विचार / लेख
रवि अरोरा
साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हजार किन्नर थे। उनमें से भी 28 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से ऑपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है।
पाकिस्तान की मशहूर फिल्म है- बोल। इस फि़ल्म में एक हकीम के यहाँ पाँच बेटियों के बाद एक और बच्चा पैदा होता है मगर दुर्भाग्य से वह हिजड़ा यानि किन्नर है। यह बात हिजड़ों के गुरु को पता चलती है और वह उस बच्चे को लेने हकीम के पास आता है और बेहद ख़ूबसूरती से कहता है कि जनाब गलती से हमारी एक चि_ी आपके पते पर आ गई है, बराए मेहरबानी आप हमें वह लौटा दें।
हकीम बच्चा गुरु को नहीं देता और डाँट कर भगा देता है। हकीम उस बच्चे को बेटे की तरह पालता है मगर कुदरत अपना काम करती है। बच्चा बड़ा होता है और उसकी शारीरिक संरचना और हाव भाव से जाहिर होने लगता है कि वह पुरुष नहीं ट्रांसजेंडर है। इस पर लोक लाज के चलते हकीम अपने उस बेटे का कत्ल कर देता है और बाद में हकीम की ही बड़ी बेटी उसकी भी हत्या कर देती है।
हालाँकि यह फिल्म किन्नरों पर न होकर समाज में महिलाओं की विषम परिस्थितियों पर है मगर किन्नर वाला विषय भी इस फिल्म में बेहद संजीदगी से चला आता है। मेरा दावा है कि इस फिल्म को देखने के बाद आपको किन्नरों से प्यार हो जाएगा और यदि नहीं भी हुआ तब भी किन्नरों को लेकर आपके मन में जमी बर्फ जरूर कुछ पिघलेगा। आज अखबार में एक अच्छी पढ़ी कि प्रदेश की योगी सरकार ने राजस्व संहिता विधेयक के जरिये ट्रांसजेंडर को भी परिवार का सदस्य माना है और पारिवारिक सम्पत्ति में भी उनको अधिकार दे दिया है। इस खबर को पढऩे के बाद आज बोल फिल्म बहुत याद आई ।
यह बात समझ में नहीं आती कि जिन तीसरे लिंग वाले लोगों का जिक्र रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में बड़े सम्मान से किया गया हो, बाद में उनका यह हश्र कैसे हो गया कि सदियों तक उनकी खैर-खबर भी किसी ने नहीं ली? ऐसा कैसे हुआ कि राजा-महाराजा, बादशाह और नवाबों के हरम की रखवाली जैसा महत्वपूर्ण काम जिन्हें मिला हुआ था उन्हें अब नाच-गाकर अथवा सडक़ों पर भीख माँग कर गुजारा करना पड़ता है? शायद यह कुरीति भी अंग्रेजों की देन हो। वही तो इन्हें अपराधी, समलैंगिक, भिखारी और अप्राकृतिक वेश्याओं के रूप में चिन्हित करते थे। पुलिस के मन में किन्नरों के प्रति नफरत का बीज भी शायद अंग्रेज ही बो गए थे। शुक्र है कि अब पिछले कुछ दशकों में तमाम सरकारें और अदालतें किन्नरों के प्रति संवेदनशील हो गई हैं और एक के बाद एक किन्नरों के हित में आदेश पारित हो रहे हैं। अवसर मिलना शुरू हुआ है तो किन्नरों ने भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके दिखाया है।
आज किन्नर जज, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, शास्त्रीय गायक और लेखक भी बन रहे हैं। कई किन्नर उच्च पदों तक भी पहुँच गए हैं। अन्य सरकारी नौकरियों के साथ साथ बीएसएफ, सीआरपीएफ और आईटीबीटी जैसे सुरक्षा बलों में भी अब केंद्र सरकार इनकी भर्ती शुरू करने जा रही है। जाहिर है कि समाज का थोड़ा बहुत नजरिया बदलने भर से ही यह संभव हुआ है ।
कहते हैं कि भारतीय समाज में सुधारों की गति सदा से ही बेहद धीमी रही है। अब देखिये न कि सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ही किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए उनके लिये देश भर में अलग से वॉश रूप बनाने के आदेश दिए थे मगर आज तक केवल एक एसा पेशाब घर मैसूर में ही बन सका है। किन्नरों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने का आदेश बेशक अब पारित हो गया है मगर भारतीय समाज में जब आज तक महिलाओं को ही बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिली तो एसे में किन्नरों को उनका हक मिलेगा, यह उम्मीद कैसे की जा सकती है।
साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हजार किन्नर थे। उनमें से भी 28 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से ऑपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है। यह काम अन्य राज्य भी करें तो न जाने कितने परिवार बोल फिल्म की तरह बिखरने से बच जायें । कैसी विडम्बना है कि दूसरों को जम कर दुआएँ देने वालों को ख़ुद दुआ देने वालों का बेहद टोटा है।