संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : टीआरपी का हाथी कुएं में गिरा, और सब कूद-कूदकर लात...
09-Oct-2020 2:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : टीआरपी का हाथी कुएं में गिरा,  और सब कूद-कूदकर लात...

हिन्दुस्तान के मीडिया का शायद सबसे बड़ा भांडाफोड़ कल सामने आया जब मुम्बई पुलिस अपने खिलाफ बागी तेवरों के साथ एक कथित और घटिया टीवी मीडियागिरी करने वाले अर्नब गोस्वामी के चैनल को दर्शक संख्या जुटाने के लिए जालसाजी करते पकड़ा। अर्नब का बदन पकड़ा जाना शायद अभी बाकी है लेकिन उसके चैनल को दर्शक संख्या (टीआरपी) खरीदने वाला पाया गया है। दो और चैनल यही काम करते पकड़ाए हैं, और मुम्बई पुलिस ने कहा है कि उसके पास सुबूत हैं। 

अर्नब गोस्वामी के किए हुए को हम अखबारनवीसी तो इसलिए नहीं मानते कि अखबार तो एक माध्यम ही अलग है। उसे हम मीडिया भी नहीं मानते क्योंकि अखबारों से परे के मीडिया में भी काफी लोग अब भी शरीफ हैं, और बहुत से लोग अब भी ईमानदार हैं। और ईमानदारी तय करते हुए अखबारनवीसी को अखबार-मालिकी से अलग करके देखना ठीक होगा क्योंकि अखबार का कारोबार वाला हिस्सा कारोबारी मालिक के काबू का रहता है, और वहां पर टीवी की टीआरपी खरीदने की तरह अखबारों की प्रसार संख्या का केन्द्र सरकार का सर्टिफिकेट पाने के लिए गलाकाट मुकाबला चलता है। सर्टिफिकेट से परे भी यह मुकाबला पाठक संख्या तय करने वाले एनआरएस (नेशनल रीडरशिप सर्वे) तक जारी रहता है, और हर बरस कुछ अखबार अपने को दूसरों के मुकाबले अधिक कामयाब दिखाते हुए पूरे-पूरे पेज के इश्तहार छापते हैं। जिस तरह अखबारों के बाद टीवी और टीवी के बाद इंटरनेट तक जर्नलिज्म का विस्तार हुआ, तो अब समाचार वेबसाईटों के बीच भी ऐसा मुकाबला चलता है कि किस वेबसाईट पर कितने हिट्स मिल रहे हैं, कितने अलग-अलग लोग उसे देख रहे हैं, और कितना समय उस वेबसाईट पर गुजार रहे हैं। 

अभी सुशांत राजपूत केस में मुम्बई पुलिस को बदनाम करने के लिए जिस तरह रातों-रात 80 हजार फर्जी सोशल मीडिया अकाऊंट खोले गए, और मुम्बई पुलिस के खिलाफ एक अभियान छेड़ा गया, वह पहला मौका नहीं है। इंटरनेट और सोशल मीडिया पर हिट्स और लाईक्स, फॉलोवर्स और री-ट्वीट कैसे खरीदे जाते हैं इसे देखने के लिए गुरू गूगल से पूछना भर है और दुनिया भर के ऐसी एजेंसियों के नाम-पते और रेटकार्ड सामने आ जाते हैं। हालत यह है कि हिन्दुस्तान के एक राज्य के एक नेता के 90 फीसदी फॉलोवर, और लाखों की संख्या में अकेले तुर्की में पैदा हो जाते हैं, और यह राज्य और यह नेता अपनी स्थानीय जुबान इस्तेमाल करते हैं, अंग्रेजी भी नहीं जिसे कि तुर्की कुछ लोग हिज्जों तक तो पढ़ ही सकते हैं। यह सारा का सारा फर्जी कारोबार आज टीवी समाचार चैनलों की टीआरपी-जालसाजी भांडाफोड़ होने से चर्चा में आया है, लेकिन हकीकत यह है कि जब से हिन्दुस्तान में अखबारों का काम शुरू हुआ है, तब से उनकी प्रसार संख्या की जालसाजी चल ही रही है। और सरकार से लेकर बाजार तक के इश्तहार इन्हीं गढ़ी हुई गिनतियों की बुनियाद पर खड़े हो पाते हैं, अगर आपमें जालसाजी करके फर्जी आंकड़ों की जमीन तैयार करने की कूबत नहीं है, तो आपके मीडिया-कारोबार की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। और तो और हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार के दिए हुए आंकड़ों के सर्टिफिकेट को तमाम राज्य सरकारें धार्मिक भावना से ज्यों का त्यों मान लेती हैं, फिर चाहे वे प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार को पूरी तरह से खारिज ही क्यों न करने वाली हों। इस देश के मीडिया कारोबार की बुनियाद ही फर्जी आंकड़ों पर बनती है, और अपने-अपने हक में फर्जीवाड़े में किसी को कोई परहेज नहीं होता, जो जितने बड़े कारोबारी होते हैं, वे उतना ही अधिक फर्जीवाड़ा करते हैं। 

लेकिन सवाल यह भी है कि अगर बाजार का कारोबार 17 और 19 रूपए के नोट से ही चल रहा है, तो कारोबारी रिजर्व बैंक के 10 और 20 रूपए के नोटों में ही धंधा करने की जिद पर कब तक अड़े रह सकते हैं? बाजार की विज्ञापन एजेंसियों, और विज्ञापनदाताओं को छोड़ दें, आज तो सरकार भी, केन्द्र और राज्य सरकारें सभी, ऐसे ही गढ़े हुए आंकड़ों को धर्मग्रंथ में लिखे शब्दों की तरह श्रद्धा और आस्था से पूजती हैं, तो ऐसे में अखबार की प्रसार संख्या, टीवी चैनलों का टीआरपी, और वेबसाईटों के विजिटर ईमानदारी से बताने वालों का भूखे मरना तय है। जब पूरा बाजार टैक्स चोरी पर काम करता हो, तब इक्का-दुक्का दुकानदार अगर टैक्स सहित कारोबार करने की जिद करें, तो उनकी दुकान पर ताला डलना तय है। 

लेकिन बात महज आंकड़ों की नहीं है, इन आंकड़ों को महज जालसाजी से जुटाने की भी नहीं है, इन्हें बेशर्मी और गंदगी से जुटाने की भी है। आज हिन्दुस्तान के तमाम समाचार चैनल समाचारों के साथ-साथ मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित भी करते हैं, और अपनी वेबसाईटों पर भी डालते हैं। अच्छे से अच्छे प्रतिष्ठित और विश्वसनीय समाचार चैनलों की वेबसाईटें ऐसे सनसनाते वीडियो से भरी रहती हैं जिनमें किसी सुंदरी का गिरा हुआ पल्लू, तो किसी का झीना कपड़ा, तो कैसे किसी ने पानी में भीगकर आग लगा दी, किस्म की सुर्खियां लगी रहती हैं। देख-देखकर अखबारों की वेबसाईटों का भी यही हाल हो गया है, और वेबसाईटों का आपस का मुकाबला खबरों या बेहतर सामग्री का न होकर अधिक से अधिक बदन को अधिक से अधिक मादक तरीके से दिखाने का मुकाबला हो गया है, और जनहित के किसी गंभीर लेख से कोई हिट्स नहीं मिलते जितने राखी सावंत के निगाहों के इशारे वाले वीडियो से मिलते हैं कि उसने बदन के किस हिस्से की प्लास्टिक सर्जरी करवाई है। हिन्दुस्तान में अर्नब गोस्वामी जैसा कथित मीडियाकर्मी मीडिया के पूरे पेशे पर एक बहुत बड़ा कलंक का धब्बा है, उसका चैनल मीडिया के कारोबार पर उसी तरह दूसरा धब्बा है। लेकिन सवाल यह है कि कल शाम से अभी तक देश का बाकी मीडिया जिस तरह मजे लेकर अर्नब गोस्वामी और उसके चैनल के लिए सबसे गंदी गालियां लिख रहे हैं, क्या उनके घरों और दफ्तरों के सिंक पर आईने लगे हुए हैं? अर्नब तो पकड़ा गया, लेकिन उसे पत्थर मारने वाले लोग कौन हैं, उनमें से अधिकतर लोग उसी हमाम में नंगे हैं, और राखी सावंत की देह का नजारा बेचकर अपनी मीडिया-कामयाबी पर फख्र करते हैं। 

अब पूरी दुनिया में ही इश्तहार के कारोबार तो इस बात से कोई परहेज नहीं है कि मीडिया कारोबार अपने हिट्स कहां से जुटाता है, टीआरपी और पाठक संख्या कैसे पाता है, किस तरह के सेक्सी वीडियो उसकी गिनती बढ़ाते हैं। जब सरकार को ही इससे लेना-देना नहीं है तो बाजार का भला उससे बढक़र कोई सरोकार हो सकता है? और होना भी क्यों चाहिए? जब केन्द्र सरकार से हर मामले में असहमत चलने वाली राज्य सरकारें भी अपने राज्यों में इश्तहार देने के पहले केन्द्र सरकार से पाए गए सर्टिफिकेट की शर्त रखती है, उसे यह जहमत उठाना ठीक नहीं लगता कि पाठकों की संख्या किस तरह जुटाई गई है उसे भी देखा जाए। आज बड़े-बड़े अखबार, बड़े-बड़े चैनल-पोर्टल भविष्यवाणी, ज्योतिष, और तरह-तरह के दूसरे झांसों का इस्तेमाल करके लोगों को जुटाते हैं, लेकिन सरकार पर वैज्ञानिक सोच को विकसित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी होने के बावजूद कोई सरकार मीडिया के ऐसे पाखंड के खिलाफ कुछ भी नहीं करती, और बेवकूफ बनाए गए लोगों की गिनती के आधार पर इश्तहार का रेट बढ़ाती है, इश्तहार देती है।
 
न सरकार, और न कारोबार, इन दोनों का कोई वास्ता इस बात से रह गया कि अखबारनवीसी और बाकी पत्रकारिता के नीति-सिद्धांत, सामग्री की उत्कृष्टता की फिक्र कौन कर रहे हैं, और कौन नहीं कर रहे हैं।  संख्याओं पर इन दोनों का इतना भरोसा हो गया है जितना कि सट्टा लगाने वाले लोगों का मुम्बई के रोज सट्टा खोलने वाले रतन खत्री पर रहता था। ऐसे में आज जब एक चैनल पकड़ाया है जिसने हाल ही में बाकी तमाम चैनलों पर पांव उठाकर धार मारी थी, तब बाकी चैनलों का यह हक बनता है कि उसके खिलाफ हमला बोलें, हल्ला बोलें, वही चल रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कल से बाकी चैनल फर्जी टीआरपी जुटाने के मुकाबले में अपना-अपना पल्लू गिराना बंद कर देंगे, क्या कल से अखबारों में फर्जी आंकड़े जुटाने के खाता-बही जला दिए जाएंगे, क्या कल से नए-नए उगे न्यूजपोर्टलों पर अश्लील वीडियो, झांसा देने वाली हैडिंग लगाकर हिट्स जुटाना बंद कर दिया जाएगा? अगर यह सब हो जाएगा, तब तो अर्नब को मारे गए पत्थर जायज रहेंगे। वरना तो आज टीआरपी का हाथी गड्ढे में गिरा है, और तमाम लोग कूद-कूदकर उसे लात मार रहे हैं, कुछ लोग इसका वीडियो बना रहे हैं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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