विचार / लेख

पांडुरंग शास्त्री जैसा कोई और नहीं
20-Oct-2020 6:18 PM
पांडुरंग शास्त्री जैसा कोई और नहीं

बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

आज पांडुरंग शास्त्री आठवलेजी का 100 वां जन्मदिन है। मैं उनकी तुलना किससे करुं? पिछले 100 वर्षों में ऐसे कई महापुरुष हुए हैं, जिनके नाम विश्व इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हुए हैं लेकिन अकेले आठवलेजी ने वह चमत्कारी काम कर दिखाया है, जो बस उन्होंने ही किया है, किसी और ने नहीं। महाराष्ट्र और गुजरात में खास तौर से और भारत तथा अन्य लगभग 30 देशों में उनके 50 लाख से भी ज्यादा अनुयायी रहे हैं। अब से लगभग 25 साल पहले मेरे वरिष्ठ सहपाठी डॉ. रमन श्रीवास्तव और गांधीवादी सज्जन श्री राजीव वोरा ने आठवलेजी के ‘स्वाध्याय आंदोलन’ को देखने-परखने का आग्रह मुझसे किया। उनके आग्रह पर मैंने आठ दिन महाराष्ट्र के जंगलों, समुद्र-तटों और पहाडिय़ों में बिताए। वहां आदिवासियों, दलितों, ग्रामीणों, मुसलमानों, अशिक्षित गरीबों और मछुआरों से रोज भेंट होती थी और रोज रात को दादा (आठवलेजी) के भक्तों के बीच मेरा भाषण होता था।

मैं यह देखकर दंग रहा जाता था कि गांवों के ये सब लोग शाकाहारी बन गए थे। मछुआरों ने भी मछली खाना छोड़ दिया था। कई डाकुओं ने डाकाजनी, हत्या और चोरी-चकारी छोडक़र ‘स्वाध्याय’ के भक्तिमार्ग को अपना लिया था। अपने भाषणों में जो प्रतिक्रिया मेरी होती थी, उसे मुंबई के श्री महेश शाह दादा को रोज रात को फोन पर बता दिया करते थे। यह मुझे तब पता चला, जब मैं एक बड़े समारोह में पहली बार दादा से मुंबई में मिला। दादा ने मुझसे कहा कि ‘स्वाध्याय’ के बारे में आपकी प्रतिक्रिया वही है, जो कभी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की थी।उसके बाद दादा जब तक जीवित रहे (2003), वे मुझे हर समारोह में विशेष अतिथि के तौर पर बुलाते थे। उनके साथ मैंने मुंबई, राजकोट, पुणे आदि में कई सभाओं को संबोधित किया। उनके वार्षिक उत्सवों में 20 से 25 लाख भक्तों की उपस्थिति साधारण बात थी। इतने लोग तो मैंने किसी प्रधानमंत्री की सभा में भी नहीं देखे और न ही सुने। उनकी सभा के लिए साल भर पहले से या तो समुद्र में हजारों नावों की व्यवस्था की जाती थी या फिर जंगलों को साफ-सूफ किया जाता था। मंच पर प्राय: वे और मैं ही बैठते थे।

मैंने उनकी सभाओं में कई सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों और उप-प्रधानमंत्री को भी नीचे बैठे हुए देखा है। वे परम विद्वान और अदभुत वक्ता थे। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की है। वे अत्यंत प्रेमल और भावुक व्यक्ति थे। उनका मूल-मंत्र बस एक ही था कि मेरे हृदय में भी वही भगवान बैठा है जो तेरे हृदय में है। इसीलिए तू हिंसा मत कर, चोरी मत कर, झूठ मत बोल, धोखा मत दे। 2003 में जब मधुमेह के कारण उनका एक पांव डॉक्टरों को आधा काटना पड़ा तो उन्होंने मुझे फोन किया। उस दिन मैं दुबई में था। दूसरे दिन जब मैं उनसे मुंबई में मिला तो उन्होंने कहा कि इस स्वाध्याय आंदोलन को मैं आपके जिम्मे करता हूं। इसे आप चलाएं। इसके 50 लाख भक्त हैं। इसकी 400 करोड़ रु. की संपत्तियां हैं और यह कई देशों में फैला हुआ है। दादा का यह उत्तराधिकार लेने से मेरे मना करने पर यह उन्होंने अपनी भतीजी जयश्री तलवलकर को सौंप दिया। आज ‘दादा’ जैसे महापुरुषों की देश को सख्त जरुरत है। उन्हें मेरा हार्दिक और विनम्र प्रणाम !

 (नया इंडिया की अनुमति से)

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