संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस एक हिंसा से उठे हैं बच्चों की संख्या के मुद्दे
20-Sep-2020 6:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस एक हिंसा से उठे हैं बच्चों की संख्या के मुद्दे

जब कभी यह लगने लगता है कि हैवानियत अब इससे अधिक कुछ नहीं हो सकती, कुछ नए मामले सामने आकर खड़े हो जाते हैं, और पूछने लगते हैं-हमारे बारे में नहीं सोचा था? 

कल रात एक खबर आई कि एक नौजवान ने अपने बाप को गोली मार दी ताकि उसकी जायदाद पर कब्जा कर सके। दूसरी तरफ कल ही रात यह खबर आई कि एक पंडित ने एक गर्भवती महिला के बारे में जब यह भविष्यवाणी की कि उसकी छठीं संतान भी लडक़ी ही होने वाली है, तो उसके पति ने हंसिया लेकर पेट काटना शुरू कर दिया ताकि देख सके कि भीतर लडक़ा है या लडक़ी। 

अपने आपको इंसानियत से भरपूर समझने वाले लोगों के भीतर खासा हिस्सा हैवानियत का होता है। और अपने भीतर के इस गोडसे वाले हिस्से को मारकर गांधी वाले हिस्से को बढ़ाने में कुछ लोग कामयाब हो पाते हैं, अधिक लोग नाकामयाब रहते हैं। लेकिन ये तमाम किस्म के इंसान अच्छी हरकतों को इंसानियत करार देते हैं, और भाषा भी अच्छे, रहमदिल को ही इंसानियत मान लेती है, और बुरे कामों को, बुरी नीयत को हैवानियत का लेबल लगा देती है, मानो वह इंसान के बाहर का कोई राक्षस हो। बातचीत में भी भाषा और शब्दों में भी इंसान यह मानने को तैयार नहीं होते कि हैवानियत कही जाने वाली चीज उनके भीतर की नहीं है। इसलिए पांच बेटियों के बाद छठवीं संतान भी बेटी तो नहीं है यह देखने के लिए बीवी का पेट काटने वाले इस इंसान की हरकत भी हैवानियत करार दे दी जाएगी ताकि बाकी इंसान अपने इंसान होने पर शर्मिंदगी न झेलें।
 
लेकिन भाषा से परे की दो बुनियादी बातों पर सोचने की जरूरत है। पहली तो यह कि हिन्दुस्तान में बेटों की चाह पहले तो छठवीं संतान तक ले जा रही है, और फिर बीवी का पेट काटकर जेल भी पहुंचा रही है। इस चाह को क्या नाम दें जिसके खिलाफ कड़े कानून बने हुए हों, और दुनिया भर में बेटियों ने यह साबित किया है कि मां-बाप की सेवा करने में भी वे बेटों से कहीं कम नहीं हैं। कल रात जब यह पेट कट रहा था, उसी वक्त एक बेटा जायदाद के लिए अपने बाप को गोली मारकर खुद भी मर गया। इसके बावजूद अभी दो दिन पहले छत्तीसगढ़ में मां-बाप की सेवा करने का एक सम्मान एक महिला सिपाही को दिया गया जिसका नाम श्रवण कुमार सम्मान था। सम्मान की हकदार एक युवती है, लेकिन सम्मान का नाम श्रवण कुमार के नाम पर रख दिया गया क्योंकि हिन्दुस्तानी समाज में सेवा करने वाली बेटी की कोई कहानी कभी प्रचलित नहीं की गई, महज श्रवण कुमार की कहानी प्रचलित की गई। आज मुद्दे की बात यह है कि बेटों की चाह में छठवीं संतान पैदा करने जा रहे लोगों को क्या कहा जाए? और खासकर यह मामला जिस तरह की पारिवारिक हिंसा का है उसमें यह साफ है कि यह परिवार मर्द के दबदबे वाला है, और इसमें महिला की कोई जुबान ही नहीं है। न परिवार के दूसरे लोगों ने, और न ही इस हिंसक मर्द ने खुद होकर यह सोचा कि दो बेटियों के बाद तीसरी संतान क्यों चाहिए थी, चौथी क्यों चाहिए थी, पांचवीं क्यों चाहिए थी, और अब छठवीं क्यों चाहिए? हिन्दुस्तान के अलग-अलग जातियों के समाजों को यह भी सोचना चाहिए कि किस धर्म के लोगों में बेटियों की हत्या आम हैं, भ्रूण हत्या आम हैं, और किन धर्मों में बेटे-बेटियों में फर्क नहीं किया जाता, गर्भपात का चलन नहीं है। समाज में सभी लोग हकीकत जानते हैं, और सबसे अहिंसक होने का दावा करने वाले धर्मालु लोग कन्या भ्रूण हत्या में अव्वल रहते हैं, और जिन जाति-धर्मों के लोग हिंसक माने जाते हैं, उनमें कन्या भ्रूण हत्या सुनी भी नहीं जाती है। इस सिलसिले को तोडऩे की जरूरत है। हकीकत के आंकड़े देखने हो तो केरल और हरियाणा, इन दो राज्यों में लडक़े-लड़कियों के अनुपात में फर्क देख लेना चाहिए, पढ़े-लिखे और कामकाजी केरल में लड़कियां लडक़ों से अधिक हैं, और दकियानूसी अंदाज में खाप पंचायतों के राज में जीने वाले हरियाणा में लडक़ों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं, जबकि हिन्दुस्तान मेें नौजवान और अधेड़ अपने से पांच-सात बरस छोटी लड़कियों से शादी पसंद करते हैं, जिसका एक मतलब यह भी होता है कि उन्हें लड़कियों की अधिक आबादी में से दुल्हन छांटना हासिल रहता है, ऐसे में भी अगर हरियाणा के कुंवारों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं तो वहां लडक़े-लड़कियों के अनुपात का फर्क आसानी से समझा जा सकता है। 

इस देश में अधिक बच्चों के होने का मुद्दा संजय गांधी के आपातकाल से लेकर अब तक नाजुक बना हुआ है। बहुत से लोग दो बच्चों का कानून बनाने को मुस्लिमों पर हमले की तरह देखते हैं। सवाल यह है कि अगर ऐसा कानून बना दिया जाता है, तो उससे मुस्लिमों का भी भला होगा या बुरा होगा? क्या आज हिन्दुस्तान के मुस्लिमों का कोई बड़ा हिस्सा तीसरी और चौथी संतान का खर्च उठाने की हालत में हैं? क्या कम बच्चों पर पढ़ाई और इलाज का अधिक खर्च करना मुस्लिमों को नुकसान करेगा? और फिर एक बात यह भी है कि जो कट्टर हिन्दूवादी लोग दो बच्चों का कानून बनवाना चाहते हैं, उनके अपने हिन्दू धर्म के लोग क्या पहली दो लड़कियों के बाद तीसरी और चौथी संतान की तरफ नहीं बढ़ते हैं? इसलिए अगर अधिक संतान रोकी जा सकती है, तो उसमें क्या मुस्लिमविरोधी होगा, और क्या हिन्दूविरोधी होगा? 

जिस दर्जे की निजी हिंसा इस परिवार में देखने मिली है, वह बहुत भयानक है। पेट में लडक़ी है या लडक़ा देखने के लिए अगर आदमी अपनी बीवी का पेट चीरकर अपनी ही संतान की जिंदगी खतरे में डाल रहा है, तो उसे हैवान कहना किसी बात का इलाज नहीं होगा। इस एक मामले में तो कानूनी कार्रवाई हो जाएगी क्योंकि यह खबरों में बहुत अधिक आ गया है, लेकिन इसके परे भी समझने की जरूरत है जहां बेटे की हसरत बढ़ते हुए पारिवारिक हिंसा की शक्ल में तब्दील हो जाती है, वहां पर यह भी समझना चाहिए कि पहले जो दो-तीन, चार या पांच लड़कियां हो चुकी हैं उनके साथ कैसा सुलूक रहता होगा? इसलिए अगर दो बच्चों की सीमा तय की जाती है, तो हो सकता है कि हिन्दुओं में भी ऐसी पारिवारिक हिंसा घट जाए क्योंकि आगे की संतान आने पर सरकारी नौकरी, मुफ्त इलाज या सरकारी योजनाओं का फायदा मिलना बंद हो सकता है। हमारी ऐसी सोच के खिलाफ हमारे ही पास एक तर्क यह है कि दो बच्चों की सीमा होने पर बेटों की हसरत में डूबे लोग पेट के बच्चे का सेक्स जानने के लिए जांच की तरफ और अधिक जाएंगे, कन्या भ्रूण हत्या और अधिक करेंगे क्योंकि दो से ज्यादा बच्चे तो वे पैदा नहीं कर पाएंगे। बच्चों पर रोक लगाना आज एक साम्प्रदायिक मामला भी समझा जाएगा, और बहुत सारे लोग इसे बुनियादी अधिकार कुचलना भी मानेंगे। लेकिन हमारा मानना है कि और किसी वजह से न सही तो कम से कम गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों में बच्चों की बेहतर देखरेख के लिए संतानों की सीमित संख्या जरूरी है। 

इस एक घटना ने कुछ मुद्दों पर सोचने के लिए मजबूर किया है, और इन बातों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हिन्दू-मुस्लिम के खुश या नाराज होने के चक्कर में बच्चों की सीमा लागू करने की बात किनारे न धरी रह जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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