संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मिठाई और सजावट के इस मौके पर कचरे की कुछ अटपटी चर्चा
12-Nov-2020 5:24 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मिठाई और सजावट के  इस मौके पर कचरे की कुछ अटपटी चर्चा

देश की अर्थव्यवस्था कितनी ही खराब क्यों न हों, महीनों बाद ठीक से खुले बाजार, और दीवाली जैसा बड़ा त्यौहार, इन दोनों के चलते कुछ खरीददारी होते दिख रही है। और इसके साथ ही लोगों के घरों में तरह-तरह से पैकिंग पहुंच रही है। संपन्न तबका ऑनलाईन खरीदी कर रहा है क्योंकि बाजार जाने से बचना हो जाता है, समय बचता है, और बहुत से सामान बाजार के मुकाबले ऑनलाईन सस्ते मिलते हैं। ये सारे सामान खासी पैकिंग सहित आते हैं। संपन्न तबकों में दीवाली पर तोहफों का लेन-देन भी होता है, और तोहफे ऐसी पैकिंग में ही रखे जाते हैं कि वे खासे बड़े लगें, उनमें माल कम होता है, पैकिंग अधिक होती है। कुल मिलाकर यह वक्त लोगों के घरों में उनकी खरीदी, और तोहफे पाने की क्षमता के अनुपात में कागज, पुट्ठे, और पॉलीथीन के इकट्ठा होने का है।

घरों के बाहर डाल दिए गए कचरे को देखें, या म्युनिसिपल की कचरा गाडिय़ों को देखें, इनमें फ्रिज-टीवी जैसे बड़े सामानों के बड़े बक्से भी दिखते हैं, और कई दूसरे किस्म की पैकिंग भी। जो राज्य सभ्य और समझदार हैं, या जिन शहरों की म्युनिसिपल जागरूक और जिम्मेदार है, वहां पर घरों में ही कचरे की छंटनी लागू की गई है, और अलग-अलग किस्म का कचरा सीधे री-साइकिलिंग तक चले जाता है, दुबारा इस्तेमाल हो जाता है।

त्यौहार के इस मौके पर लोगों को कचरे की चर्चा बुरी लग सकती है क्योंकि अभी तो घर को सजाने, रौशन करने, पूजा की तैयारी करने, और मिठाई बनाने का मौका है। यह भी भला कोई वक्त है कचरे की चर्चा करने का? लेकिन हमारे हिसाब से यही वक्त कचरे की चर्चा का है क्योंकि इसी वक्त घर पर पैकिंग जैसा कचरा खूब सा निकल रहा है, या निकल सकता है, घरों की सफाई में भी सूखा कचरा निकल सकता है, और इन सबको अगर कचरा बीनने वालों को सीधे ही बुलाकर दे दिया जाए, तो धरती पर कचरे का निपटारा भी अच्छे से हो सकता है, और कचरा बीनकर धरती को जिंदा रहने लायक रखने वाले लोगों की दीवाली भी हो सकती है। जब ये लोग घूरे पर मिले-जुले कचरे में से बीन-बीनकर कागज और पु_े के सामान अपने बोरों में भरते हैं, पॉलीथीन और प्लास्टिक दूसरे बोरे में भरते हैं, तो इन्हें अगर घूरे से परे लोगों के घरों से सीधे ही यह कचरा मिल जाए, तो उनकी भी जिंदगी बदल सकती है, और धरती की भी। जिन लोगों को यह लगता है कि धरती की जिंदगी अनदेखी की जा सकती है, उन्हें यह समझना चाहिए कि धरती की जिंदगी से बेहतर जिंदगी इंसानों की कभी भी नहीं हो सकती। धरती जितनी बर्बाद रहेगी, इंसानों की जिंदगी उससे कुछ अधिक ही बर्बाद रहेगी।

दीवाली पर जो भयानक कबाड़-कचरा घूरों पर पहुंचता है, कचरा ले जाने वाली गाडिय़ों पर लदता है, उसे देखकर समझ आता है कि जो कंपनियां भारी-भरकम पैकिंग में सामान बेचती हैं, उन पर पैकिंग का एक गार्बेज-टैक्स (कचरा-टैक्स) क्यों नहीं लगाना चाहिए? हर प्रदेश को चाहिए कि अपने प्रदेश में आने वाले सामानों में से इस्तेमाल होने वाले सामान, और पैकिंग के सामान का अलग-अलग वजन लिखना अनिवार्य करे, और पैकिंग के सारे सामान पर एक निपटारा-टैक्स लगाए कि धरती पर लादे जा रहे इस प्रदूषण से निपटना भी सामान बनाने और बेचने वालों की जिम्मेदारी है। एक इत्र की शीशी 50 एमएल इत्र की होती है, लेकिन उसकी बोतल का कांच, उसका ढक्कन, उसका पु_े का डिब्बा 200 ग्राम से अधिक का होता है। बहुत सी चीजों में इसी तरह गैरजरूरी पैकिंग रहती है, और कारोबार की गैरजिम्मेदारी तोडऩे के लिए राज्यों को इस तरह का कचरा-निपटारा-टैक्स लागू करना चाहिए। समझदार राज्य यह नहीं देखेंगे कि शुरूआत में कारोबार को दिक्कत होगी, टैक्स बहुत कम मिलेगा, और मेहनत अधिक करनी पड़ेगी। समझदार राज्य यह देखेंगे कि धरती पर इस किस्म की पहल करने वाले वे पहले राज्य की तरह दर्ज हो सकते हैं, और ऐसा रिकॉर्ड बनाने से परे वे अपने प्रदेश में कचरे के बोझ को घटा भी सकते हैं।

लेकिन यह तो हुई सरकार की बात, हम त्यौहार के मौके पर जनता की बात कर रहे हैं, और धरती को साफ रखने वाले, खतरा उठाकर मेहनत करने वाले लोगों की बात कर रहे हैं। लोगों को चाहिए कि अपनी बाकी जिंदगी, और अपनी अगली पीढ़ी की पूरी जिंदगी के लिए एक जिम्मेदार नागरिक बनकर रहें। इंसान की कोई औकात नहीं है कि वह धरती को खत्म कर सके, लेकिन कुछ सौ बरस में वे धरती को इतना बर्बाद जरूर कर सकते हैं कि धरती उनके खुद के रहने लायक न रह जाए। लोगों को दीवाली की साफ-सफाई में घर के गैरजरूरी सामानों को निकालकर आसपास के उन लोगों को देना चाहिए जिन्हें कि उनकी जरूरत है, और जो पुराने सामानों को इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करेंगे। इसके अलावा किसी भी किस्म के घूरे को बढ़ाना अपने खुद के लिए आत्मग्लानि का काम होना चाहिए क्योंकि फिजूल के सामान और कचरे को अलग-अलग करके आसपास से निकलने वाले कचरा बीनने वालों को देकर सबका भला किया जा सकता है। घर के एक कोने में कागज-पु_े, प्लास्टिक, पॉलीथीन जैसे सामानों को इक_ा करके रखना चाहिए, और कचरा बीनने वालों को बुलाकर दे देना चाहिए। उन्हें अगर एक बार बता देंगे कि हर महीने-पन्द्रह दिन में आते-जाते वे कचरे का पूछ लिया करें, तो आपका खुद का, कचरे वालों का, और धरती का, सबका भला हो सकता है, होगा।

दीवाली का मौका मरम्मत का रहता है, सुधार का रहता है, और लोगों के घर-दुकान से बहुत सारा बिल्डिंग-मलबा भी निकलता है। आमतौर पर लोग गैरजिम्मेदार रहते हैं, और ऐसे मलबे को भी घूरे पर डाल देते हैं जो कि म्युनिसिपल पर बहुत बड़ा बोझ रहता है। ऐसे कचरे को अलग से निपटाना चाहिए, और कोई कल्पनाशील और जिम्मेदार म्युनिसिपल हो तो वह शहरों में कई जगहों पर ऐसे छोटे क्रशर लगा सकती हैं जो कि मलबे को फिर से रेत-गिट्टी जैसा बारीक बनाकर पाटने या भवन निर्माण के किसी काम के लायक बना दे।

देश में ही कई प्रदेशों में जिम्मेदार म्युनिसिपल कार्पोरेशनों ने ऐसा किया है। एक तरफ तो इंदौर जैसा शहर सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना खर्च करके सबसे साफ शहर का तमगा हासिल करता है, दूसरी तरफ दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपल ऐसे हैं जिन्होंने कचरे को छांटना और उसे म्युनिसिपल की तय जगह तक पहुंचाना नागरिकों की ही जिम्मेदारी बना दिया है। वे कचरे पर खर्च करने के बजाय उससे सिर्फ कमाई कर रहे हैं, और वहां के नागरिक जिम्मेदार बनने के बाद अब अगली पीढ़ी को भी जिम्मेदारी सिखा रहे हैं। लेकिन देश के बाकी अधिकतर प्रदेशों में राज्य सरकारों से लेकर म्युनिसिपलों तक लोग लुभावने और फिजूल के कामों में लगे हैं, और बुनियादी काम किनारे खिसका दिए गए हैं।

एक बार फिर आखिर में हम लोगों से कहना चाहते हैं कि किसी गैरजिम्मेदार सरकार और म्युनिसिपल के तहत जीते हुए भी जिम्मेदार नागरिक बना जा सकता है। जो गरीब लोग कचरा बीनकर जिंदा रहते हैं, उनकी मदद भी की जा सकती है, और यह सब करते हुए इस धरती को भी अपनी अगली पीढ़ी के जिंदा रहने लायक छोड़ा जा सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

 

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