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अब कौन सुनाएगा - ‘किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है’
12-Aug-2020 10:23 AM
अब कौन सुनाएगा - ‘किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है’

-शुभम उपाध्याय

कहते हैं कि गोपालदास नीरज जब सार्वजनिक मंचों पर कविता पाठ किया करते थे तो युवाओं के दिल की धड़कनें तेज हो जाती थीं. आज जो हमारी मां हैं मौसी हैं, वे उन दिनों को याद करके खिल उठती हैं जब उनके कॉलेज के मुक्ताकाश मंच पर गोपालदास नीरज अपनी अलहदा अदा में गीत और कविताएं सुनाया करते थे. यह उन दिनों की बात है जब उनके बाल सफेद नहीं हुए थे और वे अपनी मशहूरियत के शिखर पर थे. वे ‘फूलों के रंग से, दिल की कलम से’ जैसे अपने फिल्मी गीत कविता की रवानगी में सुनाते थे और ‘कारवां गुजर गया’ जैसी अपनी कविताएं गीतों की तरह स्वरबद्ध करके महफिलें लूटा करते थे.

आधुनिक दौर की शेरो-शायरी की दुनिया में ऐसे कई कवि और शायर हुए हैं जिन्होंने सार्वजनिक मंचों पर अपनी शायरी अपनी कविता सुनाने के तरीके से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया. किसी कवि या शायर का लिखा हुआ पढ़ना और उसका पढ़ा हुआ सुनना अलग-अलग असर रखते हैं. गुलजार अपनी नज्में सुना दें तो उनकी इमेजरी में चार-चांद लग जाते हैं और मुनव्वर राणा किसी मुशायरे में मां से जुड़ी अपनी किसी गजल में भावुकता भर दें तो वह गजल हमारे जेहन में उस आवाज के साथ सालों-साल जिंदा रह जाती है.

 

राहत इंदौरी साहब इसी लीक के शायर थे. उनको सिर्फ पढ़ कर आप जितना उनकी शायरी के करीब जा सकते हैं उससे कई गुना ज्यादा उनको सुनकर आप उनकी गजलों से इश्क फरमा सकते हैं. आज से कुछ दस-बारह बरस पहले जब पहली बार उन्हें खचाखच भरे कवि सम्मेलन में एक मुक्ताकाश मंच पर सुनने का सौभाग्य मिला था, तो मिलेनियल की शब्दावली में कहें तो वे ‘रॉकस्टार शायर’ प्रतीत हुए थे. पारंपरिक तरीके से गजलें पढ़ने वाले मुकम्मल शायरों से दूर उनके अंदाज में कुछ ऐसी बेफिक्री थी जो कि अक्सर पश्चिम के ‘रेबल’ रॉकस्टारों में नजर आती रही है.

सादी-सी शर्ट के ऊपर एक काला कोट जो मालूम होता था कि कई महीनों पहले ड्रायक्लीन हुआ होगा. सफेद होने की तैयारी में लगे हुए बिखरे काले बाल जिनके लिए राहत साहब की उंगलियां ही कंघी थीं. चमड़े की चप्पलें जिनमें न जाने कब आखिरी बार काली पॉलिश हुई होगी. सजे-धजे समकालीन शायरों के बीच उनके इस फक्कड़ मिजाज में आंखों को भाने वाली फकीरी थी, जो बाद में लगातार उनके मुशायरों में शिरकत करके समझ आयी कि असली है. अन्याय की मुखालफत करने वाले एक निडर आवामी शायर की पोयट्री जितनी ही ईमानदार.

 

फिर उनका आसमान की तरफ हाथ उठाकर शायरी पढ़ना! यह अंदाज कुछ ऐसा था कि शास्त्रीय गायकों की महफिल में जैसे कोई बिना संगीत सीखा किशोर कुमार आ जाए, और अपने खिलंदड़ अंदाज और शास्त्रीयता का विलोम साबित होने वाली मुरकियों से सुनने वालों के कान शहद से भर दे. कुमार विश्वास से पहले वाले युग में जब हमारे यहां कवि सम्मेलन और मुशायरे हुआ करते थे तो उनमें गोपालदास नीरज भी शिरकत करते थे और बशीर बद्र भी. मुन्नवर राणा मौजूद रहते थे तो हास्य कवि अशोक चक्रधर और ओम व्यास भी. कोई किसी पर हावी नहीं रहता था और सभी को श्रोता बराबर से सराहते थे. लेकिन तब भी राहत इंदौरी की बात अलग थी! उनका गजल सुनाने का तरीका अपने सभी वरिष्ठ और समकालीन शायरों से मुख्तलिफ था. इतना ज्यादा अलग कि जैसे वे शायरी सुनाते-सुनाते किसी से आसमान में बातें करने लग जाते थे. ये ‘किसी से’ किसी के लिए खुदा हो सकता है, किसी के लिए सूफी संतों की परंपरा वाला आध्यात्म और किसी के लिए स्टेज परफॉर्मेंस यानी कि अदाकारी. मगर सुनने में तो वह जादू था - प्योर मैजिक!

उनके एक शेर पर गौर फरमाइए – ‘सोचता हूं सबकी पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए, सोचता हूं कोई अखबार निकाला जाए....आसमां ही नहीं एक चांद भी रहता है यहां, भूल कर भी कभी पत्थर न उछाला जाए.’ अब नीचे दिए वीडियो में इन अशआर से जुड़े राहत साहब के ‘एक्सप्रेशन्स’ सुनिए और देखिए. यही उनकी गजलों को उनकी जवानी के दिनों से ही यादगार बनाते आए हैं.

 

तो ये तो थे वे राहत इंदौरी साहब जिनके बाल सारे सफेद हो चुके थे. एक राहत इंदौरी वे भी थे जिनके बाल काले थे और अथाह ऊर्जा और शायरी पढ़ने के गैर पारंपरिक तरीके से उन्होंने कवि सम्मेलनों और मुशायरों की दुनिया में तहलका मचाया था. उनकी एक बड़ी मकबूल गजल है जिसे आज की युवा पीढ़ी शायद कम जानती है – ‘उसकी कत्थई आंखों में है जंतर-मंतर सब, चाकू-वाकू, छुरियां-वुरियां, खंजर-वंजर सब/ जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे रूठे हैं, चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब.’ मोहब्बत पर लिखी इस गजल को कहने में राहत साहब ने न सिर्फ गैर पारंपरिक शब्दों का चुनाव किया था (चाकू-वाकू, छुरियां-वुरियां, कपड़े-वपड़े, जेवर-वेवर), बल्कि कवि सम्मेलनों और मुशायरों में इसे पढ़ने का उनका अलहदा अंदाज भी सुनने वालों के लिए एक यादगार अनुभव बन जाता था. नीचे दिया एक बहुत पुराना वीडियो देखिए, ऑडियो में खराश जरूर है, लेकिन राहत इंदौरी के लंबे सफर से नावाकिफ रहने वालों को पता चलेगा कि आखिर वे क्या शख्सियत थे!

गजल से अलग होकर भी राहत इंदौरी के कई शेरों ने मकबूलियत पाई है. खुद की पहचान बनाई है:

‘झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो, सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो’

‘आप हिंदू मैं मुसलमान ये ईसाई वो सिख, यार छोड़ो ये सियासत है चलो इश्क करें’

‘सरहदों पर बहुत तनाव है क्या/ कुछ पता तो करो चुनाव है क्या’

 

फिर एक तरह से हमारे जीवन का दर्शन साबित होने वाली एक गजल है जिसका बेइंतिहा खूबसूरत मतला है, ‘उंगलियां यूं न सब पर उठाया करो, खर्च करने से पहले कमाया करो/ जिंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगो, बारिशों में पतंगें उड़ाया करो’

एक और शेर है, जो उनके लिए हमारे इस वक्त की पीड़ा को जाहिर करता है, ‘मैं जब मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना’.

हमारे मौजूदा वक्त ने उनके शेर को मीम में भी बदला (‘बुलाती है मगर जाने का नहीं’) और उनके शेरों ने सत्ता के खिलाफ निकले जुलूसों में भी तख्तियों से लेकर जुबानों तक पर जगह पाई (‘किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है’). 1950 में एक मिल मजदूर के यहां इंदौर में पैदा हुए राहत इंदौरी उर्दू साहित्य में एमए और पीएचडी थे और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब के मुखर समर्थक भी. इमरजेंसी के वक्त सरकार का विरोध करने से लेकर वे मौजूदा निजाम की निगरानी में भी अपनी बात कहने से हिचकिचाते नहीं थे. आवाम का शायर होना आसान नहीं होता और दरबारी कवियों तथा शायरों के इस युग में राहत इंदौरी ने अपनी उसी आवामी शायर वाली धार को बनाए रखा था. एक गजल भले ही पुरानी हो, लेकिन उसे बेहद शिद्द्त के साथ बार-बार लगातार इतनी बार अनेकों मंचों से उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को सच में प्यार करने वाले हर शख्स के दिल में उनके इन शब्दों ने जगह बनाई – ‘सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है’.(satyagrah)

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