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विदेश मंत्री जयशंकर ने जो खामियां गिनाई हैं, उन्हें दुरुस्त करने से आखिर कौन रोक रहा है ?
16-Sep-2020 6:56 PM
विदेश मंत्री जयशंकर ने जो खामियां  गिनाई हैं, उन्हें दुरुस्त करने से आखिर कौन रोक रहा है ?

आकार पटेल

पूर्व में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम जो कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इन्हें दुरुस्त करने से कौन रोक रहा है।

भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर एक ऐसे परिवार से आते हैं जिसमें कई विद्धान हुए। उनके पिता के सुब्रह्मण्यम प्रसिद्ध थिंक टैंक आईडीएसए के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सलाहकार थे। देश के न्यूक्लियर कार्यक्रम को हथियारबंद करने और बांग्लादेश में सैन्य दखल देने के मामलों में सुब्रह्मण्यम का भी दखल था।

सुब्रह्मण्यम के दूसरे पुत्र और एस जयशंकर के भाई संजय प्राचीन भारतीय इतिहास पर दुनिया के मशहूर विद्धानों में से एक हैं। उन्होंने सूरत (मेरे गृहनगर) के कारोबार और दक्षिण भारत के साथ ही वास्को डा गामा पर भी किताबें लिखी हैं।

मेरे कहने का अर्थ यह है कि डॉक्टर एस जयशंकर (वह पीएचडी हैं) की पृष्ठभूमि वैसी नहीं है जैसी कि मोदी सरकार के और मंत्रियों की है। एस जयशंकर की हाल ही में एक किताब आई है जिसमें उन्होंने कहा है कि तीन ऐसी बातें हैं जिन्होंने देश की विदेश नीति पर बुरा प्रभाव डाला है। पहला है विभाजन, जिससे देश का आकार छोटा हो गया और इससे चीन को हमारे मुकाबले ज्यादा अहमियत मिलने लगी। दूसरा है आर्थिक सुधारों को लागू करने में 1991 तक की देरी, क्योंकि अगर यह सुधार पहले आ गए होते तो हम बहुत पहले एक धनी राष्ट्र बन गए होते। और तीसरा है परमाणु हथियार चुनने में देरी करना। उन्होंने इन तीनों को एक बड़ा बोझ बताया है।

एस जयशंकर जो बाते कह रहे हैं इसके क्या अर्थ निकाले जाएं?

हमें दो अलग-अलग बातों को अलग तरीके से देखना होगा। सबसे पहले देखना होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं, सत्य है या नहीं। भारत के विभाजन से इसके आकार में निश्तित रूप से कमी आई और अगर ऐसा नहीं होता तो भौगोलिक तौर पर हम बहुत बड़े देश होते, जिसका विस्तान बर्मा से लेकर इरान तक होता और हमारी आबादी 1.7 अरब के आसपास होती। इससे आर्थिक तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, न ही प्रति व्यक्ति आय या उत्पादकता या किसी अन्य तरह से कोई फर्क पड़ता। पूरा दक्षिण एशिया एक साथ ही विकसित हुआ है। ब्रिटिश काल में भारत का हिस्सा रहे ये तीनों ही देश न तो विकसित देश बन पाए और न ही बाकी दूसरे देश विकासशील बन सके। पाकिस्तान और बांग्लादेश का दौरा करने पर हकीकत सामने आ जाएगी और हालात भारत के ज्यादातर जगहों की तरह ही नजर आएंगे।

दूसरी बात है आर्थिक सुधारों को लागू करने में देरी। एस जयशंकर अर्थशास्त्री तो हैं नहीं, तो यह उनका विषय नहीं है। ऐसे में उनकी बात को सत्य मानने में थोड़ी एहतियात बरतनी होगी। नेहरू के समय की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता बहुत ज्यादा नहीं थी। हर जगह, खासतौर से भारी उद्योगों के क्षेत्र में सरकारी पूंजी की जरूरत थी। और अगर इसमें सरकारी पूंजी, जिसे हम यूं ही अपना मान लेते हैं. मसलन उच्च शिक्षा आदि के क्षेत्र, का निवेश नहीं हुआ होता तो जाने क्या होता।

हम निजीकरण के कितने ही भजन गा लें, लेकिन आईआईटी और आईआईएम का कोई निजी विकल्प हो ही नहीं सकता। लेकिन यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि इंदिरा गांधी के दौर का लाइसेंस राज सही था। इसलिए एक तरह से आर्थिक सुधारों में देरी के जयशंकर के तर्क को हम हां कह सकते हैं।

तीसरी बात है परमाणु हथियारों का विकल्प, जिसका पहली बार मई 1974 में परीक्षण किया गया। भारत ने परमाणु बम बनाकर धमाका कर दिया था। वैसे यह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों के पास ऐसी क्षमता थी, लेकिन उन्होंने परीक्षण नहीं किया। इससे जुड़ी एक बात यह भी है कि भारत ने परमामणु बम बनाकर अपने अंतरराष्ट्रीय वादों का उल्लंघन किया था। परमाणु बम बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला जरूरी मटीरियल कनाडा से आया था, जिससे हमने वादा किया था कि इसका इस्तेमाल हम सिर्फ शांतिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल होने वाली परमाणु तकनीक में करेंगे। इंदिरा गांधी ने कहा था कि 1974 का परमाणु परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था।

हमारे पास अब बीते 45 साल से ये हथियार हैं। इससे हमें क्या फायदा मिला? हम इसका पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल नहीं कर सकते, भले ही हम बीते तीन दशक से कह रहे हैं कि वह आतंकवाद फैलाता है। हम इसका चीन के खिलाफ भी इस्तेमाल नहं कर सकते, जो कि हमारी सीमा में घुस आया है। इस पर बहस हो सकती है कि आखिर इन हथियारों को विकसित करके हमें क्या मिला।

जयशंकर ने इन तीनों को एक बोझ बताते हुए इसका जिम्मेदार कांग्रेस को ठहरा दिया है। आइए देखते हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने इन तीनों पर क्या किया और क्या कर रह है। भारत का विभाजन भले ही हो गया, लेकिन पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही हमारे पड़ोसी हैं। वे किसी अफ्रीकी देश में नहीं चले गए हैं। आखिर पूरे उपमहाद्वीप को व्यापार और ट्रैवल के जरिए एकजुट करने से भारत को कौन रोक रहा है। यह हमारा राष्ट्रवाद है। नेपाल के साथ तो बिना वीजा के आना-जाना हम कर सकते हैं लेकिन बांग्लादेश के साथ नहीं। क्यों? अगर हम तय कर लें तो हम वीजा मुक्त यात्रा शुरु कर दक्षिण एशिया को एकजुट कर सकते हैं। लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं चाहती।

आर्थिक उदारवाद को लेकर जयशंकर की राय एकदम गलत है। बीजेपी के शासन में भारती का आर्थिक विकास जनवरी 2018 से लगातार नीचे जा रहा है। ऐसा सरकार के आंकड़ों से ही सामने आया है। यानी बीते 6 वर्षों में से ढाई वर्ष तक देश के विकास की रफ्तार में कमी आई है। ऐसा तो समाजवाद या लाइसेंस राज में भी नहीं हुआ था। और इस साल तो अर्थव्यवस्था में ऐसी सिकुडऩ होने वाली है जो ऐतिहासिक है। सिर्फ उदारवाद का अर्थ ही आर्थिक विकास नहीं होता है।

जयशंकर तीनों मुद्दों पर जो भी कह रहे हैं वह मुद्दों का बेहद सरलीकरण है। पूर्व में या बीते दशकों में क्या हुआ, बहुत ज्यादा अहम नहीं है। और अगर हम ऐसा मानते हैं कि इसकी बहुत ज्यादा अहमियत है तो इसका अर्थ यह है कि हम आज जो कुछ कर रहे हैं उसमें खामियां है और हम बहाने तलाश रहे हैं। अगर जयशंकर ने जो कुछ कहा है वह सही है तो फिर इस सरकार को कौन रोक रहा है इन्हें दुरुस्त करने से। उनकी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में किसी और किताब में वे ऐसा लिखें।(navjivanindia.com)

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