संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केरल के इन दो हादसों से खड़ी होती है बड़ी फिक्र..
08-Aug-2020 6:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केरल के इन दो हादसों से  खड़ी होती है बड़ी फिक्र..

दुबई से विमान रवाना होने के ठीक पहले शरफू ने अपनी पत्नी और बेटी के साथ यह फोटो पोस्ट की थी कि घर लौट रहे हैं। रात तक घर पहुंच जाने की उम्मीद थी, लेकिन विमान हादसे में शरफू की मौत हो गई, पत्नी अस्पताल में है, और बेटी अस्पताल में मौत से लड़ रही है। फोटो : दी न्यूज मिनट

कल का दिन केरल के लिए बहुत ही खराब दिन था। इस राज्य का पर्यटन का एक नारा है- गॉड्स ओन कंट्री, यानी ईश्वर का अपना प्रदेश। वहां जाएं तो उसकी खूबसूरती देखकर सचमुच यही लगता है। लेकिन कल के दिन को देखें तो लगता है कि अगर यह ईश्वर का अपना प्रदेश है तो ईश्वर कल कुछ खुदकुशी करने बैठा था। दिन में वहां पहाड़ी से जमीनें और चट्टानें बहकर नीचे आईं, और दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए। रात वहां एक विमान उतरते-उतरते हवाई पट्टी पर फिसलकर खाई में जा गिरा, और उसमें भी डेढ़ दर्जन या अधिक लोग मारे गए। एक ही दिन में केरल में ये दो बड़ी विपदाएं हुईं, और एक किस्म से दोनों ही मौसम की वजह से हुईं, खूब बारिश से भूस्खलन हुआ, और खूब बारिश के बीच विमान उतारते हुए एक बहुत ही अनुभवी पायलट विमान को बचा नहीं पाया। इन दोनों को देखें तो लगता है कि कुदरत की ताकत कितनी है!

ये दोनों हादसे उत्तराखंड में कुछ बरस पहले की बाढ़ और भूस्खलन के मुकाबले बहुत छोटे से हैं, हमने उस वक्त हजारों मौतों को देखा था, और हजारों को लापता होते भी देखा था जिनकी अब कोई चर्चा भी नहीं होती कि वे मिले हैं, या नहीं मिले हैं। दूसरी तरफ हिन्दुओं के चार तीर्थों को जोड़ते हुए चारोंधाम के बीच जैसी चौड़ी सडक़ें बनाई जा रही हैं, वे इन पहाड़ी इलाकों में बहुत बड़ा जमीनी फेरबदल कर रही हैं, जिसकी वजह से पर्यावरण और भौगोलिक तकनीकी जानकारी रखने वाले लोग बहुत फिक्रमंद हैं। दुनिया में बहुत सी जगहों पर भूकंप का बड़े बांधों से रिश्ता जोड़ा जाता है, नदियों में बाढ़ का रिश्ता नदियों के किनारे शहरी विकास, पेड़ों की कटाई, और नदियों में गाद भर जाने से जोड़ा जाता है। इंसान अपनी हरकतों से या अपनी लापरवाही से कुदरत को एक ऐसी कगार पर ले जाकर खड़ा कर देते हैं कि वहां से आगे का रास्ता केवल तबाही की तरफ बढ़ता है। 

एक तो धरती की अपनी बनावट कुछ ऐसी है कि उसमें कुछ किस्म की तबाही रोकी नहीं जा सकती। हर तबाही के पीछे इंसान जिम्मेदार हों ऐसा भी नहीं है, बहुत किस्म के भूकंप बिना किसी इंसानी योगदान के सिर्फ धरती के भीतर के ढांचे की वजह से होते हैं, और इंसान शायद चाहें तो भी उसे रोक नहीं सकते। सारा विज्ञान और सारी तकनीक मिलाकर भी इंसान इतना ही कर पा रहे हैं कि भूकंप के खतरे वाले इलाकों की शिनाख्त हो जाती है, और उन इलाकों में ऐसी तकनीक से मकान और इमारतों को बनाया जाता है कि भूकंप को वे कुछ हद तक झेल सकें, और इंसानों की जिंदगी पर खतरा घटे। लेकिन इंसानों ने कुदरत को कई जगह अपना गुलाम सा मानकर काम किया है। अब कल केरल में जिस पहाड़ी एयरपोर्ट पर यह प्लेन ठीक से लैंड नहीं कर पाया, उस किस्म के एयरपोर्ट टेबलटॉप कहे जाते हैं, यानी पहाड़ी के बीच बनाई गई एक हवाई पट्टी ऐसी रहती है जिसकी जगह बहुत सीमित रहती है। अब ऐसी जगह पर हवाई पट्टी बनाना और उस पर विमान उतारना हमेशा ही थोड़े से खतरे की बात रहती है, लेकिन कल तो भारी बारिश थी, दूर तक दिख नहीं रहा था, और यह काबिल, एक पुराना एयरफोर्स पायलट, दो बार कोशिश करके भी विमान वहां उतार नहीं पाया था, और तीसरी बार में यह हादसा हुआ जिसमें विमान के दो टुकड़े हो गए, और दोनों पायलटों सहित 18-20 मौतें हो गईं, दर्जनों लोग बुरी तरह जख्मी हो गए। 

अब यह सोचने की जरूरत है कि इंसानों का शहरी विकास किस कीमत पर हो और उसके लिए कितने खतरे उठाए जाएं? एक तरफ समंदर के किनारे इतने करीब तक शहरी बसाहट हो रही है कि समंदर की लहरों और तूफान से बचने की जो प्राकृतिक सुरक्षा थी, वह भी खत्म हो जा रही है, और सुनामी जैसी अभूतपूर्व तबाही सामने आ रही है जिससे बचाव का कोई जरिया विज्ञान और इंसानों के पास नहीं है। आज भी दुनिया के अनगिनत शहरों के सामने यह खतरा कायम है कि अगले सौ-पचास बरस में वे समंदर के बढ़ते हुए जलस्तर के मुकाबले नीचे आ जाएंगे, और वे शहर डूब जाएंगे। अब कोई शहर अगर सौ-दो सौ बरस की जिंदगी भी नहीं रखता है, तो उस शहर का रहना ही अपने आपमें खतरनाक है क्योंकि शहर रहेगा, तो आगे और बसेगा, आगे और बढ़ेगा, जबकि उसकी जिंदगी सीमित है, और अगर वैज्ञानिकों का हिसाब-किताब थोड़ा सा गड़बड़ साबित हुआ, समंदर के पानी के ऊपर जाने की रफ्तार बढ़ी तो हो सकता है कि ये शहर कुछ और पहले डूब जाएं। 

इंसान ने अपनी सोच के साथ विज्ञान से मिले औजारों को हथियारों की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, और धरती को, कुदरत को अपना गुलाम मान लिया। अब केरल की जिस पहाड़ी पर यह एयरपोर्ट बनाया गया था, क्या सचमुच वहां ऐसे मौसम में विमान को ले भी जाना चाहिए था? क्या उत्तराखंड और अगल-बगल के प्रदेशों के पहाड़ों पर चारधाम के लिए ऐसी चौड़ी फोरलेन सडक़ों को पहाड़ काटकर बनाना चाहिए? क्या नदियों के किनारे बाढ़ की जद में आने वाले इलाकों पर बसाहट करनी चाहिए? क्या समंदर के करीब तक जाकर बसाहट जरूरी है? इंसान कुदरत की बांह मरोडक़र उससे कई किस्म की रियायतें हासिल करने के इतने आदी हो गए हैं, उन्हें इतनी लत पड़ गई है कि कुदरत की विशाल विकराल ताकत के सामने उन्हें अपनी तकनीक के ज्ञान का घमंड होने लगा है। एक वक्त था जब कहा जाता था कि दुनिया की सभ्यता नदियों के किनारे विकसित हुई है। आज कम से कम हिन्दुस्तान जैसे देश को देखें तो लगता है कि नदियों के किनारे असभ्यता विकसित हो चुकी है, कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों का अंतहीन जहर सीधे गंगा में छोड़ा जा रहा है, गंगा या बाकी किसी भी नदी के किनारे बसे हुए शहरों की रोजाना की गंदगी सीधे नदियों में छोड़ी जा रही है, और तमाम धरती का प्लास्टिक-प्रदूषण इन नदियों के पानी के साथ होकर समंदर को प्रदूषित कर रहा है। अभी-अभी एक वैज्ञानिक हिसाब सामने आया था कि कितने बरस बाद समंदर में वहां के प्राणियों से अधिक प्लास्टिक हो जाएगा। 

केरल की तो एक छोटी सी बात थी जहां से हमने लिखना शुरू किया था, लेकिन सच यह है कि कुदरत से लड़ते हुए बारिश के बीच किसी पहाड़ी एयरपोर्ट के छोटे से रनवे पर विमान उतारने का ऐसा दुस्साहस कानूनी रूप से बंद कर देना चाहिए। अधिक से अधिक क्या होता, कुछ सौ किलोमीटर के किसी सुरक्षित एयरपोर्ट पर प्लेन उतारा जाता, और वहां से लोग कुछ घंटों में अपने घर पहुंच जाते। कुदरत की ताकत, उसकी विकरालता, और उसके बेकाबू मिजाज को लेकर इंसानों को बहुत आजादी नहीं लेनी चाहिए। 

हिन्दुस्तान का सारा मौसम विज्ञान, और सारी अंतरिक्ष मौसम प्रणाली, भूकंप नापने की मशीनें, और हिन्दुस्तान के विश्व विख्यात संस्थानों के जानकार लोग मिलकर भी उत्तराखंड की तबाही का अंदाज नहीं लगा पाए थे। अब धरती को छेडऩे, कोंचने का जो काम चल रहा है, वह भी आगे-पीछे किसी दिन आत्मघाती साबित होगा। हाल के बरसों में हिन्दुस्तान में पर्यावरण तो किसी भी किस्म की प्राथमिकता से हटाकर कचरे की टोकरी में फेंक दिया गया है क्योंकि कारखानेदारों को पर्यावरण नाम की सावधानी से परहेज है। अभी-अभी पिछले कुछ महीनों में पर्यावरण के मुद्दे उठाने वाले लोगों के खिलाफ कई किस्म की कार्रवाई भी की गई है। हिन्दुस्तान को इतनी समझदारी की जरूरत है कि यह मौसम की जैसी बुरी मार से हर बरस गुजर रहा है, उसे और लापरवाह होने की इजाजत नहीं लेनी चाहिए, और अधिक चौकन्ना होना चाहिए। असम से लेकर बिहार तक जिस किस्म की बाढ़ से हर बरस देश की एक बड़ी आबादी घिर जाती है, बेदखल हो जाती है, उसे देखते हुए ही पर्यावरण को तबाह करने वाले फैसले थमना चाहिए, उन्हें पलटना चाहिए। इन बातों का केरल के कल के हादसे से अधिक लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों में एयरपोर्ट बनाना, इतने प्रतिकूल मौसम में उड़ानों को जारी रखना, इतनी विकराल बाढ़ के बावजूद उसके आसपास इंसानी बसाहट करना किसी भी किस्म से समझदारी नहीं है, और यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। लोग कुदरत और धरती दोनों को अपने अंदाज जितना ही मानकर चलते हैं, और इन दोनों ने बार-बार यह साबित किया है कि इनकी नाराजगी जब होती है, तो उसकी कोई सीमा नहीं रहती है। यह वक्त आज चारों तरफ विकास के नाम पर कुदरत और धरती के विनाश के चल रहे सिलसिले को थामने का है, वरना धरती को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा कि उस पर से कुछ करोड़ लोग घट जाएं। आज कोरोना के चलते हुए ही हो सकता है कि कुछ करोड़ लोग पॉजिटिव होकर मरें, और कई करोड़ लोग इसकी वजह से आगे चलकर दूसरी बीमारियों से मरें। हिन्दुस्तान जैसे देश को पर्यावरण को अनदेखा करके अपनी आने वाली पीढिय़ों के नाम जानलेवा खतरे की एक विरासत नहीं छोडऩी चाहिए। समझदारी की बात तो यह है कि यह धरती इंसानों को बस जीने के लिए मिली है, और इसे तबाह किए बिना अपनी अगली पीढ़ी को देने के लिए मिली है, यह धरती इंसानों की किसी पीढ़ी को तबाह करने के लिए नहीं मिली है। हिन्दुस्तान में आज ठीक यही हो रहा है, और फैसले लेने वाले नेता और अफसर बेफिक्र हैं कि जिस दिन तोहमत की नौबत आएगी, वे तो धरती पर रहेंगे नहीं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

 

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