संपादकीय
आज देश में केन्द्र की मोदी सरकार के कामकाज के मीडिया कवरेज में सबसे खास दर्जा पाई हुई समाचार एजेंसी एएनआई ने जम्मू-कश्मीर से तस्वीरों सहित एक खबर पोस्ट की है। उधमपुर की इस खबर में बताया गया है कि किस तरह एक मुस्लिम परिवार पिछले 25 बरसों से हर त्यौहार पर फूल बेचते आ रहा है। तस्वीरों में दिखाया गया है कि यह परिवार दीवाली पर भी फूल बेच रहा है, और इस पर एक दुकानदार ने कहा है कि इनकी त्यौहार मनाने की भावना साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है।
ऐसी खबरें बहुत से बड़े और प्रमुख अखबारों या टीवी चैनलों पर भी अजब-गजब जैसी हैरानी के साथ दिखती हैं। कभी कोई रिक्शेवाला किसी सवारी का छूटा हुआ बैग लौटाने की मशक्कत करता है, तो उसे लेकर भी ईमानदारी अभी जिंदा है किस्म की सुर्खियां अखबारों में देखने मिलती हैं। ऐसी हैडिंग से लगता है कि ईमानदारी अमूमन मर चुकी है, और गिने-चुने लोगों में ही यह जिंदा है। हकीकत यह है कि आमतौर पर सुर्खियां बटोरने वाले नेताओं, अफसरों, कारोबारियों में जरूर ईमानदार लोगों का अनुपात घट गया है, लेकिन मेहनतकश आम लोगों में तो लोग ईमानदार ही हैं। इसलिए जब कोई गरीब किसी पाए हुए सामान को पहुंचाने की कोशिश करते हुए थाने पहुंचते हैं, या सडक़ किनारे राह देखते खड़े रहते हैं, तो वे अपने बुनियादी चरित्र के मुताबिक काम करते हैं।
अब जिस खबर को लेकर आज की बात लिखी जा रही है, वह खबर हैरान नहीं करती, उसे खबर बनाया गया है, यह हैरान करता है। लोग दूसरे धर्म के त्यौहारों या जलसों पर अपने सामान बेचते हैं, या अपनी सेवाएं बेचते हैं, तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव से भी पहले अपने खुद के जिंदा रहने की एक कोशिश होती है। हिन्दुस्तान में हिन्दुओं की शादियों में मेहंदी लगाने वाली से लेकर दुल्हन के कपड़ों को सिलने, उनमें जरी-गोटा लगाने, उसके लिए लाख की चूडिय़ां बनाने जैसे दर्जनों काम आमतौर पर मुस्लिम ही करते दिखते हैं। शादी की घोड़ी मुस्लिम लेकर आते हैं, बैंडपार्टी में बड़ी संख्या में मुस्लिम होते हैं, आतिशबाजी, लाउडस्पीकर, और जनरेटर से लगाने वाले सेट मुस्लिम ही होते हैं। यह तो हुई शादी-ब्याह की बात, लेकिन लोगों ने रूबरू देखा हुआ है कि अमरनाथ यात्रा से लेकर दूसरी अनगिनत तीर्थयात्राओं तक कांवर ढोने के काम में मुस्लिम लगे रहते हैं, और तीर्थयात्री तो जिंदगी में दो-चार बार अमरनाथ जाते होंगे, ऐसे कांवर उठाने वाले, घोड़े वाले मुस्लिम तो तीर्थयात्रा के दिनों में रोजाना ही यात्रियों को ले जाते हैं। अभी दो दिनों से दिल्ली के बहुत से लोगों ने हजरत निजामुद्दीन दरगाह की तस्वीरें पोस्ट की हैं जहां दीवाली पर खास साज-सज्जा की गई है, और वहां के लोग बताते हैं कि दीवाली मना रहे हिन्दू भी साल के इस खास दिन दरगाह पर भी प्रार्थना करने आते हैं। पूरा देश हाल के बरसों तक अलग-अलग धर्मों के तानों-बानों से बुना हुआ एक कपड़ा रहा है जिसे अब तार-तार करने की बहुत सी कोशिशें हो रही हैं।
लोगों को एक मुस्लिम फूल वाले को हिन्दू त्यौहार पर फूल बेचते देखने के लिए जम्मू-कश्मीर जाने की जरूरत नहीं है, अपने ही शहर में देख लें, जैन-मारवाड़ी, या गुजराती मेवे वाले रमजान और ईद के वक्त क्या खजूर सामने सजाकर नहीं रखते, या मुस्लिम मेवे वाले हिन्दू त्यौहारों के समय मेवे की खास पैकिंग बनाकर नहीं सजाते? यह तो बिना किसी साम्प्रदायिक सद्भाव के भी कारोबारी समझदारी है कि ग्राहक किसी भी धर्म के हों, उनके नोट का तो एक ही धर्म होता है। ऐसा कौन सा शहर होगा जहां फूल बेचने वाले अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग होंगे? एक कारोबारी समझदारी को जब मीडिया एक साम्प्रदायिक सद्भाव समझ ले, तो यह जाहिर है कि देश की हवा दिल्ली के बाहर भी बहुत खराब हो चुकी है, और दिमाग पर भी असर कर चुकी है।
हिन्दुस्तान गंगा-जमुनी तहजीब का देश रहा है, और बीच के इन कुछ बरसों को छोड़ दें, तो शायद आगे भी रहेगा। दिक्कत यह है कि जिन पेशों में लोगों से समझदारी और जिम्मेदारी की उम्मीद की जाती है, उनकी अपनी कमसमझी उनकी खबरों में सिर चढक़र बोलती है। और यह तो दिखने वाली खबरों में बोलती है, न दिखने वाली खबरों में, न लिखी जाने वाली खबरों में असली सद्भाव की जाने कितनी ही बातें दब जाती होंगी। इसलिए मीडिया के कारोबार में लगे लोगों में, समाचार और विचार लिखने वाले लोगों में, व्याकरण चाहे कमजोर हो, लोकतंत्र और इंसानियत की बुनियादी समझ मजबूत रहना चाहिए। इस देश में हिन्दुओं का कोई त्यौहार मुस्लिमों के बनाए सामानों, और उनके किए गए कामों के बिना पूरा नहीं होता है, और तो और हिन्दुओं के उपवास में आम नमक से परे जिस सेंधे नमक का इस्तेमाल होता है, वह भी पाकिस्तान के सिंध के इलाके से निकलकर आता है, और उसके बिना तो यहां हिन्दुओं का उपवास न हो सके।
इसलिए मीडिया के लोगों को साम्प्रदायिक सद्भाव नाम के शब्दों को एकदम हल्का भी नहीं बना लेना चाहिए कि दीवाली पर हिन्दुओं को फूल बेचना मुस्लिम कारोबारी का कोई साम्प्रदायिक सद्भाव है। साम्प्रदायिक सद्भाव की असली मिसालें हमारी जिंदगी में कदम-कदम पर भरी हुई हैं, और मीडिया में आमतौर पर सुर्खियों पर काबिज नेताओं को छोड़ दें, तो साम्प्रदायिक सद्भाव तो इस देश की बुनियादी समझ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)