संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कपिल मिश्रा को कुछ घंटे बारूद के धुएं वाले चेम्बर में बंद करके फिर पूछें...
07-Nov-2020 1:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कपिल मिश्रा को कुछ घंटे बारूद के धुएं वाले चेम्बर में बंद करके फिर पूछें...

photo courtesey : Indian Express

भारत की राजधानी दिल्ली एक बार फिर बुरे प्रदूषण से घिर गई है। और ऐसे में दिल्ली सरकार ने पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया है। आज 7 नवंबर से 30 नवंबर तक लगाए गए इस प्रतिबंध के खिलाफ दिल्ली के एक चर्चित और विवादास्पद भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने सरकार पर हमला बोला है, और कहा है कि हर साल दीवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध क्या जायज है? सरकार को हिन्दू धर्म के त्यौहारों पर तो बैन लगाना आता है, लेकिन क्या सरकार कभी यह हुक्म दे सकती है कि ईद और क्रिसमस कैसे मनाए जाएंगे?

यह सवाल बेवकूफों और साम्प्रदायिक लोगों के लिए तो जायज हो सकता है जिन्हें दीवाली और क्रिसमस-ईद में सरकार का प्रतिबंध का फर्क साम्प्रदायिक दिखेगा, और हिन्दुओं पर आसानी से मार करने की बात समझ आएगी। यह सवाल उठाने वाले कपिल मिश्रा पहले भी घोर भडक़ाऊ और साम्प्रदायिक बयान देते आए हैं, और केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस की मेहरबानी से बचते आए हैं। अब एक बार फिर उन्होंने अलग-अलग धर्मों को लेकर यह सवाल उठाया है और केजरीवाल सरकार के साथ-साथ ईद और क्रिसमस पर भी हमला बोला है।

लेकिन जो तथ्य देश की सतह पर तैर रहे हैं, उनको न छूकर केवल ऐसा बयान देना एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी की बात है जिसके लिए कपिल मिश्रा को भारी शोहरत हासिल है। आज देश में कम से कम दो भाजपा सरकारें, कर्नाटक और हरियाणा में दीवाली पर पटाखों पर रोक लगाई है। तो क्या ये दोनों सरकारें ईद और क्रिसमस पर कोई और रोक लगा रही हैं? दोनों ही राज्यों में खासे वक्त से भाजपा की सरकारें हैं, और कई ईद, कई क्रिसमस निकल चुकी हैं, अब तक तो ईद और क्रिसमस पर कोई रोक सुनाई नहीं पड़ी है, तो कपिल मिश्रा के पैमाने पर इन सरकारों को दीवाली के पटाखों पर रोक का कोई नैतिक अधिकार तो होना नहीं चाहिए। लेकिन दिल्ली की बात करते हुए कपिल मिश्रा भाजपा के इन राज्यों के लगाए प्रतिबंध को अनदेखा कर रहे हैं, और भेदभाव फैलाने वाले बयानों की यही खूबी होती है।

अब पल भर तो कपिल मिश्रा से अलग होकर बात करें, तो दीवाली के पटाखे किन बस्तियों और इलाकों में अधिक जलेंगे? कौन लोग उन्हें अधिक जलाएंगे? किनकी सांसों में बारूद का जहरीला धुआं सबसे पहले जाएगा? ये तमाम लोग हिन्दू समाज के होंगे, या कम से कम पटाखे जलाने वालों में हिन्दुओं की बहुतायत होगी। जो साम्प्रदायिक लोग दीवाली को एक हिन्दू त्यौहार मानते हैं, और इस हकीकत को अनदेखा करते हैं कि भारत में इसका एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक पहलू भी है, और सभी धर्मों के लोग इसमें शामिल होते हैं, हम उन्हीं के तर्क का इस्तेमाल करके पटाखों से होने वाले सीधे नुकसान से हिन्दुओं की बहुतायत को जोड़ रहे हैं। अभी कोरोना के खतरे के बीच जिस धर्म के भी त्यौहार अराजकता के साथ मनाए गए, कोरोना का संक्रमण और खतरा उन्हीं धर्मों के लोगों पर अधिक आया। अब ऐसी रोक को अगर किसी धर्म पर नाजायज प्रतिबंध माना जाए, तो अराजकता को बढ़ाने वाले लोग उन्हीं धर्मों के लोगों का नुकसान कर रहे हैं, उन्हीं की जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं। अगर किसी प्रतिबंध का विरोध अपने लोगों को खतरे से बचाने के लिए होता है, उनको नुकसान से बचाने के लिए होता है, तो वह जायज होगा। लेकिन जो दिल्ली प्रदूषण से जूझने के सौ किस्म के उपाय कर रही है, जो आसपास के प्रदेशों में खेतों में फसल के बचे हुए ठूंठ, पराली, को जलाने पर भी कानूनी कार्रवाई करने की अपील कर रही है, उस दिल्ली में अगर प्रदूषण घटाने के लिए पटाखों पर रोक लगाई जा रही है तो उसे एक धर्म से जोडक़र उसका विरोध करना अराजकता को बढ़ाना और साम्प्रदायिकता को भडक़ाना है।

जो लोग पटाखों को हिन्दू धर्म से जोडक़र देखते हैं, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि रावण को मारकर जिस दिन राम अयोध्या लौटे थे, उस दिन अयोध्या में रौशनी करके लोगों ने दीवाली मनाई थी। क्या उस दिन हिन्दुस्तान में बारूद था? क्या उस दिन, उस युग में बारूद का आविष्कार भी हुआ था? क्या तुलसीदास से लेकर वाल्मीकि तक किसी ने पटाखों का जिक्र किया है? जो बात दीवाली की बुनियाद की असली पौराणिक कथा में नहीं है, आज उसे उस धर्म का अनिवार्य हिस्सा क्यों बना देना? मस्जिदों पर लगे हुए लाउडस्पीकरों पर अजान दी जाती है, और उसे लेकर भी यह सवाल उठाया जाता है कि जिस दिन कुरान लिखी गई थी, जब इस्लाम और अजान शुरू हुए, उस दिन क्या लाउडस्पीकर थे? और यह सवाल जायज है, सभी धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर हटने चाहिए क्योंकि आमतौर पर धर्मस्थलों के इर्द-गिर्द उन्हीं धर्मों को मानने वाले अधिक रहते हैं, और किसी भी किस्म के धार्मिक शोरगुल से उन्हीं का नुकसान अधिक होता है। दीवाली के पटाखे वैसे तो आसपास के सौ-दो सौ किलोमीटर तक प्रदूषण बढ़ाते हैं, लेकिन सबसे अधिक प्रदूषण तो उन्हें जलाने वाले लोगों को ही शिकार बनाएगा।

आज देश में बहुत से लोगों को धर्मान्धता बढ़ाने और साम्प्रदायिकता खड़ी करने के लिए ऐसे बखेड़े खड़े करने की आदत है, यह उनका पेशा है, और यह अपने संगठनों के बीच अपनी जगह मजबूत करने की उनकी स्थाई और लगातार कोशिश बनी रहती है। लेकिन देश की सरकारों को सख्ती से यह रोक लगानी चाहिए। आज कोरोना से उबरे हुए लोगों को भी सांस की कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना के बाद की यह पहली दीवाली है, और हर शहर में ऐसे दसियों हजार लोग हैं जो कोरोना से तो बच गए हैं, लेकिन सांस की दिक्कतों को झेल रहे हैं। जिन लोगों को भी यह लगता है कि लोगों की सांसों से अधिक अहमियत हिन्दू त्यौहार पर पटाखों की है, उन्हें बारूद के धुएं वाले गैस चेम्बर में कुछ घंटे बंद रखना चाहिए, और उसके बाद उनसे दुबारा राय लेनी चाहिए। कपिल मिश्रा जैसे लोग ऐसे कुछ घंटों के बाद कलपते मिश्रा बनकर निकलेंगे, और हिन्दू-मुस्लिम भडक़ाऊ बातें बोलना भूल जाएंगे। लोकतंत्र का मतलब लोगों को खतरे में डालने का हक नहीं होना चाहिए। कपिल मिश्रा कल तक अरविंद केजरीवाल की पार्टी में थे, आज वे एक राष्ट्रीय पार्टी भाजपा में हैं, उनकी पार्टी को भी यह सोचना चाहिए कि जब खुद की दो राज्य सरकारों ने पटाखों पर रोक लगाई है, तो उसके बाद देश की राजधानी के अपने नेता को भडक़ाऊ बातें करने से रोके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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