विचार / लेख

माननीय जन प्रतिनिधि या अपराधी
17-Oct-2020 11:37 AM
माननीय जन प्रतिनिधि या अपराधी

    डॉयचे वैले पर महेश झा का लेख

आज भारत की संसद में हंगामा है. देश को चलाने वाले नेता एक दूसरे पर लांछन लगा रहे हैं. वे भूल रहे हैं कि लोकतंत्र को चलाना उनका दायित्व है. पहले संसद का, फिर लोकतंत्र का मखौल उड़ाकर, प्रतिष्ठा गिराकर उनका भी लाभ नहीं होगा.

लोकतंत्र में जनता सार्वभौम है और नेता जनता के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें मतदाता एक खास अवधि के लिए चुनता है और अपना सार्वभौम अधिकार सौंप देता है. इन नेताओं पर ही लोकतंत्र को चलाने की जिम्मेदारी होती है. अगर ये नेता लोकतंत्र की रक्षा न कर सकें तो उन्हें सार्वभौम अधिकार लेने का कोई हक नहीं. लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाना उनका मकसद नहीं होना चाहिए. संसद में जाने वाली देश की प्रमुख पार्टियां हैं, जो बदल बदल कर सरकार चलाती हैं. उन्हें संसद में और संसद के बाहर अपने आचरण पर विचार करना चाहिए. देश में ही नहीं विदेशों में भी उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है.

कृषि बिल पर राज्यसभा में जो कुछ हुआ वह किसी सच्चे लोकतंत्र को शोभा नहीं देता. संसद बहस के लिए है, नए कानूनों पर देश के विभिन्न हिस्सों के प्रतिनिधियों के तौर पर अपने मतदाताओं की आवाज पहुंचाने के लिए ताकि नया कानून पुख्ता हो और सबके हित में हो. भारत का चुनाव कानून यूं भी बहुमत मतदाताओं को नजरअंदाज करता है. निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले की जीत का मतलब अक्सर ये होता है कि न जीतने वाले उम्मीदवारों को पड़े वोट बेकार हो जाते हैं. सरकार बनाने का जिम्मा संसद या विधानसभा में बहुमत पाने वाली पार्टी का होता है. यहां भी चलती सिर्फ सरकारी पार्टी की है. संसद या विधानसभाओं में भी अगर विपक्ष की सुनी नहीं गई तो देश के ज्यादातर कानून लोगों के लाभ के लिए नहीं होंगे.

धरने पर बैठे निलंबित सांसद

आजादी के बाद के दशकों के कानूनों या सरकारी फैसलों को लें तो जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी की सरकार उनमें से ज्यादातर को बदल रही है, वह इस बात का सबूत है कि देश का नया बहुमत उन कानूनों के साथ जुड़ाव महसूस नहीं करता. इसलिए लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेना जरूरी है. नागरिक और पेशेवर संगठनों के माध्यम से चुनाव में हारे उम्मीदवारों के समर्थकों को साथ लेना जरूरी है. यह काम एक दूसरे को दुश्मन समझ कर नहीं हो सकता.

राज्यसभा में बैठे नेता एक दूसरे को जानते हैं, एक दूसरे के दोस्त हैं. पार्टी बदलकर इधर अधर आते जाते रहते हैं. किसी न किसी राज्य में उनकी पार्टियां सरकार में हैं या थीं. उन्हें संसद का इस्तेमाल अखाड़े के तौर पर नहीं करना चाहिए बल्कि सार्वभौमिक सत्ता के केंद्र के तौर पर. उप सभापति के साथ जो बर्ताव हुआ अच्छा नहीं हुआ. लेकिन विपक्ष के आठ सांसदों को जिस तरह निलंबित कर दिया गया है वह भी ठीक नहीं है. एक लोकतांत्रिक व्यवहार एक दूसरे को सजा देने में नहीं हो सकता. लोकतंत्र के रक्षकों को व्यवहार में भी लोकतांत्रिक मिजाज दिखाना चाहिए.

क्या एक परिपक्व परिवार में पिता हमेशा बेटे-बेटियों की पिटाई करता रहेगा, क्योंकि वे छोटे है. या फिर क्या ताकतवर हमेशा कमजोर को दबाता रहेगा. इन्हीं कमियों से निबटने के लिए लोकतंत्र की स्थापना हुई थी. और भारत में तो बिहार के वैशाली में लोकतंत्र की लंबी परंपरा रही है. सरकार भी देश की रक्षा के लिए बनी संस्थाओं से ताकत लेती है. उसे इस ताकत का इस्तेमाल विपक्ष या विरोधी आवाजों को दबाने के लिए नहीं बल्कि उनकी आवाज को शामिल करने के लिए करना चाहिए. लोकतंत्र की यही पहचान है. अगर संसदों के पास अपने सदस्यों को सजा देने के अधिकार है तो वे आज के जमाने से मेल नहीं खाते. संसद में विरोध करने वाले सदस्य अपराधी नहीं, उन्हें सजा देकर उन्हें अपराधी का दर्जा भी नहीं दिया जाना चाहिए.

आज की संसद किसी अंग्रेजी सरकार की संसद नहीं वह सार्वभौम भारत के नागरिकों द्वारा चुनी और सरकार बनाने और उस पर कंट्रोल करने वाली संसद है. उसे नई परंपराएं गढ़ने का हक है. जन प्रतिनिधि सभाओं के सदस्यों को भी मर्यादा को समझना होगा या साथ मिल बैठकर नई मर्यादाएं तय करनी चाहिए. हरिवंश एक प्रतिष्ठित पत्रकार रहे हैं, वे अगर ब्रिटिश परंपराओं को तोड़ पाते हैं, या तोड़ने में मदद दे पाते हैं, तो राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की तरह उन्हें भी लंबे समय तक याद किया जाएगा.  (dw.com)

 

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