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नरेंद्र मोदी का लोकप्रिय होना हर मर्ज़ की दवाई नहीं
17-Sep-2020 9:21 AM
नरेंद्र मोदी का लोकप्रिय होना हर मर्ज़ की दवाई नहीं

- अंकुर जैन

भारतीय राजनीति में रिटायरमेंट की कोई उम्र नहीं होती. लेकिन अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 70 बरस के हो गए हैं तो सभी निगाहें इस पर होंगी कि वो यहां से आगे क्या रुख़ लेंगे और उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.

अगले कुछ वर्ष पीएम मोदी की विरासत के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने नेताओं के लिए स्वैच्छिक सेनानिवृति की उम्र 75 वर्ष तय की है. इसका मतलब ये है कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अभी पाँच वर्ष और हैं. पीएम मोदी के पास साल 2024 के आम चुनाव के पहले भी चार साल हैं.

लेकिन 70 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री के सपनों के समक्ष तीन महत्वपूर्ण चीज़ें हैं: अर्थव्यवस्था, विदेश नीति और उनकी राजनीतिक शैली.

नरेंद्र मोदी शासन के बीते छह सालों के दौरान उनके विरोधियों में उनके प्रति असंतोष और बढ़ा है, भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है, सत्ता का ध्रुवीकरण और केंद्रीकरण हुआ है.

हालांकि बहुत से लोग पीएम मोदी शासन करने की शैली का समर्थन करते हुए ये मानते हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार को काबू में करने की कोशिश की है, जिसकी वजह से सरकारी मदद का लाभ ग़रीबों और असहाय लोगों तक पहुंच रहा है.

अमरीकी चुनाव पर निगाहें

वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनी सैनिकों के जमावड़े के मद्देनज़र पीएम मोदी की असली परीक्षा उनकी विदेश नीति होगी.

साल 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी और शी ज़िनपिंग 18 बार मिले चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि यह रिश्ता 'हैंडशेक' से आगे नहीं बढ़ पाया.

बीजेपी की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के सदस्य शेषाद्री चारी कहते हैं कि प्रधानमंत्री को 'ऑउट ऑफ़ द बॉक्स' (लीक से हटकर) सोचना होगा, विदेशी व्यापार पर फिर से बातचीत करनी होगी, उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था के साथ संतुलन के लिए नई रणनीति बनानी होगी और उन्हें ये सब भारत की सामरिक स्वायत्तता को प्रभावित किए बगैर करना होगा.

विदेश नीति के विशेषज्ञ और संघ प्रचारक चारी का मानना है कि कोरोना वायरस महामारी के बाद प्रधानमंत्री के सामने विदेश नीति को लेकर कई चुनौतियां हैं.

वो कहते हैं, "2014 से ही प्रधानमंत्री ने 'नेबरहुड फर्स्ट' की विदेश नीति को तरजीह दी है. लेकिन छह साल बाद बदलती हुई ' जियो पॉलिटिक्स' से नई चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं. अमरीकी चुनाव के नतीजे, चीन के साथ अमरीका के व्यापार, भारत के ईरान के साथ रिश्ते और रूस से हमारा रक्षा आयात तय करेंगे. इन सब से ऊपर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा और आर्थिक विषमता को कम करने के लिए इस क्षेत्र के देशों के साथ हमारा व्यापार भी अमरीकी चुनाव से ही जुड़ा है."

इन चुनौतियों के लिए तैयार रहें प्रधानमंत्री

अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' में राष्ट्रीय और कूटनीतिक मामलों की संपादक सुहासिनी हैदर का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी के सामने एलएसी पर चीनी सैनिकों की मौजूदगी तात्कालिक चुनौती है और इसके अलावा कोरोना संकट से उपजी अन्य चुनौतियाँ भी हैं.

वो कहती हैं, "कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया में वैश्वीकरण विरोधी और संरक्षणवादी विचारधारा उफ़ान पर है. ऐसे हालात में प्रवासी भारतीयों के लिए रोज़गार के मौक़े तेज़ी से कम हो रहे हैं. आने वाले वक़्त में अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटा सकता है. भारत को इसके लिए और पड़ोस में तालिबान के मुख्यधारा में आने की संभावित स्थिति के लिए तैयार रहना होगा."

नरेंद्र मोदी को आज दुनिया जैसे देखती है, उसके लिए उनकी टीम यानी बीजेपी सदस्यों और पीआर एजेंसियों ने बरसों तक काम किया है.

हाँलाकि 2002 के गुजरात दंगों के बाद नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन्स (एनआरसी) और जम्मू-कश्मीर को ख़ास दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने से पीएम मोदी की वैश्विक छवि को धक्का लगा है.

सुहासिनी कहती हैं, "मोदी सरकार के सामने इसकी घरेलू नीतियों से उपजी चुनौतियाँ अब भी मुंह बाए खड़ी हैं. मसलन, जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद पड़ोसी देशों की प्रतिक्रियाएँ, सीएए और एनआरसी जैसे फ़ैसले."

पैसा बोलता है

नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आए तब भारत में यूपीए विरोधी लहर थी और उसी लहर की सवारी कर उन्हें जीत हासिल हुए.

उन्होंने चुनावों से आर्थिक मोर्चे पर पहले यूपीए सरकार की नाकामियाँ गिनाई थीं. लेकिन ख़ुद पीएम मोदी ने जिन 'अच्छे दिनों' का वादा किया था, वो काफ़ी दूर मालूम पड़ते हैं.

विपक्षी दल पीएम मोदी और उनकी नीतियों को रोज़गार-विरोधी बताते हैं. प्रधानमंत्री के लिए निढाल होती अर्थव्यवस्था और लगातार उछाल मारती बेरोज़गारी जैसी बीमारियों के लिए वैक्सीन ढूँढना सबसे पहली ज़रूरत है.

हाँलाकि राज्यसभा सांसद, लेखक और अर्थशास्त्री स्वपन दासगुप्ता को लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं और वो सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.

वो कहते हैं, "अभी जैसी स्थिति है, वैसी पहले कभी नहीं रही और हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा अभी सामान्य हालत में नहीं है. नरेंद्र मोदी बाज़ार में पैसा डालने में कामयाब रहे हैं. जनता के बीच यह मत है कि प्रधानमंत्री ने अच्छा काम किया है.''

''उन्होंने लोगों को यक़ीन दिलाया है कि कोरोना संकट के दौरान भी 'आपदा में अवसर' है. लेकिन किसी के पास कोरोना संकट से निबटने का पक्का उपाय नहीं है. न तो किसी के पास इसका प्रभावी चिकित्सकीय निदान है और न ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उपाय."

दासगुप्ता मानते हैं कि पीएम मोदी की 'आत्मनिर्भर भारत' जैसी नीतियाँ, वैश्विक बाज़ार का रास्ता बंद किए बिना देश को सही दिशा में रोशनी दिखाती हैं.

हाँलाकि वो इस बात से भी सहमत हैं कि प्रधानमंत्री के लिए लोगों का सरकार में भरोसा बनाए रखना और उन पर रोजी-रोटी की चिंता हावी न होने देना, एक चुनौती साबित होगी.

लोकप्रियता के सहारे कब तक?

आर्थिक पत्रकार और 'द लॉस्ट डिकेड' किताब की लेखिका पूजा मेहरा का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों की ज़िम्मेदारी लेने से मुँह मोड़ लिया है.

वो कहती हैं, "सरकार के लिए आय के रास्ते बंद हो गए हैं और इसकी वजह से जनवादी नीतियों के लिए आने वाला उसका ख़र्च भी सीमित हो गया है. मोदी सरकार के लिए यह प्राथमिक चुनौती होगी.''

''सरकार समय पर भुगतान करने और कर्ज़ चुकाने में असफल हो रही है. इस वजह से भी अर्थव्यवस्था का बोझ कम नहीं हो पा रहा है. सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाला डीए रोका जा चुका है. क्या एक ऐसा वक़्त आएगा जब सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन भी नहीं दे पाएगी?"

लेकिन क्या आगामी बिहार और पश्चिम बंगाल चुनाव में मतदाताओं के लिए अर्थव्यवस्था मुद्दा बन पाएगी?

इसका जवाब पूजा मेहरा 'हाँ' में देती हैं. वो कहती हैं, "नौकरियों और रोज़गार के पर्याप्त अवसर न मिलने के बावजूद वोटरों का भरोसा पीएम मोदी में बना रहा है. लेकिन अब सवाल है कि प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता का सहारा कब तक ले सकते हैं."

प्रधानमंत्री को करीब से जानने वालों का दावा है कि कूटनीति और राजनीति में वो माहिर हैं लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े फ़ैसलों के लिए वो अपने सलाहकारों पर भरोसा करते हैं. पूजा मेहरा जैसे अन्य कई विशेषज्ञों का मानना है कि प्रधानमंत्री के यही सलाहकार समस्या की जड़ हैं.

वो कहती हैं, "पीएम मोदी पेशेवर अर्थशास्त्रियों में कम भरोसा रखते हैं. उन्होंने अपने ऐसे सलाहकारों की सुनी जिन्होंने उन्हें नोटबंदी जैसे असामान्य प्रयोग करने को कहा. इन प्रयोगों से अर्थव्यवस्था को फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा हुआ है."

राजनीति की पिच

नरेंद्र मोदी ने 1980 के आख़िर में सक्रिय राजनीति में कदम रखा था. ऐसा लगता है कि तब से लेकर अब तक उन्होंने अपने लिए जो योजनाएँ बनाईं, वो उनके पक्ष में साबित होती रहीं. 70 वर्षीय नरेंद्र मोदी 50 वर्षीय राहुल गाँधी की तुलना में राजनीतिक रूप से कई कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं. लेकिन उनका भविष्य कैसा होगा?

अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' में डेप्युटी एडिटर रहीं सीमा चिश्ती कहती हैं, "लोकतंत्र में लोकप्रिय नेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती तब आती है जब वो किसी शख़्स या संगठन को चुनौती नहीं मानते. ये स्थिति उन्हें हरा देती है. मुखर विपक्ष न सिर्फ़ लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है बल्कि उनके लिए भी फ़ायदेमंद होता है जो सत्ता में काबिज हैं. इससे वो नियंत्रण में रहते हैं."

प्रधानमंत्री मोदी आने वाले कुछ वर्षों में अपनी विरासत बनाने के काम में जुटे रहेंगे.

शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी ने हाल ही में कहा था कि दिल्ली के राजपथ का पुनर्निमाण पीएम मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट के डिज़ाइन का जिम्मा अहमदाबाद के आर्किटेक्ट बिमल पटेल को दिया गया है. बिमल पटेल उस वक़्त से प्रधानमंत्री के करीबी रहे हैं जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे.

लेकिन पीएम मोदी रिटायर होने के बाद भारत और दुनिया की यादों में किस रूप में रहना चाहते हैं? उनके सामने कौन सी राजनीतिक चुनौतियाँ हैं?

इस बारे में सीमा चिश्ती कहती हैं, "मोदी हिंदुत्व की विचारधारा में पूरा भरोसा रखते हैं. लेकिन एक वैश्विक नेता के तौर पर वो महात्मा गाँधी को याद करते हैं और समावेशी भारत की बात करते हैं. इन दोनों में घोर विरोधाभास है. देश में वो सबको एक विचारधारा के भीतर लाना चाहते हैं लेकिन विदेश में संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दावा करते हैं."

'प्रधानमंत्री के सामने कोई चुनौती नहीं'

वहीं, 'इंडिया टुडे' के उप संपादक उदय महुरकर का मानना है कि जब तक कांग्रेस की छवि नहीं बदलती, प्रधानमंत्री मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं होगी.

वो कहते हैं, "जब तक कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण में जुटी रहेगी, पीएम मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं होगा. आम जनता के मन में मोदी की छवि एक ईमानदार और मज़बूत नेता की है."

महुरकर के मुताबिक़, "मोदी सरकार ने जिस गति से अपने वादे पूरे किए हैं, वो प्रभावशाली हैं. ज़्यादातर लोगों को, ख़ासकर ग्रामीण लोगों को उनकी योजनाओं का फ़ायदा मिला है. मोदी के आलोचका ऐसा दिखाते हैं कि उनके सामने कड़ी चुनौतियाँ हैं लेकिन असल में उनके सामने कोई चुनौती नहीं है. कोरोना संकट के बाद पीएम मोदी ज़्यादा मज़बूत होकर उभरेंगे."

लेकिन अपने 70वें जन्मदिन पर प्रधानमंत्री क्या चाहेंगे? ज़्यादा मज़बूत मोदी, वैश्विक मोदी, ज़्यादा हिंदूवादी मोदी, ज़्यादा स्वीकार्य मोदी या फिर ये सभी?(bbc)

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