संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दुनिया के सबसे फटेहाल देशों में शामिल हिन्दुस्तान
08-Oct-2020 9:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दुनिया के सबसे फटेहाल  देशों में शामिल हिन्दुस्तान

अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संस्था ऑक्सफैम ने अपनी ताजा रिपोर्ट में अलग-अलग देशों का सर्वे प्रकाशित किया है कि असमानता को दूर करने में किस देश का क्या हाल रहा। यह असमानता खासकर कोरोना-महामारी से निपटने के संदर्भ में देखी गई, और 158 देशों ने भारत 129वीं जगह पर है। दुनिया के गिने-चुने सबसे गरीब और सबसे फटेहाल देशों के करीब खड़े हुए हिन्दुस्तान को थाली बजाती जनता देख पा रही है, या अपने खुद के थामे दीए और मोमबत्ती की रौशनी में उसे कुछ दिख नहीं रहा है, यह पता नहीं। जब हिन्दुस्तान का माहौल सनसनी से तय हो रहा है, जब कुछ फिल्मी सितारों पर नशे की तोहमत देश को महीनों तक नशे में रख सकती है, तो वैसे में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के आंकड़े को एक साजिश करार देना बड़ा आसान काम है। जब हाथरस की गैंगरेप-मृतका के हक की बात करना अंतरराष्ट्रीय साजिश करार दी जा रही है, तो ऑक्सफैम के आंकड़ों को फिर अंतरराष्ट्रीय फेहरिस्त में भारत की जगह दिखाने वाले हैं, और इन्हें साजिश से कम मानना देश के साथ गद्दारी करार दी जा सकती है। 

ऑक्सफैम इंटरनेशन का कहना है कि असमानता से निपटने में सरकारों की भयानक नामकामयाबी का मतलब था कि दुनिया के अधिकांश देश इस महामारी को रोकने के लिए गंभीर रूप से तैयार नहीं थे। पृथ्वी पर कोई भी देश असमानता घटाने के लिए पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहा था, और आम लोग इस खतरे की तकलीफ भुगत रहे हैं। करोड़ों लोगों को गरीबी और भुखमरी में धकेल दिया गया है, और अनगिनत अनावश्यक मौतें हुई हैं। चूंकि अब भारत में तो किसी किस्म के आर्थिक आंकड़ों का चलन खत्म किया जा रहा है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों को देखकर ही हम अपने को आईने में देख सकते हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि नाइजीरिया और बहरीन जैसे देशों के साथ भारत असमानता से निपटने में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में रहा। बजट के अनुपात में स्वास्थ्य के लिए रखे गये हिस्से के मामले में भारत दुनिया में नीचे से चौथा है, और यहां की आधी आबादी के पास ही बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच है। असमानता दूर करने के बजाय, पहले से चले आ रहे बेइंसाफ मजदूर कानूनों को ठीक करने के बजाय भारत में कई राज्य सरकारों ने लॉकडाऊन और कोरोना के नाम पर न्यूनतम वेतन कानून निलंबित किया, और रोज काम के घंटे 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे तक किए। 

ऐसा नहीं है कि एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ही भारत को आईना दिखा रहा है। इस देश के वामपंथी दल मजदूर कानूनों के खिलाफ पहले से आंदोलन कर रहे थे, और कोरोना-लॉकडाऊन के बहाने मजदूर-कर्मचारियों पर हुए केन्द्र-राज्यों के हमलों के खिलाफ भी उन्होंने लगातार आवाज उठाई है। लेकिन चूंकि अब देश में किसी की भी कोई आवाज रह नहीं गई है, इसलिए भारत में तो वामपंथियों को अनसुना कर दिया गया, अब अंतरराष्ट्रीय मंच से यह तस्वीर सामने आ रही है। हिन्दुस्तान के इतिहास में एक सोने की चिडिय़ा की कल्पना या कहानी जिन लोगों को खुश करती है, उन लोगों को यह भी देखना चाहिए कि पड़ोस का गरीब बांग्लादेश 158 देशों की इस फेहरिस्त में भारत के मुकाबले बहुत बेहतर है। भारत 129वें नंबर पर है, और बांग्लादेश 113वें नंबर पर है। बांग्लादेश ने सेहत और इलाज के मोर्चे पर काम करने वाले सबसे नीचे के कर्मचारियों को बड़ा बोनस भी दिया है, और इसे पाने वालों में अधिकांश महिलाएं हैं। ऑक्सफैम के इस अध्ययन का कहना है कि बहुत अधिक असमानता को दूर करने के लिए किसी देश का घनी होना जरूरी नहीं है, किसी भी देश में सामाजिक सुरक्षा, अच्छी मजदूरी, और जायज टैक्स की व्यवस्था से भी असमानता को कम किया जा सकता है। इस संस्था का निष्कर्ष है कि असमानता को दूर करने में विफलता एक राजनीतिक फैसला रहता है जिसे कि कोरोना ने अधिक भयानक हद तक उजागर किया है।
  
इस बात को समझना इसलिए भी जरूरी है कि देश के संपन्न या विपन्न होने से वहां के लोगों के बीच आर्थिक असमानता की खाई का अधिक लेना-देना नहीं रहता है। अगर सरकार की नीतियां जनकल्याण की रहें तो एक गरीब देश में भी गरीबी और बहुत गरीबी के बीच फासला घट सकता है, और लोगों के बीच अधिक बराबरी आ सकती है। वरना हिन्दुस्तान तो एक भयानक मिसाल है ही जहां किसी कंपनी में तकरीबन हर दिन 5 हजार करोड़ रूपए का पूंजीनिवेश दूसरे देशों से आ रहा है, और सडक़ किनारे सामान बेचकर जिंदा रहने वाले लोग फटेहाली में पहुंच चुके हैं। 

आज दिक्कत यह है कि भारत की राजनीतिक ताकतों में गिनी-चुनी पार्टियां ही ऐसी बची हैं जो आर्थिक मुद्दों को लेकर बारीकी से अध्ययन करती हैं, और गंभीरता से सोचती हैं। देश की अधिकतर जनता को ऐसी सार्वजनिक बकवास में उलाझकर रख दिया गया है कि उसे अपनी भूख से अधिक फिल्मी सितारों के नशे की फिक्र हो रही है। और बहुत पहले से लोकतंत्र के बारे में जो कहा जाता है वही बात यहां लागू होती है कि किसी भी देश की जनता वैसी ही सरकार पाती है जैसी सरकार पाने की वह हकदार रहती है।
 
हिन्दुस्तान की इस नौबत का क्या होगा? क्या इस देश को इस बात की शर्म आएगी कि वह 3-4 हजार करोड़ की एक-एक प्रतिमा बनाने के बाद भी दुनिया के आखिरी 25 देशों में गिना जा रहा है। जहां आज भी पढ़ाई और इलाज का सबसे बड़ा इंतजाम नेहरू के बनवाए हुए एम्स और आईआईएम, आईआईटी के ढांचे पर टिका हुआ है। ऐसे देश में लोग आज अपने नामौजूद काल्पनिक इतिहास के गर्व में महज गोमूत्र पीकर जी सकते हैं। ऐसी नौबत में क्या किसी अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के आंकड़े यहां के लोगों को शर्मिंदगी में डाल पाएंगे, या फिर सबसे पसंदीदा तर्क एक बार फिर काम आएगा कि यह भारत को बदनाम करने के लिए ईसाई देशों के एनजीओ की साजिश है? 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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