संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आजादी की सालगिरह हर बरस याद दिलाती है कि क्या-क्या आजाद नहीं!
14-Aug-2020 3:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आजादी की सालगिरह  हर बरस याद दिलाती है  कि क्या-क्या आजाद नहीं!

आज जब बाकी दुनिया के साथ-साथ खतरे में जुटा हुआ, आशंका से घिरा हुआ, और सहमा हुआ हिन्दुस्तान अपनी आजादी की सालगिरह मनाने जा रहा है, तो इसके ठीक पहले आज की एक खबर मानो यह साबित करने के लिए आई कि आजादी किनके लिए नहीं है। दिल्ली की खबर है कि वहां महिला आयोग ने पुलिस के साथ मिलकर ढाई महीना की एक बच्ची को बरामद किया है जो पिछले कुछ महीनों में चार बार बिक चुकी है। अमनप्रीत नाम के एक आदमी ने तीसरी बेटी होने पर इसे 40 हजार रूपए में बेच दिया था, और उसके बाद बच्ची एक ग्राहक से दूसरे ग्राहक के पास चार बार बिक गई। 

कल इसी वक्त जिस दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपना पांचवां या छठवां भाषण देंगे, उस दिल्ली का यह मामला दिल दहला देता है। आज जब लोग अपने बच्चों को कलेजे से लगाए घर बैठे हैं वे कहीं कोरोना की पकड़ में न आ जाएं, तब ढाई महीने की यह बच्ची एक सामान की तरह आगे, और आगे बिकती चली गई!

अब आजादी की पौन सदी के करीब यह लगता है कि देश में कौन-कौन आजाद नहीं हैं? लड़कियां तो बिल्कुल आजाद नहीं हैं कि वे लडक़ों के इंतजार में पैदा की जाती हैं, या पैदा होने के पहले मार डाली जाती हैं, या पैदा होने के बाद बेच दी जाती है, या घर पर भूखी रह जाती हैं, बिना पढ़ाई रह जाती हैं। महिलाएं भी बिल्कुल आजाद नहीं है जिनकी कोख से जन्मी बच्ची को बाप इस तरह बेच दे रहा है, और वह शायद अपनी बची दो बच्चियों को किसी तरह बचाकर घर पर चुप बैठी होगी।

इस देश की आजादी ने इतने दशकों में बच्चियों और महिलाओं को कोई हिफाजत नहीं दी। इसने धार्मिक अल्पसंख्यकों के सिर पर से खतरे उठाने में कामयाबी हासिल की भी थी, तो वह कामयाबी हाल के बरसों में मिट्टी में मिल गई। आम लोगों को काफी हद तक मन की बात कहने का हक हिन्दुस्तान में मिला हुआ था, लेकिन अब इस हक के लिए उनका प्रधानमंत्री होना जरूरी कर दिया गया है। बाकी लोगों के खिलाफ मन की कोई लोकतांत्रिक बात भी सामने आने पर उन्हें जेल भेजने का इंतजाम सरकारें अपनी-अपनी मर्जी से कर रही हैं। 
लोगों को जो आजादी मिली है, वह भी सामने है। हाल के महीनों में यह आजादी खुलकर सामने आई जब महानगरों और कारखाना-शहरों से अपने गांव लौटते मजदूरों को पैदल-सफर करने की पूरी आजादी मिली। उन्हें रात-दिन पैदल चलने से किसी ने नहीं रोका, बल्कि कई लोगों को तो आजादी की इतनी छूट मिली कि वे अपने बीमार मां-बाप या बीमार बीवी-बच्चों को भी लादकर हजारों किलोमीटर चलते हुए आए, लेकिन राह में उन्हें किसी ने नहीं रोका। इतनी आजादी भला किसे मिलती है, कोई और विकसित देश होता तो ऐसे इंसानों को ओवरलोड गाड़ी के दर्जे में गिनकर उनका चालान कर दिया जाता, लेकिन हिन्दुस्तान की सरकार ने, यहां के सूबों की सरकारों ने देश-प्रदेश की जनता को पूरी आजादी दी। हालांकि यूपी-बिहार जैसे कुछ प्रदेश ऐसे भी रहे जिन्होंने लौट रहे मजदूरों को सूबे की सरहद पर पीटा कि अभी तो स्वतंत्रता दिवस खासा दूर है, और अभी से इतनी आजादी क्यों ले रहे हैं? 

आजादी की सालगिरह पल-पल याद दिलाती है कि आजादी कहां-कहां खत्म हो रही है। अब कल की ही बात है, एक टीवी चैनल पर एक हिन्दू आदमी तिलक लगाकर चले गया, तो उस पर एक विरोधी हिन्दू पार्टी के विशाल-तिलकधारी प्रवक्ता ने इतने हमले किए, इतने हमले किए कि वह मर गया। अब 70 बरस के बाद भी अगर तिलक की आजादी नहीं मिल पाई है, एक हिन्दू को भी तिलक लगाने पर गालियां मिल रही हैं, तो फिर धार्मिक आजादी किसे और कैसे मिलेगी? 

भारतमाता की रक्षा करने के लिए जो फौजी बड़ी-बड़ी कसमें खाते हैं, मूंछों पर ताव देते हैं, ऐसे एक रिटायर्ड फौजी जनरल वाईडस्क्रीन टीवी की स्क्रीन से भी चौड़ी मूंछों के साथ टीवी स्टूडियो में बैठे थूक के साथ जंग के फतवे छिडक़ते हुए नफरत की आग लगाने के लिए जाने जाते हैं। और जब किसी दूसरे की बात से असहमत हुए, तो लाईव टेलीकास्ट पर ही उसे मां की गाली देने लगे। अब सवाल यह है कि उस दूसरे की मां भारतमाता से किस तरह अलग हुई? और अगर यह फौजी जनरल रिटायर होने के बाद भी देश की महिलाओं की इज्जत नहीं सीख पाया, तो वह भारतमाता की हिफाजत क्या खाकर करेगा? तो इस देश को आजादी के सात दशक पूरे करने के बाद भी मां की गाली से आजादी नहीं मिली जो कि इस देश की सबसे अधिक लोकप्रिय गाली है। इसके बाद परिवार की दूसरी लड़कियों के लिए भी गालियां बनाई गई हैं, और वही वजह है कि तीसरी बेटी होते ही उसे बेच देने का हौसला हो जाता है। अब जाहिर है कि एक परिवार अपने कितने सदस्यों के लिए दुनिया से रिटायर्ड फौजियों से, मां-बहन की गालियां झेल सकता है? यहां एक बच्ची की हिफाजत करना मुश्किल है, जहां बलात्कारियों को बचाने के लिए डंडों पर तिरंगे झंडे सजाकर लोग निकल पड़ते हैं, वहां लडक़ी को पालना कुछ खतरे की बात तो है ही। फिर गरीब बाप अपने मन की बात किसे सुनाए, तो उसने बेटी को आगे बेचकर हाथ धो लिए, और शायद वह चौथी संतान बेटा होने की कोशिश में जुट भी चुका होगा। 

अदम गोंडवी ने लिखा था- सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है? आजादी की सालगिरह यह याद दिलाती है कि उसे हासिल करने वाले लोगों की लाश गिराने के बाद अब उनकी इज्जत को भी गोलियों से भूनकर गिराया जा रहा है। और जिसने उनकी देह को गोलियां मारकर गिराया था, उसके मंदिर बनाए जा रहे हैं। तो यह किस तरह की आजादी है? अगर आजादी का जलसा नहीं होने वाला रहता, तो शायद ये बातें नहीं खटकतीं, लेकिन चूंकि आजादी-आजादी चारों तरफ हवा में है, तो जाहिर है कि ऐसे में ही तो वे तबके सबसे पहले दिखेंगे जिन्हें आजादी नहीं है। कश्मीर में आजादी को सस्पेंड किए एक पूरा बरस हो गया है, लेकिन बाकी हिन्दुस्तान में धरती की जन्नत कहे जाने वाले इस कश्मीर के इन हालातों पर चर्चा करने वाले कितने हैं? जितने लोग सैलानी होकर कश्मीर हो आए हैं, और कश्मीरी पोशाक पहनकर तस्वीरें खिंचवा लाए हैं, उनके एक फीसदी लोग भी कश्मीर को लेकर एक भी सवाल नहीं करते। कश्मीर से बेदखल कश्मीरी पंडित उनके मुद्दे को सबसे तल्खी से उठाने वाली भाजपा की अटल सरकार के छह बरस पहले देख चुके, और अब मोदी सरकार के छह बरस देख रहे हैं, और अब भी वे कश्मीर को दूर से देख रहे हैं, वे शायद जाकर अपने घर, अपनी जमीन को भी देखने की हालत में इन दो सरकारों के इन बारह बरसों में नहीं आए हैं। ये दो अलग-अलग तबके हैं, दशकों पहले कश्मीर से बेदखल पंडित, और आज कश्मीर में बाकी बचे तकरीबन तमाम मुस्लिम, इन दोनों की आजादी का सवाल भी इस मौके पर याद पड़ता है। 

हिन्दुस्तान की जिन दलितों ने हिन्दू धर्म से आधी सदी पहले आजादी हासिल की, और बौद्ध हो गए, उन्हें आज भी हिन्दुस्तानी समाज के भीतर दबंग हिन्दुओं की गुंडागर्दी से कोई आजादी नहीं मिल पाई है। आए दिन दलितों की लड़कियों से बलात्कार होते हैं, उन्हें जूतों से पीटा जाता है, उनके मुंह में पेशाब की जाती है, उनका कत्ल किया जाता है, और इस मुल्क का सुप्रीम कोर्ट इन दलितों की ऐसी गुलामी को देखने के बजाय एक-एक जायज ट्वीट में अपनी बेइज्जती ढूंढते बैठा है। अगर जज की बेइज्जती एक काबिल वकील के एक ट्वीट से हो रही है, तो जिस जाति की लड़कियों से रेप हो रहे हैं, जिन लोगों को सडक़ों पर मार-मारकर मार डाला जा रहा है, वह क्या हो रहा है? मरे जानवरों की खाल उतारने वाले एक दलित को पीट-पीटकर मार डालने से उसकी जो बेइज्जती होती है, क्या उससे भी अधिक बेइज्जती सुप्रीम कोर्ट की हो रही है जो कि बड़ा चौकन्ना होकर एक-एक ट्वीट पढ़ रहा है। यह समझने की जरूरत है इस देश में किसको क्या आजादी है, और कौन किसके गुलाम हैं? कानून की देवी जिस सुप्रीम कोर्ट के गुलाम की तरह जी रही है, उस सुप्रीम कोर्ट को पूरे हिन्दुस्तान से अपने आपको काटकर, महज अपनी इज्जत की आजादी सुहा रही है? क्या यही मुल्क की आजादी है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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