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दिल्ली के व्यक्ति को पूछताछ के लिए कोलकाता बुलाने का क्या मकसद?
29-Oct-2020 6:18 PM
दिल्ली के व्यक्ति को पूछताछ के लिए कोलकाता बुलाने का क्या मकसद?

DW

नई दिल्ली, 29 अक्टूबर | अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा में मील का पत्थर बन सकता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला. लेकिन क्या अदालत की टिप्पणी से सरकारों की मनमानी आखिरकार थमेगी?

हाल के वर्षों में सोशल मीडिया की स्वीकार्यता और पहुंच बढ़ी है. लेकिन सरकारों और राजनीतिक दलों को इन पर होने वाली खरी टिप्पणियां बर्दाश्त नहीं होतीं. इसलिए सरकार के फैसलों की आलोचना करने वालों के खिलाफ मनमाने तरीके से दूर-दराज के शहरों में केस दर्ज कर दिए जाते हैं. अब सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला इस मामले में मील का पत्थर साबित हो सकता है. अदालत ने पश्चिम बंगाल की सरकार और कोलकाता पुलिस को आईना दिखाते हुए उनको सीमा पार नहीं करने की चेतावनी दी है. उसने कहा है कि सोशल मीडिया पर आलोचना के लिए किसी नागरिक के खिलाफ देश के दूर-दराज के हिस्से में मामले दर्ज कर उनको परेशान नहीं किया जा सकता. इसे अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की दिशा में एक ऐतिहासिक फैसला माना जा रहा है.

बोलनेकीआजादीकीरक्षा

दरअसल, रोशनी बिश्वास नामक एक 29 वर्षीय महिला ने कोरोना की वजह से लागू लॉकडाउन के दौरान कोलकाता के मुस्लिमबहुल राजाबाजार इलाके में इसके उल्लंघन की आलोचना करते हुए सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाली थी. इसके बाद कोलकाता पुलिस ने उस महिला पर अपनी पोस्ट के जरिए एक खास समुदाय के प्रति नफरत फैलाने का आरोप लगाते हुए उसके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया था. उसके बाद कलकत्ता हाईकोर्ट ने उस महिला को पूछताछ के लिए कोलकाता पुलिस के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया था. इसके खिलाफ महिला ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. उसकी अपील पर सुनवाई के बाद ही न्यायमूर्ति वाईबी चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ ने सरकार और पुलिस को लताड़ते हुए उनको सीमा में रहने की नसीहत दी है. अदालत का कहना था कि सरकार की आलोचना करने वाले सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर देश के किसी दूसरे हिस्से में रहने वाले नागरिकों को परेशान नहीं किया जा सकता.

खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत नागरिकों को दी जाने वाली बोलने की आजादी की वकालत करते हुए कहा कि अगर तमाम राज्यों की पुलिस इस तरह आम लोगों को समन जारी करने लगेगी तो यह एक खतरनाक ट्रेंड बन जाएगा, "आपको सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए. भारत को एक आजाद देश की तरह बर्ताव करना चाहिए. हम बतौर सुप्रीम कोर्ट बोलने की आजादी की रक्षा के लिए यहां हैं."

सरकारकेखिलाफलिखनेकीहिम्मतकैसे

पश्चिम बंगाल सरकार के वकील आर बसंत ने अदालत से कहा कि महिला से सिर्फ पूछताछ की जाएगी, उनको गिरफ्तार नहीं किया जाएगा. लेकिन खंडपीठ ने कहा कि पुलिस उसे मेल से सवाल भेज कर या फिर वीडियो कॉनेफ्रेंसिंग के जरिए पूछताछ कर सकती थी, "दिल्ली में रह रहे व्यक्ति को पूछताछ के लिए कोलकाता बुलाने का मकसद ही उसे परेशान करना है. कल को मुंबई, मणिपुर या फिर चेन्नई की पुलिस ऐसा ही करेगी. आप बोलने की आजादी चाहते हैं या नहीं." सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि कोलकाता से जांच अधिकारी को दिल्ली आकर पूछताछ करनी चाहिए. महिला से पूछताछ में सहयोग करने को कहा गया है.

सुनवाई के दौरान महिला के वकील महेश जेठमलानी ने कहा कि कोलकाता पुलिस का इरादा महिला को सामने बुलाने और उसे डराने-धमकाने का था. राज्य सरकार के वकील की दलील थी कि महिला को पुलिस के समक्ष पेश होना पड़ेगा. पूछताछ के लिए पेशी से छूट के नतीजे खतरनाक होंगे. इस आधार पर हर अभियुक्त खुद के बेकसूर होने का दावा करते हुए फायदा उठाने का प्रयास करेगा. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के वकील की खिंचाई करते हुए कहा, "ऐसा लग रहा है जैसे आप उस महिला से कहना चाहते हैं कि सरकार के खिलाफ लिखने की हिम्मत कैसे हुई. हम उसे समन के नाम पर देश के किसी भी कोने से घसीट सकते हैं.”

सरकारोंकोलेना होगा सबक

सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करने वालों के खिलाफ राज्य सरकार की सक्रियता का यह पहला मामला नहीं है. इससे पहले एक कार्टून फॉरवर्ड करने के मामले में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को भी गिरफ्तार किया गया था. बीते साल मई में बीजेपी की युवा मोर्चा नेता प्रियंका शर्मा को भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कार्टून पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उसे 14 दिन पुलिस हिरासत में रहना पड़ा था. उस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने प्रियंका को जमानत पर रिहा करते हुए सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी. इन दोनों के अलावा भी सोशल मीडिया पोस्ट पर सरकार की आलोचना करने वाले लोगों के खिलाफ मामले दर्ज कर उनको गिरफ्तार किया जाता रहा है.

कानूनविदों का कहना है कि शीर्ष अदालत का यह फैसला और उसकी कटु टिप्पणियां अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकती हैं. लेकिन इसके लिए सरकारों को इस फैसले से सबक लेना होगा. साथ ही इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए मौजूदा कानून में कुछ संशोधन भी जरूरी है ताकि किसी भी नागरिक के खिलाफ मनमाने तरीके से देश में कहीं भी प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सके.

हथियारकेतौरपरइस्तेमाल

कलकत्ता हाईकोर्ट के वकील संजीत सेनगुप्ता कहते हैं, "सरकारें अपनी आलोचना सह नहीं पा रही हैं. इसलिए किसी पोस्ट के नागवार गुजरते ही सरकार के संकेत पर पुलिस सक्रिय हो जाती है. ऐसे मामलों का अकेला मकसद संबंधित व्यक्ति को सबक सिखाना होता है. बाद में ऐसे मामले या तो खारिज हो जाते हैं या फिर पुलिस व सरकार उनको वापस ले लेती हैं. ज्यादातर मामलों में अपराध साबित नहीं होता. लेकिन सोशल मीडिया पर खुद को अभिव्यक्त करने वाले को सजा देने की पुलिस और सरकार की मंशा तो पूरी हो जाती है.”

कानून के प्रोफेसर कुशल कुमार गांगुली कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी अहम तो है. लेकिन कुछ दिनों में पुलिस और सरकारें इसको भुला देंगी. अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के प्रति सरकारों की जवाबदेही तय करने के लिए मौजूदा कानूनों में संशोधन भी जरूरी है. इसके तहत यह अनिवार्य किया जा सकता है कि प्राथमिकी वहीं दर्ज की जा सकेगी जहां कथित अपराध हुआ है. इसके साथ ही ऐसी गलती पर सरकार या पुलिस के खिलाफ कार्रवाई का भी प्रावधान किया जाना चाहिए ताकि पुलिस ऐसा करने से पहले दो बार सोचे." वह कहते हैं कि फिलहाल तो राज्य की सरकारें और पुलिस इसे एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं. इस खतरनाक प्रवृत्ति पर नकेल कसना जरूरी है. ऐसा नहीं हुआ तो केरल के व्यक्ति की किसी पोस्ट पर पूर्वोत्तर या कश्मीर में मामला दर्ज कर उसे पूछताछ का समन भेजने जैसे मामले सामने आते रहेंगे.

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