संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बकवासी-नफरती हो चुके सोशल मीडिया से सावधान
17-Sep-2020 9:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बकवासी-नफरती हो चुके सोशल मीडिया से सावधान

अखबार में काम करते हुए और रात-दिन खबरों से जूझते हुए यह मुमकिन नहीं रह जाता कि सोशल मीडिया से बचकर चल सकें। लेकिन सोशल मीडिया खबरों में मदद करता हो वहां तक तो ठीक है, जब वह खबरों पर सोचने-विचारने वाली समझ को तोडऩे-मरोडऩे लगता है, तो उसका खतरा समझ आता है। 

आज एक औसत व्यक्ति ट्विटर या फेसबुक पर जिस तरह के पूर्वाग्रही, दुराग्रही, या आग्रही लोगों का सामना करने को मजबूर हो जाते हैं, वह एक फिक्र की बात है। जो लोग सोशल मीडिया को जानकारी और तर्क के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनका खासा वक्त ऐसे ग्रहों से जूझने में बर्बाद होता है जिनके पास किसी बहस के लायक कोई तर्क नहीं होते, तथ्य नहीं होते, और महज जुमले, फतवे, नारे, या स्तुतियों की भरमार रहती है। 

सोशल मीडिया पर किन लोगों को फॉलो करना है, किनकी दोस्ती छांटनी है, इस बारे में लोगों को बड़ी गंभीरता से सोचना-विचारना चाहिए। हम कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि आज सोशल मीडिया पर रोज खासा वक्त गुजारने वाले लोग अपनी असल जिंदगी में उतने ही अच्छे हो पाते हैं जितने अच्छे उनके इर्द-गिर्द के लोग हैं। आपके आसपास के लोगों का औसत अच्छा, या औसत बुरा ही आपको बनाता है। इस बात को समझे बिना जो लोग महज सनसनी, नफरत, मोहब्बत, या अंधभक्ति के चलते हुए अपना दायरा तय करते हैं, वे जिंदगी के बहुत से फायदों से दूर रह जाते हैं, और घटिया लोगों के करीब रह जाते हैं। एक वक्त था जब लोगों के दोस्त असल जिंदगी में रहते थे, वह वक्त खत्म हो गया। अब असल जिंदगी के लोग बड़े कम रह गए हैं, और लोगों का अधिक वक्त ऑनलाईन दोस्तों, और वॉट्सऐप दोस्तों के साथ गुजरता है, और ऐसे में वे उसी तरह का नफा या नुकसान पाते हैं जिस तरह अच्छी या बुरी सोहबत की वजह से असल जिंदगी में पाते थे। असल जिंदगी में तो बुरे असर की एक सीमा रहती थी, लेकिन आज सोशल मीडिया, और ऐसी दूसरी जगहों पर ऐसी कोई सीमा नहीं रह गई है। नफरती लोग तेजी से एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं, झूठ बढ़ाते हैं, नफरत फैलाते हैं। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि सोशल मीडिया पर जो लोग नफरत और हिंसा फैलाने वाले हैं, अंधभक्ति फैलाने वाले हैं, उनकी सोहबत से वक्त की बड़ी बर्बादी भी होती है, और अपने दिल-दिमाग की, अपने संस्कारों की भी। 

आज मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री से शुरू हुई गंदगी का हाल यह है कि वह संसद के भीतर भी दाखिल हो रही है, और संसद के भीतर अगर कोई समझदारी की बात की जा रही है, तो उस पर भी संसद के बाहर गंदगी पोतने का काम हो रहा है। यह एक भयानक नौबत है जब हिन्दुस्तान के आम लोग, इस देश के बड़े छोटे से तबके वाले खास लोगों के गैरजरूरी मुद्दों को आम जिंदगी के जरूरी मुद्दों से ऊपर मानकर गंदगी की होड़ में शामिल हो गए हैं। यह कुछ उसी किस्म का है कि कई दिनों का भूखा कोई इंसान राह चलती किसी रईस बारात के बैंड की धुन पर नाचने लगे। यह नौबत बहुत खराब है जब देश के एक बड़े तबके को अपनी हकीकत का अहसास नहीं रह गया है, और वह अतिसंपन्न तबके की अफवाहों, उसकी गंदगी में उसी तरह शामिल हो गया है जिस तरह एक वक्त योरप के गरीब राजकुमारी डायना की जिंदगी से जुड़ी हुई अफवाहों में शामिल रहते थे। जनता के पैसों पर पलने वाला ब्रिटिश राजघराना जिस किस्म की सनसनीखेज सेक्स-चर्चाओं को जन्म देता था, शायद वही सनसनी जनता के टैक्स की भरपाई भी थी। आज हिन्दुस्तान में लोग फिल्म इंडस्ट्री से निकली हुई मुफ्त की सनसनी को अपनी जिंदगी के सच के ऊपर रखकर चल रहे हैं। नतीजा यह है कि ऐसी लापरवाह कौम को देश का मीडिया भी गंदगी परोस रहा है क्योंकि उसे जनता के टेस्ट की समझ हो गई है, या मीडिया ने एक सामूहिक साजिश के तहत जनता के टेस्ट को बर्बाद करने का काम जारी रखा है। 

एक वक्त यह कहना भी कुछ अधिक कड़ी बात लगती थी कि लोगों को अखबार और टीवी छांटते हुए जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए क्योंकि कोई व्यक्ति उतने ही अच्छे हो सकते हैं जितने अच्छे अखबार वे पढ़ते हैं, या जितने अच्छे टीवी चैनल वे देखते हैं। लेकिन अब ये दोनों किनारे हो गए हैं, और लोग अब उतने ही अच्छे रह पाते हैं जितने अच्छे लोगों को वे सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं, पढ़ते हैं, देखते हैं। इसलिए आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का मकसद महज यह याद दिलाना है कि जिंदगी बहुत छोटी है, उसमें हर दिन सोशल मीडिया में झांकने के घंटे भी अमूमन सीमित रहते हैं, इसलिए उनका बहुत समझदारी से इस्तेमाल करना चाहिए, ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर लोग उन घंटों में अपनी बदनीयत के लिए आपको इस्तेमाल करते रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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