संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह तो अच्छा हुआ कि इस बार सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब को सीधे राहत न दी
15-Oct-2020 6:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह तो अच्छा हुआ कि  इस बार सुप्रीम कोर्ट ने  अर्नब को सीधे राहत न दी

मुम्बई में टीवी चैनलों द्वारा अपना टीआरपी (दर्शक संख्या) बढ़ाने को लेकर जो फर्जीवाड़ा किया गया है उस पर जुर्म दर्ज करके मुम्बई पुलिस कार्रवाई कर रही है, और दो छोटे चैनलों के लोगों को गिरफ्तार किया गया है, और देश के सबसे विवादास्पद और चर्चित समाचार चैनल रिपब्लिक टीवी के लोगों को नोटिस देकर बुलाया गया है। पुलिस का दावा है कि रिपब्लिक टीवी ने लोगों को पैसे देकर अपना चैनल देखने का काम दिया, और यह काम उन घरों में दिया गया जहां पर दर्शकों की संख्या दर्ज करने के लिए अलग से बॉक्स लगे रहते हैं। कुल मिलाकर यह मामला अपनी दर्शक संख्या अधिक दिखाने के लिए की गई बेईमानी का है। जब इस जांच के खिलाफ रिपब्लिक टीवी सुप्रीम कोर्ट गया तो वहां अदालत ने उसकी याचिका सुनने से इंकार किया, और कहा कि किसी भी आम व्यक्ति की तरह इस चैनल को भी पहले हाईकोर्ट जाना चाहिए। अदालत ने पूछा कि पहले हाईकोर्ट क्यों नहीं गए? हाईकोर्ट के विचार किए बिना सीधे सुप्रीम कोर्ट अगर सुनवाई करेगा तो लोगों में यह संदेश जाएगा कि हमें (सुप्रीम कोर्ट) उच्च न्यायालयों पर विश्वास नहीं है।
 
लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले रिपब्लिक टीवी के मुखिया अर्नब गोस्वामी का एक मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, तो अदालत ने जिस रफ्तार से अर्नब के केस की सुनवाई की थी, और उन्हें राहत दी थी, उसे लेकर देश भर में लोगों के बीच कई सवाल उठे थे कि लॉकडाऊन में घर लौटते मजदूरों के मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास समय नहीं है, पूरे कश्मीर में इंटरनेट बंद रहने के मामले की सुनवाई के लिए समय नहीं है, एक अकेले अर्नब गोस्वामी के लिए समय है?
 
हम कानूनी बारीकियों में गए बिना सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि लोकतंत्र में न्यायपालिका को न सिर्फ ईमानदार और निष्पक्ष रहना चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। जब व्यापक जनहित के मुद्दे जिनसे करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं, वे धरे रह जाते हैं, और मशहूर या रईस लोग सुप्रीम कोर्ट में आनन-फानन में सुनवाई का मौका पा लेते हैं, जज ऐसे लोगों के मामले रात-बिरात घर में भी सुन लेते हैं, तो फिर लोगों की आस्था अदालतों से हिलना स्वाभाविक है। वैसे भी हिन्दुस्तान में न्याय की पूरी प्रक्रिया ताकतवर तबके, संपन्न तबके, और मुजरिमों के पक्ष में इतनी अधिक झुकी हुई दिखती है कि लोगों का भरोसा अदालती इंसाफ से घटते चले गया है। यह सिलसिला अगर थमा नहीं, तो न्यायपालिका पर रहा-सहा भरोसा भी खत्म हो जाएगा।
 
भारत में किसी जुर्म या बेइंसाफी के खिलाफ इंसाफ पाने की कोशिश थाने के स्तर से ही कुचल दी जाती है जैसा कि अभी हाथरस में बलात्कार की शिकार दलित लडक़ी के साथ हुआ, या यूपी के भाजपा विधायक सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली लडक़ी और उसके परिवार के साथ हुआ। यह छोटा सिलसिला नहीं रहता, यह बरसों तक शिकायतकर्ता को कुचलने का सिलसिला रहता है, और आसाराम से लेकर सेंगर तक के मामलों में हमने अनगिनत कत्ल होते देखे हैं जिन्हें हादसा बनाकर पेश किया जाता है। लोकतंत्र में जब सरकारें जुल्म करने वालों के साथ रहती हैं, तो अदालत के सामने जो तस्वीर पेश की जाती है, वह कोई जुर्म साबित करने के लिए काफी नहीं होती। अभी-अभी सीबीआई कोर्ट में बाबरी मस्जिद को गिराने को लेकर जिस तरह कोई जुर्म साबित नहीं हो पाया उसे लोगों ने न्याय की भ्रूणहत्या कहा है। अदालत वहीं से अपना काम शुरू कर सकती है जहां पर पुलिस या दूसरी जांच एजेंसी ने मामले को लाकर खड़ा किया है। अब जिस देश में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने गई लडक़ी के साथ थाना ही बलात्कार करने में जुट जाता है जहां पुलिस खुद ही मुठभेड़-हत्याओं की मुजरिम रहती है वहां पर अदालत में भला कौन जुर्म साबित करने वाले रहते हैं? ऐसे में बेकसूरों पर जुर्म साबित न हो जाए, लाश को ही कातिल करार देकर फांसी पर न टांग दिया जाए वही काफी माना जाना चाहिए।
 
देश की निचली अदालतों में भयानक भ्रष्टाचार सुनाई पड़ता है। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट के जजों में से बहुतों को भ्रष्ट कहते-कहते प्रशांत भूषण जैसे दिग्गज वकील की जिंदगी ही निकली जा रही है। और अब तो हाल के बरसों में जिस तरह रिटायर होने के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज सत्ता की मेहरबानी से पुनर्वास पा रहे हैं, उसके बाद लोगों का भरोसा अदालतों पर और घटा है। आज इस बारे में लिखने की जरूरत इसलिए है कि अर्नब गोस्वामी के केस में यह तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें याद दिलाया कि उन्हें आम लोगों की तरह पहले हाईकोर्ट जाना चाहिए। अगर आज अदालत ऐसा नहीं करती, और अर्नब गोस्वामी के कुछ महीने पहले के केस की तरह उन्हें सीधे राहत देती, तो लोगों के बीच अदालत पर भरोसा और टूटता। आज देश की इस सबसे बड़ी अदालत को यह देखना चाहिए कि व्यापक जनहित के मामले प्राथमिकता के आधार पर कैसे लिए जाएं, और निजी हित या कारोबारी हित के मामलों को न्याय की प्रक्रिया का नक्शा दिया जाए कि उन्हें किस रास्ते से चलकर जरूरत और नौबत आने पर सुप्रीम कोर्ट तक आना चाहिए। आज देश में कमजोर और ताकतवर के बीच इंसाफ पाने के हक में एक साफ फर्क दिखाई पड़ता है। यह फर्क लोकतंत्र के खात्मे का संकेत है, और सुबूत भी है। देश की न्याय व्यवस्था के काम और उसके तौर-तरीकों पर खुली बहस होनी चाहिए। जिस तरह हाल के महीनों में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आपको छुईमुई के पौधे की तरह अवमानना का हकदार माना है, और उस पर अदालत का खासा समय खर्च किया है, उतने समय में तो यह अदालत कश्मीर के लोगों के बुनियादी हक भी सुन सकती थी, और मजदूर-कानूनों की बांह मरोडऩे के खिलाफ तर्क भी सुन सकती थी। लोकतंत्र में व्यापक जनहित प्राथमिकता होना चाहिए, और यह बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत के जजों को ध्यान से समझनी चाहिए। 
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