साहित्य/मीडिया

वे औरतें
07-Aug-2020 9:13 PM
वे औरतें

आजकल मुझे कुछ अपरिचित औरतें

जाने क्यों बहुत याद आ रही है
जैसे वह जिसने ट्रेन में मेरे साथ
अपना खाना बांटकर खाया था
वह जिसने रेगिस्तान में मेरी प्यास महसूस कर
अपना पानी का बोतल मुझे थमा दिया था
वह जिसने अपने बेटे को गोद में बिठाकर
बस की अपनी एक सीट मुझे दे दी थी
वह जिसने पहाड़ से फिसलते वक्त
सहारा देकर मुझे गिरने से बचा लिया था
वह जिसने देर शाम बर्फीली वादियों में
अपना छोटा-सा होटल खोलकर मुझे
मिर्च की चटनी के साथ गर्म मोमो खिलाया था

यहां तक कि वह औरत भी
जो मेट्रो की भीड़-भाड़ में एक बार
मुझे एकटक घूरते देखकर मुस्कुराई थी
और मैं बुरी तरह झेंप गया था

ऐसी और भी औरतें हैं
मेरे जीवन में जिनकी कोई बड़ी भूमिका नहीं
मगर वे इन दिनों बहुत याद आने लगी हैं
क्या यह चौतरफ़ा महामारी में
जीवन के प्रति कम हो रहे भरोसे का असर है ?

जो बात तब कहना जरूरी नहीं लगा था मुझे
मुझे लगता है मुझे अब कह देनी चाहिए

सुन रही हो तुम सब ?
मुझे तुम सबसे बहुत प्यार है।

-ध्रुव गुप्त

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