संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तैश में नाजायज बातें कहना आसान, पर उन्हें ढोना बड़ा मुश्किल
29-Sep-2020 7:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तैश में नाजायज बातें कहना आसान, पर  उन्हें ढोना बड़ा मुश्किल

कई बड़े मोर्चे बड़ी छोटी बात पर लोग हार जाते हैं। मुम्बई में यही हुआ, और सडक़ों से लेकर मीडिया तक साबित होने के बाद अब बाम्बे हाईकोर्ट में यही बात फिर साबित हो रही है। कल वहां जो बहस चली वह थी तो फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत के दफ्तर को म्युनिसिपल द्वारा तोडऩे की, लेकिन उसके पीछे शिवसेना के सांसद संजय राऊत का हाथ होने की बात उठी। जज इस बात पर अड़ गए कि संजय राऊत ने हरामखोर लडक़ी किसे कहा था? अब चूंकि मामला अदालत में है, और वहां संजय राऊत के बयान की ऑडियो क्लिप बजाकर सुनी गई है, तो यह बात अदालत की जानकारी में है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की पार्टी के सांसद संजय राऊत ने किसी को हरामखोर कहा, और उसे सबक सिखाने की जरूरत बताई। अब अदालत में संजय राऊत के वकील यह कह रहे हैं कि उनके मुवक्किल ने किसी का नाम नहीं लिया था। जिस राजनीतिक दुस्साहस के साथ संजय राऊत ने यह हमला किया था, वह किनारे धरा रह गया। और अभी अदालत में आगे मुश्किल बाकी है क्योंकि हाईकोर्ट के जज इस बात पर अड़े हुए हैं कि हरामखोर लडक़ी किसे कहा गया, यह बताया जाए। 

यह कोई अनोखा बयान नहीं था, लेकिन यह बयान ेएक ऐसी अभिनेत्री के खिलाफ दिया गया था जिसके साथ आज केन्द्र सरकार खड़ी हुई है, और महाराष्ट्र में एक ताकतवर पार्टी भाजपा भी। इन दोनों के अलावा फिल्म उद्योग के कुछ या अधिक लोग भी उनके साथ खड़े हुए हैं, और महंगे वकीलों की सेवाएं तो हासिल हैं ही। ऐसे में हमला करके बचकर निकल जाना बहुत आसान नहीं होता। लोगों को याद होगा कि हाल ही के बरसों में अरविंद केजरीवाल को मानहानि के कुछ मुकदमों में दिल्ली में माफी मांगनी पड़ी थी, और यह पहले भी होते आया है जब बहुत से नेता अपनी कही हुई बातों को जायज नहीं ठहरा पाते, और अदालत के बाहर समझौता करते हैं, या अदालत में माफी मांगते हैं। जब भीड़ सामने होती है, कैमरे सामने होते हैं, माईक सामने होते हैं, तो लोग तेजी से अपना आपा खोने लगते हैं, ऐसे ही उत्तेजना के पल होते हैं जब लोग अवांछित बातें कह बैठते हैं जिन्हें साबित करना नामुमकिन होता है। अब कंगना रनौत के खिलाफ हजार दूसरी बातें हो सकती हैं, देश आज दो खेमों में बंटा है, और एक खेमा चूंकि उसके साथ है, इसलिए दूसरा खेमा उसके खिलाफ है। खिलाफ होने तक कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जब नाजायज बातें कहकर हमला किया जाता है, तो वे बातें वहीं तक खप पाती हैं जब तक उन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जाती। 
यह बात महज नेताओं पर लागू नहीं होती, यह मीडिया के लोगों पर भी लागू होती है, और किसी के खिलाफ कोई अभियान जब गालियों की बैसाखियों पर चलता है, तो वह दूर तक नहीं चल पाता। जब गंदे विशेषणों से ही किसी के खिलाफ अभियान चलता है, तो वे विशेषण लंबी दूरी तक साथ नहीं देते। सत्य और तथ्य के बजाय जब लफ्फाजी की बातों से हमला किया जाता है, तो ऐसा हमला किसी को असली नुकसान नहीं पहुंचा पाता, पल भर को उन लोगों को तो खुश कर सकता है जो कि हमले के निशाने के पुराने विरोधी हैं। 

हमने देश भर में जगह-जगह, और छत्तीसगढ़ में भी मीडिया में, सोशल मीडिया में ओछी जुबान और झूठी बातों को लिखते लोगों को देखा है जिन्हें बाद में जाकर माफी मांगनी पड़ती है। ऐसी हरकत के लिए हिन्दी में एक भद्दी सी मिसाल दी जाती है, थूककर चाटना। लेकिन जो जरूरत से अधिक बड़बोले होते हैं, जिनका अपनी जुबान पर काबू नहीं होता, उन लोगों के साथ ऐसी दिक्कत आती रहती है। मीडिया में भी जो लोग गंदी जुबान के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश करते हैं, वे अपनी जुबान को गंदा साबित करने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। ऐसे लोग चाहे जिस पेशे में हों, खुद तो कोई इज्जत नहीं कमा पाते, अपने संगठन या संस्थान को भी कोई इज्जत नहीं दिला पाते, बल्कि उनकी इज्जत भी अपने साथ-साथ मटियामेट करते हैं।
 
आज मसीहाई नसीहत लिखते हुए यहां मकसद सिर्फ एक है कि लोगों को याद दिलाना कि बड़े बुजुर्ग समझदार लोग यह मशविरा दे गए हैं कि दो-चार बाद सोचने के बाद ही कुछ बोलना चाहिए। जिस तरह कोई समझदार दुकानदार पहले लिखता है, फिर देता है, उसी तरह समझदार बोलने वाले पहले समझते हैं, सोचते हैं, फिर बोलते हैं। आज मुम्बई हाईकोर्ट में संजय राऊत जिस तरह फंसे हैं, उससे उनकी, और उनकी पार्टी की साख और मुम्बई में धाक, दोनों चौपट हो रही हैं। शिवसेना के हाथ कंगना के बड़बोलेपन, उसकी कही हुई ओछी बातों को लेकर एक बड़ा मुद्दा था, और इस मुद्दे को लेकर यह पार्टी कंगना और इस कंगने के पीछे के हाथों पर भी हमला बोल सकती थी, लेकिन आज वह अदालती कटघरे में खड़ी होकर बचाव देख रही है। इसलिए लोगों को कम बोलना चाहिए, सोच-समझकर बोलना चाहिए, और नाजायज बातें इसलिए नहीं बोलना चाहिए कि अदालत में उन्हें साबित नहीं किया जा सकता, और हो सकता है कि सामने वाले लोगों को महंगे वकील हासिल हों।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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