संपादकीय
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के साथ कल दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में लक्ष्मी पूजा करने जा रहे हैं। पूरा मंत्रिमंडल लक्ष्मी पूजा करे ऐसा देश का यह पहला मौका रहेगा, और वे किसी निजी प्रार्थना के साथ नहीं, बल्कि दिल्ली के कल्याण की सार्वजनिक प्रार्थना के साथ यह पूजा करेंगे। भारत का संविधान हर मुख्यमंत्री को इस किस्म की लचीली आजादी देता है कि वे अपने धर्म का सार्वजनिक रूप से भी प्रदर्शन कर सकें। वे पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने मंत्रिमंडल जैसी एक औपचारिक संवैधानिक शक्ति को लेकर एक धार्मिक अनुष्ठान करना तय किया है। फिर भी दीवाली की लक्ष्मी पूजा को हम धार्मिक परंपरा के साथ-साथ एक सांस्कृतिक परंपरा भी मानते हैं, और इसमें हम कोई बुराई नहीं देखते। नेहरू के वक्त भी भारत के सरकारी दफ्तरों और सरकारी कारखानों में लक्ष्मी पूजा होती थी जो कि धार्मिक होने से अधिक सांस्कृतिक होती थी, और अनगिनत मामलों में सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों के मुस्लिम या ईसाई, या किसी और धर्म के गैरहिन्दू भी पूजा में बैठते थे। कभी किसी धर्म को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई थी। इसलिए हम भारत की एक मजबूत सांस्कृतिक परंपरा की एक कड़ी के रूप में ही केजरीवाल की इस पहल को ले रहे हैं, और इसमें बुनियादी रूप से आलोचना के लायक कुछ नहीं है।
लेकिन एक दूसरा सवाल यहां उठ खड़ा होता है, अक्षरधाम मंदिर में इस पूजा को करने का। दिल्ली में मंदिरों की कोई कमी तो है नहीं, और लक्ष्मी पूजा मंदिरों में होती भी नहीं है, लोग अपने घर-दफ्तर, दुकान-कारोबार में ऐसी पूजा करते हैं। इसलिए केजरीवाल यह पूजा कहीं भी कर सकते थे, इसके लिए अक्षरधाम मंदिर की जरूरत नहीं थी। अब अक्षरधाम मंदिर के साथ कुछ दिक्कतें हैं जिनको समझना जरूरी है। स्वामीनारायण सम्प्रदाय का यह मंदिर दिल्ली में एक दर्शनीय ढांचा तो है, लेकिन बहुत लोगों को यह बात नहीं मालूम है कि पूरे का पूरा स्वामीनारायण सम्प्रदाय महिलाओं से परले दर्जे का भेदभाव करता है। इससे सन्यासी या स्वामी किसी महिला को देख भी नहीं सकते, सुन भी नहीं सकते। इसके प्रमुख स्वामी जिस सभागार में बैठते हैं, उसके खुले दरवाजे के सामने से किसी महिला को भी निकलने की इजाजत नहीं होती है। लंदन में बसे एक लेखक ने इंटरनेट पर लिखा है कि उसकी चार बरस उम्र की बेटी लंदन में स्वामीनारायण स्कूल में पढ़ती है। स्कूल के सभागार में सम्प्रदाय के एक संत का कार्यक्रम था। तमाम लड़कियों को हॉल के पीछे बिठाया गया था। जब बच्चों से कहा गया कि वे कोई सवाल कर सकते हैं, तो इस बच्ची ने कुछ पूछने के लिए हाथ उठाया। उसे अनदेखा कर दिया गया, और उसे बिठा दिया गया। बाद में एक लडक़े के पूछे गए सवाल का जवाब संत ने दिया, लेकिन इस बच्ची की तरफ देखा भी नहीं। एक और मौके पर जब यही लेखक स्वामीनारायण मंदिर में अपनी छह महीने की बेटी को गोद में लेकर गया तो उसे वहां सभागार में भीतर जाने नहीं मिला क्योंकि उसकी गोद में लडक़ी थी, फिर चाहे वह छह महीने की थी। इस सम्प्रदाय के कार्यक्रमों में जाने के बाद भी इस लेखक ने लिखा कि शुरूआत से सम्प्रदाय के स्कूलों में और कार्यक्रमों में यह सीख मिल जाती है कि लड़कियां और महिलाओं का दर्जा नीचा है।
स्वामीनारायण सम्प्रदाय को लेकर यह विवाद कोई नया नहीं है, बहुत बार महिलाओं के साथ इस सम्प्रदाय के भेदभाव सामने आते रहते हैं, लेकिन जैसे कि कोई भी सम्प्रदाय अपनी कट्टर बातों पर ही जिंदा रहता है, यह सम्प्रदाय भी महिलाओं के खिलाफ परले दर्जे का भेदभाव करते हुए अपनी शुद्धता को इस तरह साबित करते रहता है जिससे बिना कहे यह बात साबित होती है कि महिलाएं नीचे दर्जे की हैं। अगर इसके पीछे सम्प्रदाय के संत-सन्यासी का ब्रम्हचर्य कायम रखने की कोई नीयत है, तो इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है कि चार बरस या छह महीने की बच्ची की ओर देखने से भी अगर इसके स्वामी और सन्यासी का ब्रम्हचर्य खतरे में पड़ता है, तो इनको अपने इलाज की जरूरत है, न कि किसी अनुशासन की।
ऐसा भी नहीं है कि केजरीवाल सरकार किसी दूसरे देश से आकर दिल्ली के इस मंदिर में पूजा कर रही है, और उसे इस सम्प्रदाय से जुड़े ऐसे विवादों की खबर नहीं है। हिन्दुस्तान में किसी भी जागरूक व्यक्ति को इसके बारे में मालूम है, और राजनीति में देश की राजधानी की मुख्यमंत्री को इसकी खबर न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। ऐसे में एक देवी, लक्ष्मी, की पूजा के लिए ऐसे मंदिर को छांटना जहां महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, उन्हें हिकारत और नीची नजर से देखा जाता है, यह एक बहुत खराब फैसला है। ऐसे भेदभाव वाले सम्प्रदाय का सरकार को सरकारी स्तर पर बहिष्कार करना चाहिए, केजरीवाल चाहें तो निजी स्तर पर वे किसी भी साधू, सन्यासी, या तथाकथित संत के भक्त हो सकते हैं। इस देश में इंदिरा गांधी ने जाकर मचान पर लटके बैठने वाले देवरहा बाबा के लटके हुए पैर के नीचे अपना सिर टिकाकर आशीर्वाद लिया था, इस देश में बलात्कारी आसाराम के भक्तों में नरेन्द्र मोदी से लेकर दिग्विजय सिंह तक हजारों नेता थे। निजी स्तर पर केजरीवाल किन पैरों पर अपना सिर टिकाते हैं, यह उनका निजी हक हो सकता है, हालांकि इस देश के एक सबसे महान नेता जवाहरलाल नेहरू ने पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के धार्मिक कर्मकांडों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर असहमति और नाराजगी जाहिर की थी, लेकिन नेहरू के वक्त की समझदारी नेहरू के साथ खत्म हो गई, उनकी ही अगली पीढ़ी ने, उनकी ही पार्टी ने उस समझदारी को नेहरू की पहली बरसी के पहले ही कबाड़ी को बेच दिया था। इसलिए अब तमाम लोग, वामपंथियों को छोडक़र, एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। हैरानी यह है कि सोशल मीडिया, और बाकी मीडिया पर केजरीवाल की लक्ष्मी पूजा की घोषणा के बाद से अभी तक ऐसे कोई सवाल हमको तो नहीं दिखे हैं जो कि उनके पूजास्थल की पसंद को गलत बता रहे हों। हो सकता है आगे जाकर कुछ लोग इस पर लिखें, लेकिन हम इस मंदिर में जाकर पूरे मंत्रिमंडल द्वारा पूजा करने के सख्त खिलाफ हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)