संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राज्य सरकारों को अपनी जनता की समझ पर इतना शक भी नहीं करना चाहिए
09-Nov-2020 8:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  :  राज्य सरकारों को अपनी जनता की समझ पर इतना शक भी नहीं करना चाहिए

भारत के नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने दिल्ली समेत पूरे राजधानी क्षेत्र में आज आधी रात से 30 नवंबर तक के लिए पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल पर पूरी रोक लगा दी है। यह आदेश देश के और दर्जनों शहरों-कस्बों पर भी लागू हो रहा है जहां पिछले बरस नवंबर में वायु प्रदूषण से जीना मुश्किल हो रहा था। इसके लिए वैज्ञानिक पैमाने तय किए गए हैं जिन पर अधिक चर्चा यहां जरूरी नहीं है। 

हमने दो दिन पहले इसी जगह इस बात पर लिखा है कि पटाखों पर रोक को हिन्दू धर्म पर हमला मानने वाले नेता अपनी बकवास से हिन्दुओं का ही अधिक नुकसान कर रहे हैं क्योंकि बारूदी धुएं का पहला हमला तो अमूमन हिन्दू फेंफड़ों पर ही होता है। आज भी कुछ प्रदेशों में दीवाली पर पटाखों पर रोक लगाई है, और कई प्रदेशों में लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि बारूद के धुएं का जहर किसी धार्मिक परंपरा को नहीं देखता, और अपने दायरे में आने वाले तमाम फेंफड़ों पर हमला करता है। 

अब सवाल यह है कि जिस प्रदेश में जो पार्टी विपक्ष में रहती है, आमतौर पर उसे ही सरकार के किसी भी तरह के प्रतिबंध नाजायज लगते हैं। और बात सिर्फ पटाखों पर रोक की नहीं है, कभी लोगों को हेलमेट पहनाने की कोशिश हो, तो भी ऐसा ही होता है। विपक्ष की पार्टी तुरंत ही सडक़ों पर उतर आती है, और पुलिस की कार्रवाई के लिए तानाशाही, लोगों पर जुल्म जैसे नारे लगने लगते हैं। उस वक्त नेतागिरी करती पार्टियां और उसके नेता यह नहीं देखते कि हेलमेट पहनने से नुकसान किसी का नहीं होता, लेकिन किसी सडक़ हादसे की नौबत आने पर सिर पर चोट लगने से मौत या स्थाई विकलांगता का खतरा घट जाता है, तकरीबन मिट ही जाता है। लेकिन लोगों की जिंदगी और मौत की फिक्र किए बिना यह नेतागिरी चलती रहती है। 

ऐसी नेतागिरी धार्मिक विसर्जन पर भी अड़ी रहती है, फिर चाहे उससे नदी और तालाब प्रदूषण से खत्म ही क्यों न हो जाएं। ऐसी नेतागिरी शहरों की खासी चौड़ी सडक़ों को किनारे की दुकानों के बाहर फैले सामानों से पटवाने में लगी रहती है, फिर चाहे उसकी वजह से रात-दिन ट्रैफिक जाम क्यों न होता रहे, और थमी हुई गाडिय़ों की वजह से प्रदूषण ही क्यों न बढ़ जाए। 

विपक्ष से सत्ता में आने के लिए कुछ नेता तो ऐसी नेतागिरी में लगे रहेंगे, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार में बैठे लोगों को यह भी देखना चाहिए कि उनका कार्यकाल पूरा होने तक प्रदेश में अराजकता को और कितना बढ़ाया जाएगा? प्रदेश सरकारों के सामने एक बड़ी चुनौती यह रहती है कि जनता पर नियम-कायदों का अनुशासन लागू करने से कुछ तो लोग नाराज होते हैं, और बाकी लोगों को विपक्ष अपने भडक़ावे से नाराज कर देता है। ऐसे में सत्ता इस बात से हड़बड़ा जाती है कि आने वाले चुनाव में नाराज वोटर कहीं सत्तारूढ़ पार्टी को न निपटा दें। अब छत्तीसगढ़ जैसा राज्य जिसमें विधानसभा चुनाव के बाद बनने वाली राज्य सरकार अगले करीब एक बरस में लोकसभा चुनाव और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव, दोनों से फारिग हो जाती है। इसके बाद साढ़े तीन बरस का एक लंबा कार्यकाल ऐसा मिलता है जिसमें सरकार जनता की भलाई के लिए जनजीवन पर कड़ाई लागू कर सकती है, और अपने प्रदेश को बेहतर बना सकती है। ऐसे चुनावों का कैलेंडर हर प्रदेश में अपना-अपना रहता है, लेकिन चुनावों के बीच के वक्त को हर किसी को नियम-कायदे लागू करके जनता का व्यापक भला करने की कोशिश करनी चाहिए। इसमें ट्रैफिक के नियम भी लागू होते हैं, शहरों में अवैध कब्जे और अवैध निर्माण पर कार्रवाई भी लागू होती है, और छोटे-छोटे दूसरे सार्वजनिक नियम भी लागू होते हैं। अगर कोई सरकार पूरे पांच बरस लोकलुभावन-मोड पर ही काम करती रहेगी तो वह अपने को मिले प्रदेश को बर्बाद करके अगली सरकार को देगी। चुनावी-राजनीति की यह मजबूरी तो हो सकती है कि सत्तारूढ़ पार्टी चुनावों के कुछ महीने पहले से जनता पर सरकार की कड़ाई को रूकवा दे, लेकिन हिन्दुस्तान के बहुत से प्रदेशों का यह तजुर्बा रहा है कि जब व्यापक जनकल्याण के लिए बिना भेदभाव नियम-कायदे लागू किए जाते हैं, तो लोग उनका बुरा नहीं मानते। 

छत्तीसगढ़ से लगे हुए महाराष्ट्र के नागपुर में बहुत बरस पहले एक म्युनिसिपल कमिश्नर तैनात किए गए थे। चन्द्रशेखर नाम के इस अफसर की साख कड़ाई बरतने वाले की थी। राज्य सरकार ने शहर को सुधारने के लिए उसे खुली छूट भी दी थी। कुछ महीनों में चन्द्रशेखर ने शहर की तमाम बड़ी सडक़ों के किनारे के अवैध निर्माण और अवैध कब्जे हटाकर शहर को एक बिल्कुल नई शक्ल दे दी थी। जनता की सहूलियत स्थाई रूप से हमेशा के लिए बढ़ गई थी जो कि आज कुछ दशक गुजर जाने पर भी बेहतर बनी हुई है। 

महाराष्ट्र के नागपुर में इस अफसर की तैनाती के पहले भी म्युनिसिपल और शासन के नियम वही थे जिनका इस्तेमाल करके इसने शहर को एकदम सुधार दिया था। आज हालत यह है कि जिन राज्यों में कोई चुनाव नहीं है, वहां भी सरकारें हेलमेट, या मास्क, या गाड़ी चलाते मोबाइल के इस्तेमाल जैसे नियम-कायदे लागू नहीं कर पा रही हैं, लागू नहीं करना चाहती हैं। वोटरों को इस तरह गुदगुदाते हुए रहना ठीक नहीं है, खुद उनके लिए ठीक नहीं है क्योंकि मजबूत हो चुकी बदइंतजामी वोटरों की ही अगली पीढ़ी को एक बुरी जिंदगी देकर जाएगी। इसलिए राज्य सरकारों को चुनावों के बीच के वक्त का इस्तेमाल करके बिना भेदभाव की कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि अगले चुनाव आने के पहले वोटरों को उसका फायदा भी दिख सके। देश के जिन प्रदेशों या शहरों में हेलमेट अनिवार्य रूप से लागू है, वहां सिर की चोट से सडक़ों पर मौतें बहुत घट जाती हैं। सरकारों को अपनी इस कानूनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि लोगों को अगर लापरवाह और गैरजिम्मेदार बनाया जाता है, तो वह लापरवाही और गैरजिम्मेदारी महज हेलमेट के मामले में नहीं रहती, वह कोरोना और मास्क जैसे मामलों में भी हावी हो जाती है। वोटरों को खुश रखने के दो तरीके हो सकते हैं, एक तो यह कि उन्हें तमाम नियम तोडऩे की छूट देकर खुश रखा जाए, और दूसरा यह कि उनके भले के नियमों को लागू करके उनकी जिंदगी पीढिय़ों के लिए महफूज और बेहतर बनाई जाए। सरकारों को जनता की समझ पर इतना बड़ा शक नहीं करना चाहिए कि वह अपनी भलाई के लिए सरकार की कड़ाई के फायदे भी नहीं देख पाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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