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प्रो. अरुण कुमार: अर्थव्यवस्था की हालत आंकड़ों से कहीं ज्यादा खराब, लेकिन सरकार हकीकत स्वीकारने को तैयार नहीं
20-Oct-2020 9:45 AM
प्रो. अरुण कुमार: अर्थव्यवस्था की हालत आंकड़ों से कहीं ज्यादा खराब, लेकिन सरकार हकीकत स्वीकारने को तैयार नहीं

अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार सत्ता के खिलाफ बेबाक अंदाज में अपनी राय रखते हैं। पेंगुइन से आ रही उनकी नई किताब में कोविड के कारण अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े लाखों-करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिनने और इन लोगों को राहत देने के लिए सरकार की कोशिशों पर विस्तार से बात की गई है। प्रो. कुमार ने इन मसलों पर एन आर मोहंती के साथ खुलकर बातचीत की। पेश हैं बातचीत के अंशः

इस महामारी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा है, यह पुस्तक इसी पर है। खास तौर पर हफ्तों तक चले लॉकडाउन के कारण क्या असर पड़ा।

शायद नहीं। इबोला वायरस की तुलना में कोरोनावायरस कहीं आसानी से फैलता है। विशेषज्ञों का मानना है कि सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता तभी विकसित हो सकती है जब 60 फीसदी भारतीय संक्रमित हो जाएं। अगर 2 फीसदी संक्रमित लोगों की मृत्यु हो जाती तो भी 1.6 करोड़ लोगों की जान जा सकती थी। उस हालत में हमें अस्पतालों में कम-से-कम 4 करोड़ बिस्तरों का इंतजाम करना पड़ता जो हमारे देश के लिए संभव ही नहीं था। इसलिए लॉकडाउन को टाला नहीं जा सकता था। लेकिन तब सरकार को लॉकडाउन के विपरीत असर को कम करने के उपाय पहले से ही करने चाहिए थे। अफसोस की बात है कि हम ऐसा नहीं कर सके और इसका असर यह हुआ कि लॉकडाउन का उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सका। दूसरी ओर, चीन ने वुहान में यही काम बड़ी कामयाबी के साथ किया और वह वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने में कामयाब रहा।

जान और रोजी-रोटी के सवालों पर भारत की कोशिशें निराश करने वाली रहीं। खुद सोचिए, जंग के समय कोई सरकार किस तरह के काम करती है। लॉकडाउन और उसके बाद के हालात किसी भी जंग से बदतर ही थे। जंग के समय उत्पादन पूरी क्षमता पर हो रहा होता है क्योंकि मांग बढ़ जाती है और ऐसे में रोजगार के मौके बढ़ जाते हैं। लेकिन इस महामारी में आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर उत्पादन एकदम रुक-सा गया, मांग बुरी तरह ठप हो गई और इसके कारण लाखों-लाख लोगों का काम छूट गया, उन्हें वेतन मिलना बंद हो गया। ऐसे समय में जब मांग और आपूर्ति- दोनों बुरी तरह प्रभावित हो चुकी हो, सरकार के लिए जरूरी था कि वह रोजगार के अवसर पैदा करने, मांग को बढ़ाने और उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहित करने के कदम उठाती। इसमें संदेह नहीं कि सरकार वह सब करने में विफल रही जो वक्त के लिहाज से जरूरी था। उदाहरण के लिए, सरकार ने मनरेगा के लिए 40,000 करोड़ अतिरिक्त धनराशि का आवंटन किया जबकि लॉकडाउन की वजह से बेकार हो गए लोगों को काम देने के लिए ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में कम-से-कम 4,00,000 करोड़ अतिरिक्त धनराशि की जरूरत थी। वैसे ही शहरी गरीबों के रोजगार के लिए भी सरकार को ठोस उपाय करना चाहिए था लेकिन इन दोनों ही मोर्चों पर सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया।

आपको इस बात पर गौर करना चाहिए कि सरकार ने बेशक 20 लाख करोड़ का पैकेज घोषित किया लेकिन राजस्व पर वास्तविक भार तो 2 लाख करोड़ का ही था और फिर यह जीडीपी का महज 1 फीसदी होता है। इसके अलावा बाकी तो उत्पादन बढ़ाने के लिए व्यवसायियों को तरलता उपलब्ध कराने के उपायों से जुड़ा था। लेकिन सोचने वाली बात है कि जब मांग तलहटी में चली गई हो तो कौन उद्यमी भला उत्पादन बढ़ाना चाहेगा? सरकार को चाहिए था कि मांग बढ़ाने के उपाय करती। और यह तभी हो सकता था जब सरकार खुद बुनियादी ढांचे- जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाकर बड़े पैमाने पर रोजगार के मौके तैयार करती। जब किसी अर्थव्यवस्था में 20 करोड़ रोजगार खत्म हो गए हों और मांग एकदम ठहर गई हो, केवल सरकारी निवेश ही अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर ला सकती है। लेकिन सरकार ने इस तरह की कोई कोशिश नहीं की।

आंकड़े जो भी कह रहे हैं, अर्थव्यवस्था की वास्तविक हालत उससे कहीं अधिक खराब है। इसकी वाजिब वजह है। हमारे पास जो भी आंकड़ें हैं, वे औपचारिक क्षेत्र के हैं जबकि हमारे 90 फीसदी से ज्यादा लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अगर इन दोनों क्षेत्रों को मिलाकर देखें तो शायद पिछली तिमाही के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था 50 फीसदी से ज्यादा ही सिकुड़ चुकी होगी। लगातार दो से तीन साल की मशक्कत के बाद ही पुरानी स्थिति पाई जा सकेगी। संकट से निपटने के लिए सरकार को वैसे उपाय करने होंगे जिससे कम समय में अतिरिक्त पैसे का इंतजाम हो सके। अत्यधिक धनी लोगों पर अधिक कर लगाकर और सरकारी अधिकारियों का वेतन घटाकर यह काम किया जा सकता है। अगर जंग छिड़ी होती और तब इन धनी लोगों को जितना पैसा देना पड़ता, उससे कहीं ज्यादा देने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। इसके साथ ही महामारी के बाद से ही सरकारी कर्मचारी जिस सुरक्षित माहौल और भाव के साथ नौकरी कर रहे हैं, उनमें भी ऊपर के ब्रैकेट वालों को वेतन कटौती के लिए तैयार रहना होगा। यहां तक कि रिटायर होने के बाद पेंशन के रूप में बड़ी धनराशि ले रहे लोगों को भी बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। इन्हीं कदमों से आज की चुनौतियों से निपटा जा सकता है।

इसके अलावा सरकार को कोविड बॉण्ड लाने के बारे में सोचना चाहिए। इन बॉण्ड में ब्याज दर सावधि जमा से थोड़ी अधिक हो जिससे लोग इसमें निवेश के लिए प्रेरित हो सकें और ऐसी स्कीम में धनाढ्य वर्ग से लेकर मध्यम आय वर्ग के लोगों को समान रूप से छूट दी जानी चाहिए। आर्थिक चुनौतियों से निपटने के एक और तरीके के तौर पर घाटे के एक हिस्से की भरपाई के लिए आरबीआई को आगे आना चाहिए। मुद्दे की बात यह है कि सरकार कुछ भी करके मोटी धनराशि का इंतजाम करे और फिर उसे बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं पर खर्च करे, तभी अर्थव्यवस्था में जल्दी सुधार की उम्मीद की जा सकती है।

यह तो वैसी ही बात है जैसे आपके घर में आग लगी हो और सरकार कह रही हो कि वह आपके घर के पास ही फायर स्टेशन खोलने पर विचार कर रही है ताकि अगली बार जब आपके सामने ऐसी समस्या आए तो आप उसका सामना कर सको। दीर्घकालिक और मध्यम आवधिक रणनीतियां जरूरी होती हैं लेकिन यह तो बड़ी सामान्य समझ की बात है कि ये तात्कालिक और अल्पकालिक जरूरतों की विकल्प नहीं हो सकतीं। चाहे कुछ भी हो, हम बहाना बनाकर हाथ पर हाथ रखकर बैठ नहीं सकते। संकट से निकलने के किसी भी रास्ते में आपको कदम तो उठाने ही पड़ेंगे।(navjivan)

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