प्रबुद्ध वर्ग भी गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर से 1913 में पहली बार परिचित हुआ था जब उन्हें ‘गीतांजलि’ के लिए नोबल पुरस्कार मिला. कोरिया की एक कवियत्री किम यांग शिक के मुताबिक 1916 में टैगोर के साहित्य का कोरियाई भाषा में अनुवाद शुरू हुआ और इस तरह वहां के लोगों ने भारत के इस महान लेखक-विचारक के काम को जाना-समझा. 1920 में ‘गीतांजलि’ का अनुवाद भी यहां प्रकाशित हो गया था. इसमें कोई दोराय नहीं कि टैगोर का यह साहित्य वहां सराहा जा रहा था, लेकिन सिर्फ इसकी वजह से उन्हें कोरिया में मार्गदर्शक या प्रेरणापुरुष का दर्जा हासिल नहीं हुआ.

1910 के बाद का यह वो दौर था जब कोरिया पर जापान का कब्जा था और वह विदेशियों की बर्बरता से हताश हो चुका था. इसी बीच 1916 में टैगोर पहली बार जापान की यात्रा पर गए. तब यहां उनकी कई कोरियाई छात्रों से मुलाकात हुई और उन्होंने भी पहली बार कोरिया की अद्भुत संस्कृति को करीब से जाना. इसी दौरान उन्हें कोरियाई लोगों के खिलाफ जापानी दमन का भी पता चला और उन्होंने खुलकर इसके खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए. इसके बाद गुरुदेव 1924 में फिर जापान गए और इस बार भी उन्होंने जापानी साम्राज्यवाद की सरेआम मुखालफत की.

टैगोर तीसरी और आखिरी बार 1929 में जापान पहुंचे थे. तब भी उनकी कई कोरियाई नागरिकों से मुलाकात हुई. इसी दौरान कोरिया के एक पत्रकार ने उनसे अपने देश आने का अनुरोध किया, हालांकि टैगोर वहां जा नहीं पाए पर उन्होंने उस पत्रकार को चार लाइन की एक छोटी सी कविता लिखकर दी और इसके जरिए कोरिया के प्रति अभी भावनाएं जताईं.

‘द लैंप ऑफ द ईस्ट’ (पूरब का दिया) नाम की यही वो कविता है जिसने बाद के दशकों में कोरियाई लोगों के बीच टैगोर को अमर कर दिया. इस कविता का अगर हम हिंदी मोटा-मोटा भावानुवाद करें तो वह होता है -

‘एशिया के स्वर्णकाल में,
दिया जलाने वाला एक देश कोरिया भी था,
और अब वह दिया फिर प्रतीक्षा में है, प्रकाशवान होने की,
ताकि वो फिर एक बार पूरब में उजियारा भर सके.’

उसी साल यह कविता कोरिया के सबसे लोकप्रिय अखबारों में से एक ‘डोंगा डेली’ में प्रकाशित हुई और इसने मानो कि जनता पर जादू-सा कर दिया. किम यांग शिक बताती हैं कि तब तक कोरियाई समाज जापान की बर्बरता से हताश हो चुका था, लेकिन टैगोर की इन चार पंक्तियों से उसे एक नया हौसला मिला और उसमें यह उम्मीद मजबूत हुई कि वह जल्दी ही जापानी शासन से मुक्त होकर फिर अपने देश का खोया गौरव हासिल करेगा. इस कविता के चलते जल्दी ही टैगोर कोरिया के घर-घर में जाना-पहचाना नाम बन गए थे.

एकीकृत कोरिया का यह दुर्भाग्य रहा कि जापान से आजादी मिलने के बाद दक्षिण और उत्तर कोरिया के रूप में 1948 में उसके दो टुकड़े हो गए. इसके बाद उत्तर कोरिया तो एक अलग ही दिशा में बढ़ गया लेकिन दक्षिण कोरिया ने कभी टैगोर को नहीं भुलाया. इस नए देश ने तुरंत ही गुरुदेव की यह कविता अपने यहां हाई स्कूल के बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल कर दी थी. इसके अलावा यह दक्षिण कोरिया की इतिहास की किताबों का एक अहम हिस्सा तो है ही और यही वजह है कि हमारे गुरुदेव को कोरिया के आम लोग भी कुछ यही दर्जा देते हैं.(satyagrah)

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