विचार / लेख

असदउद्दीन ओवैसी की AIMIM मुसलमानों के लिए मसीहा या मुसीबत?
20-Nov-2020 1:39 PM
असदउद्दीन ओवैसी की AIMIM मुसलमानों के लिए मसीहा या मुसीबत?

-ज़ुबैर अहमद

इस समय भारतीय मुसलमानों का राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता है? - अक्सर वो लोग जो ये सवाल करते हैं कि भारतीय मुसलमानों में लीडरशिप की कमी है उनके लिए इम्तियाज़ जलील का सीधा जवाब है - एआईएमआईएम के अध्यक्ष भारतीय मुसलमानों के एक ही लीडर हैं.

इम्तियाज़ जलील ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन या एआईएमआईएम के महाराष्ट्र से चुने सांसद हैं. उनके इस दावे को चुनौती देने वालों से वो पूछते हैं, "आप दूसरा कोई मुसलमान नेता बताएं?"

अपने नेता का नाम लेकर, एक और सवाल करते हैं, "मुसलमानों का उतना ही लोकप्रिय नेता बता सकते हैं जितना ओवैसी साहब हैं? इतना डट कर, जम कर बोलने वाले, संसद के अंदर मुसलमानों के लिए बोलने वाले किसी और (मुस्लिम) नेता का नाम बता दीजिये? किसी भी राज्य और शहर में पूछ लीजिये आपको कोई दूसरा नाम मिलेगा ही नहीं."

इम्तियाज़ जलील अपनी पार्टी को भी वही दर्जा देते हैं जो वो अपने नेता को देते हैं.

बिहार विधानसभा के चुनाव में पांच सीटें जीतने के बाद कहा ये जा रहा है कि एआईएमआईएम मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन कर उभरी है और इसके अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी समुदाय के सबसे बड़े नेता के रूप में सामने आए हैं.

एआईएमआईएम का गठन साल 1927 में हुआ था. शुरूआत में ये पार्टी केवल तेलांगना तक महदूद थी. 1984 से ये पार्टी लगातार हैदराबाद लोकसभा सीट से जीतती आ रही है.

2014 में हुए तेलांगना विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सात सीटें जीती और 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीतने के बाद इस पार्टी ने अपना दर्जा एक छोटी शहरी पार्टी से हटाकर राज्य स्तर की पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया.

बिहार में जीत दर्ज करने के बाद पार्टी के हौसले बुलंद हैं. तेलंगाना और महाराष्ट्र के बाद पार्टी ने अब बिहार में अपना खाता खोला है और अपने मुख्यालय हैदराबाद के बाहर विधानसभा की सबसे अधिक सीटें पहली बार जीती है.

पार्टी ने अब पश्चिम बंगाल में अपनी क़िस्मत आज़माने का फ़ैसला किया है जहाँ चुनाव अगले छह महीने के भीतर होने वाला है. बिहार की तुलना में यहां मुसलमानों की कहीं बड़ी आबादी है.

पार्टी उत्तर प्रदेश में 2017 में कई सीटों पर ज़मानत ज़ब्त होने के बाद भी 2022 के विधानसभा चुनाव में भाग लेने की बात कर रही है.

इम्तियाज़ जलील का कहना है पार्टी की चुनावी सफलता के पीछे ओवैसी पर लोगों का बढ़ता विश्वास भी है.

वो कहते हैं, "लोगों को अब एहसास हो रहा है कि ओवैसी थोड़ा तीखा बोलेगा, थोड़ा टेढ़ा बोलेगा लेकिन जो बोलेगा वो सच बोलेगा. लोगों को उनकी ज़बान पसंद नहीं आती होगी, उनको लगता होगा कि उनका लहज़ा सही नहीं है लेकिन वो सही बात करेगा."

मुस्लिम समुदाय में फिलहाल बहस का मुद्दा ये है कि क्या एआईएमआईएम समुदाय के लिए एक मसीहा बन कर उभर रही है या फिर ये आगे चल कर समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ा कर सकती है?

हैदराबाद के ज़ैद अंसार, पार्टी के पक्के समर्थकों में से एक है. वो कहते हैं, "मुसलमानों को देश की सियासत और सत्ता से दूर रखने की कोशिश की जा रही है. हमें लगता है कि हम अनाथ हैं. हमारे लिए कोई बोलने वाला नहीं. वो पार्टियाँ जो हमारा वोट हासिल करती आई हैं वो भी ख़ामोश रहती हैं. ऐसे में ओवैसी साहब ने हमें आवाज़ दी है, हमारे हक़ में बोलते हैं जिससे हमें ताक़त मिलती है."

सांसद इम्तियाज़ जलील पहले तो ये साफ़ करते हैं कि उनकी पार्टी केवल मुसलमानों की पार्टी नहीं है. वो कहते हैं कि पार्टी ने कई दलितों और हिंदुओं को चुनाव में टिकट दिए हैं, ख़ास तौर से स्थानीय चुनावों में.

लेकिन वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनकी पार्टी सियासी सिस्टम में मुसलमानों के सिकुड़ते स्पेस को पूरा कर रही है.

वो कहते हैं, "हमने कभी और कहीं पर ये नहीं कहा है कि एआईएमआईएम मुसलमानों की ही पार्टी है. ये सही बात है कि मुसलमानों के सबसे ज़्यादा मुद्दे हैं इस वजह से इन मुद्दों को जब कोई नहीं उठता है तो हम को उठाना पड़ रहा है. अगर दूसरी पार्टियाँ मुसलमानों के मुद्दे उठाती तो मेरे विचार में हमारी पार्टी को वो स्पेस ही नहीं मिला होता."

कहा ये जा रहा है कि मुस्लिम युवाओं में एआईएमआईएम को खासी लोकप्रिय हासिल है.

मुंबई में एक कंपनी में मैनेजर की पोस्ट पर काम करने वाली दीबा अरीज किराये के अपने मकान को बदलना चाहती हैं. लेकिन उनके अनुसार उन्हें मुसलमान होने के नाते दूसरा घर नहीं मिल पा रहा है. उनका ब्वॉयफ़्रेंड एआईएमआईएम के समर्थक हैं लेकिन वो ख़ुद ओवैसी या ज़ाकिर नाइक जैसे मुस्लिम नेताओं को पसंद नहीं करतीं.

वो कहती हैं, "मैं हमेशा ओवैसी के बढ़ते फेम (लोकप्रियता) से परेशान थी. अपने ब्वॉयफ़्रेंड और उनके दोस्तों से हमारा कई बार इस मुद्दे पर झगड़ा भी हो चुका है. मैं सेकुलर मुस्लिम परिवार से हूँ. लेकिन जब मेरे साथ धर्म के नाम पर भेदभाव होने लगा, घर ढूंढने में दिक्कत होने लगी, तो मेरे ज़ेहन में बात घूमने लगी कि क्या अब तक मैं ग़लत थी और मेरा ब्वॉयफ़्रेंड और उसके एआईएमआईएम समर्थक सही थे?"

दीबा को अब भी किराए पर घर नहीं मिला है. लेकिन इस कड़वे अनुभव के बावजूद वो कहती है कि वो ओवैसी की सियासत का विरोध करती रहेंगी क्योंकि कि उनकी सियासत "मुस्लिम समाज के लिए नुक़सानदेह है".

फहद अहमद भी मुंबई में रहते हैं. वो टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के छात्र हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में रुचि के कारण वो चुनाव के दौरान बिहार में ही थे.

उनका कहना है कि एआईएमआईएम के पक्ष या विरोध में दिए जा रहे दोनों तरह के तर्क को वो सही नहीं मानते. वो कहते हैं कि मुसलमान युवाओं में ये एहसास है कि सेकुलर पार्टियाँ मुस्लिम मुद्दे उठाती नहीं हैं और ओवैसी ऐसे मुद्दे उठाते हैं.

वो कहते हैं, "ओवैसी को सेकुलर पार्टियां एक पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल कर रही हैं. उनको अगर आप एक लगाओगे तो वापस आपको ही चोट लगेगी."

फहद अहमद के अनुसार ओवैसी की पार्टी का पनपना अंततः मुसलमानों के हक़ में नहीं है. उनके विचार में अगर सेकुलर पार्टियां नौजवान, उभरते हुए मुसलमान नेताओं को जगह दें तो ओवैसी की अहमियत ख़ुद-बख़ुद से कम हो जाएगी.

28 जनवरी 2020 को मुंबई के बायकुला में आयोजित असदउद्दीन ओवैसी की रैली में शामिल भीड़

एआईएमआईएम एक सांप्रदायिक पार्टी?
ये बात सही है कि असदउद्दीन ओवैसी अक्सर संसद में मुसलमान समुदाय से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं. चाहे वो बाबरी मस्जिद पर फ़ैसले का मुद्दा हो, कथित 'लव जिहाद का' मुद्दा हो या फिर नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी का.

उनकी आवाज़ संसद में गूंजती है और अक्सर दूसरे नेताओं की तुलना में वो बेहतर तर्क देते सुनाई देते हैं. वो बेबाक तरीके से ख़ुल कर बोलते दिखते हैं.

लेकिन ये भी सही है कि एक तरफ़ आम मुसलमानों में पार्टी की लोकप्रियता बढ़ रही है तो दूसरी तरफ़ मुस्लिम समाज के एक बड़े तबक़े में इससे चिंता भी है.

इंडियन मुस्लिम फ़ॉर प्रोग्रेस एंड रिफ़ॉर्म की सदस्य शीबा असलम फ़हमी कहती हैं, "(एआईएमआईएम का लोकप्रिय होना) बिलकुल ख़तरनाक है. ये बहुत अफ़सोसनाक़ भी है. हम लोगों को उम्मीद नहीं थी कि 1947 में जो इलाक़े बंटवारे से बेअसर रहे वहां पर टू-नेशन या दो क़ौमों का जो तसव्वुर है वो उन इलाक़ों में परवान चढ़ाया जा सकता है."

"उन इलाक़ों से होकर बँटवारे की लकीर नहीं गुज़री, न उन इलाक़ों ने नफ़रतें देखी थीं, न शरणार्थियों का आना देखा था, न लुटे सरदारों और बंगालियों का आना देखा था. इतना आसान है कि कितना भी नाकाम प्रधानमंत्री हो उसके सामने कोई मुसलमान आकर कहे कि हम मुसलमान हैं हम मुसलमानों की सियासत करेंगे तो फिर उसके लिए कुछ ज़्यादा मेहनत करने के लिए बचता ही नहीं है."

शीबा कहती हैं कि भारत के मुसलमानों को साम्प्रदायिकता की जगह सेकुलर सिस्टम की सबसे अधिक ज़रुरत है. इसी सिस्टम में मुसलमान सुरक्षित रह सकता है.

वो कहती हैं, "देखिये मुझे बहुत साफ़ दिख रहा है कि बीजेपी चाहती है कि उनका विपक्ष उनकी पसंद का होना चाहिए और ओवैसी साहब से वो अपनी पसंद का विपक्ष पैदा करवा रहे हैं. ये एक आज्ञाकारी विपक्ष है जो बीजेपी को सूट करता है."

शीबा आगाह करना चाहती हैं कि स्थिती देश के बँटवारे से पहले की तरह से बनती जा रही है. उनके अनुसार इसकी असल ज़िम्मेदार बीजेपी है जिसे देश की अखंडता से अधिक हिन्दू राष्ट्र बनाने की पड़ी है.

हालांकि राजनीतिक विश्लेषक और स्वराज इंडिया के नेता योगेंद्र यादव ओवैसी के बढ़ते प्रभाव को सेक्लुर राजनीति की हार और सेकुलर पार्टियों की राजनीति की विफलता मानते हैं.

अपने एक वक्तव्य में वो कहते है कि "बंटवारे के बाद मुसलमानों ने कभी मुस्लिम पार्टी को वोट नहीं दिया. अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने मुस्लिम नेताओं का सहारा नहीं लिया क्योंकि उनका मानना था कि जो पार्टी बहुसंख्यकों का ख़याल रख सकती है वो उनके हितों का भी ख़याल रख सकती है."

"लोकतंत्र के लिए यही सबसे ख़ूबसूरत चीज़ होती है. लेकिन इस देश की सेकुलर पार्टियों ने मुसलमानों को वोट का बंधक बनाने की कोशिश की है. मुसलमान तंग आ चुका है इस राजनीति से."

इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के कामयाब उम्मीदवारों में से एक शकील अहमद ख़ान ओवैसी के उदय की तुलना बिहार के दिवंगत नेता सैयद शहाबुद्दीन से करते हैं जिन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के दौर में मुसलमानों के मुद्दे उठाये थे और समुदाय के राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने की कोशिश की थी.

एआईएमआईएम की बढ़ती लोकप्रियता के कारण
एआईएमआईएम मुसलमानों को केंद्र में रखकर बनाई गई पहली पार्टी नहीं है. केरल की मुस्लिम लीग हो या असम की एआीयूडीएफ़ हो- इससे पहले भी इस पहचान के साथ पार्टियां बनी है लेकिन दोनों ही पार्टियां अपने इलाक़े तक सीमित रही हैं.

एआईएमआईएम इस तरह से अलग है कि अब ये हैदराबाद से निकलकर दूसरे राज्यों में अपनी राजनीतिक पैठ बना रही है. लेकिन एआईएमआईएम की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद विरोधी दलों में चिंता का अभाव नज़र आता है.

शकील अहमद ख़ान बिहार में एआईएमआईएम की कामयाबी को 'सोडा वाटर के बुलबुले' की तरह बताते हैं जिसका जितनी तेज़ी से उभार होता है उतनी ही तेज़ी से अंत भी होता है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह इसे भारतीय जनता पार्टी की B-टीम की तरह से देखते हैं और लगभग सभी विरोधी दल इसे मुसलमानों की एक सांप्रदायिक पार्टी मानते हैं. 

हालांकि असद्दुदीन ओवैसी हमेशा बीजेपी की टीम-बी जैसे तमगों को नकारती रहे हैं. उन पर 'वोटकटवा पार्टी' होने का भी आरोप लगता रहा है. लेकिन एआईएमआईएम के आगे बढ़ने पर विश्लेषण लगभग सभी के पास है.

कांग्रेस नेता शकील अहमद ख़ान की नज़रों में एआईएमआईएम के आगे बढ़ने के मुख्य तीन कारण हैं, "पहला, पिछले पांच सालों में संसद में जो फ़ैसले हुए और ओवैसी ने जिस तरह से उन्हें भंजाने की कोशिश की इससे उन्हें मदद मिली है क्योंकि युवाओं को लगता है उनकी आवाज़ सबसे मज़बूत है. लेकिन वो समझ नहीं पाते हैं कि इस तरह की सियासत की मुश्किलें क्या हैं और लोकतंत्र में इसका नुक़सान क्या हो सकता है."

"दूसरी वजह ये है कि जहाँ से पार्टी ने जीत दर्ज की है उन इलाक़ों की आबादी में 73-74 फीसदी मुसलमान हैं. तो वहां इस पार्टी का आगे बढ़ना वहां की मुस्लिम लीडरशिप का निकम्मापन है."

"और तीसरा कारण ये है कि अगर कोई सांप्रदायिक बातें करता है तो मुस्लिम समाज के लोगों को उसका उतना ही सख्ती से विरोध करना चाहिए जो नहीं किया गया".

शकील अहमद ख़ान का कहना था कि उन्होंने एआईएमआईएम की साम्प्रदायिकता का सामना किया और इसलिए वो अपनी सीट से जीते.

वो कहते हैं, "ओवैसी की तरह मैं भी लच्छेदार उर्दू बोल सकता हूँ, शेर पढ़ सकता हूँ लेकिन इससे यहाँ के मुसलमानों के मसले तो हल नहीं हो सकते? मैं कहता हूँ कि उनके भड़काऊ भाषणों से मुस्लिम समाज का कोई फायदा नहीं होने वाला है. मुस्लिम समाज या किसी भी समाज का फायदा एक सेकुलर सियासत में ही हो सकता है. मैंने इसी लाइन को फॉलो किया और लोगों ने हमारा साथ दिया."

शीबा फ़हमी के मुताबिक़ ओवैसी पीड़ितों की राजनीति कर रहे हैं. वो कहती हैं, "इस देश में किसी को सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा है. केवल मुसलमान ही पीड़ित नहीं हैं. दलितों और ग़रीबों को भी सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा. लेकिन मुस्लिम समुदाय को ये बताया जा रहा है कि सिर्फ आपको न्याय नहीं मिल रहा है. ऐसे में लोग आपके साथ जुड़ सकते हैं."

इम्तियाज़ जलील अपनी पार्टी के बचाव में कहते हैं कि क्या वो कांग्रेस या दूसरी पार्टियों से पूछ कर सियासत करेंगे? उन्होंने कांग्रेस को दोहरी पॉलिसी अपनाने और मुसलमानों को धोखा देने वाली पार्टी बताया.

वो कहते हैं, "मेरी नज़र में कांग्रेस, एनसीपी जैसी पार्टियाँ - ये सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. मुसलमानों का इलेक्शन के वक़्त में इस्तेमाल करो और उसके बाद उन्हें भूल जाओ. ये अपने नुक़सान की बात करते हैं, लेकिन सबसे बड़ा नुकसान तो मुसलमानों का हुआ है."

वो कहते हैं, "सोशल मीडिया के दौर में छोटा बच्चा भी देख रहा है कि क्या हो रहा है. मध्यप्रदेश में सेकुलरिज़्म के नाम पर कांग्रेस के विधायक जीतते हैं और बाद में वो बीजेपी की गोद में बैठ जाते हैं."

"2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुसलमान नीतीश कुमार के साथ खड़े थे क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी को वही बिहार में हरा सकते हैं. लेकिन उन्होंने मुसलमानों का वोट हासिल किया और डेढ़ साल बाद मोदी से हाथ मिला लिया. महाराष्ट्र में जो शिव सेना मुसलमानों को गालियाँ देती थी अब कांग्रेस और एनसीपी उनके साथ मिलकर सरकार में है. ये कब तक चलेगा? कम से कम लोगों को ये यक़ीन है कि हमारी पार्टी बीजेपी के साथ हाथ नहीं मिलाएगी."

लेकिन एआईएमआईएम के ख़िलाफ़ बीजेपी को जानबूझ कर फायदा पहुँचाने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं.

अखिलेश प्रताप सिंह कहते हैं वो शुरू से कहते आए हैं कि ओवैसी की पार्टी बीजेपी की B-टीम है. वो कहते हैं, "जब से मोदी जी आए हैं एक तरह से एआईएमआईएम को प्रमोट कर रहे हैं, चाहे वो महाराष्ट्र के चुनाव में हों, दिल्ली में लोकल बॉडीज़ के चुनाव में या फिर इससे पहले बिहार विधानसभा चुनाव में या उत्तर प्रदेश में."

"उनका उद्देश्य ये है कि वो अल्पसंख्यकों के वोट बांट दें जिससे उनको जीतने में आसानी हो. ये हकीक़त है कि जब से मोदी जी आए हैं, दोनों तरफ़ कट्टरता की राजनीति में इज़ाफा हुआ है."

योगेंद्र यादव ओवैसी की पार्टी पर लग रहे बीजेपी की टीम-बी और वोटकटवा के आरोप से सहमत नहीं हैं. हालांकि वो कहते हैं कि इस पार्टी की सफलता सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देगी.

वो मानते है कि हिंदुत्व की राजनीति ने मुसलमानों की एक्सक्लूसिव पार्टी को बढ़ावा दिया है और ये ट्रेंड भारतीय लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है.

वो कहते हैं, "इससे निपटने का एक ही उपाय है कि सेकुलर पार्टियों को मुसलमान हिंदू और सभी धर्म के साधारण लोगों का विश्वास जीतना होगा. अभी न तो हिंदू उन पर भरोसा करता है ना मुसलमान."

तारिक़ अनवर बिहार के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं जो कई साल तक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में भी रह चुके हैं. उनका कहना है कि बीजेपी और एआईएमआईएम दोनों साम्प्रदायिक सियासत करने वाली पार्टियाँ हैं और इन दोनों का विरोध ज़रूरी है क्योंकि ये देश की एकता को भंग करने वाली ताक़तें हैं.

वो कहते हैं, "जहाँ तक एआईएमआईएम या ओवैसी साहब का सवाल है, मैं कहूंगा कि किसी तरह की साम्प्रदायिकता देश के ख़िलाफ़ है. हिन्दू साम्प्रदायिकता हो या मुस्लिम साम्प्रदायिकता- दोनों एक दूसरे के लिए ख़ुराक़ हैं और इसका नुक़सान देश को उठाना पड़ेगा."

"एआईएमआईएम के नाम का मतलब है मुस्लिम इत्तेहाद या एकता. जब आप मुस्लिम एकता की बात करते हैं तो ज़ाहिर है इससे जो हिन्दू फ़िरकापरस्त हैं या कट्टरपंथी है उनको इसका फायदा पहुँचता है. अगर सीधे तौर पर नहीं तो अप्रत्यक्ष तौर पर एआईएमआईएम ज़रूर हिन्दु साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है और ये केवल मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे मुल्क के लिए नुक़सानदेह है."

ओवैसी पर ये भी इल्ज़ाम है कि वो मोदी सरकार की आलोचना करने से बचने की कोशिश करते हैं और उनका निशाना अक्सर कांग्रेस और दूसरे सेकुलर दल होते हैं.

शीबा कहती हैं, "अकबरुद्दीन ओवैसी (असद्दुदीन ओवैसी के छोटे भाई) के एक गंदे बयान से 100 तोगड़िया के गंदे बयान जस्टिफाई हो रहे हैं, 100 उमा भारती के बयान जस्टिफाई किये जाते हैं."

ओवैसी विरोधी तत्व ये भी कहते हैं कि उनकी पार्टी केवल उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ती है जहाँ मुसलमान आबादी अधिक है.

तारिक़ अनवर के अनुसार ओवैसी मुसलमानों की भावनाओं से खेल कर वोट हासिल करने की कोशिश करते हैं जिसके कारण वोटों का बंटवारा होता है और इसका फायदा बीजेपी को होता है जबकि सेकुलर पार्टियों को इसका नुकसान होता है.

वो कहते हैं, "ओवैसी ने बिहार चुनाव में गठबंधन के 15 सीटों में वोट काटे. अगर ये 15 सीट हम जीत जाते तो आज बिहार में सरकार हमारी होती."

लेकिन पार्टी सांसद इम्तियाज़ जलील मुसलमानों के हित में बोलने को साम्प्रदायिकता नहीं मानते और ये भी नहीं मानते कि उनकी पार्टी की सियासत से बीजेपी को फायदा होता है.

वो कहते हैं, "अगर हम उन इलाक़ों से चुनाव नहीं लड़ेंगे जहाँ हमारी मुसलमान अधिक हैं तो क्या वहां से आरएसएस वाले, बजरंग दल वाले, शिव सेना वाले चुनाव लड़ेंगे?"

पार्टी का अगला पड़ाव बंगाल है जहाँ छह महीने के बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. बंगाल में मुस्लिम वोट 25 प्रतिशत से अधिक है. इम्तियाज़ जलील कहते हैं, "इंशाल्लाह हम लड़ेंगे. हम हर जगह जाएंगे".

बंगाल विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए बीजेपी पूरा ज़ोर लगा रही है. शायद ये ख़बर कि एआईएमआईएम बंगाल में चुनाव लड़ेगी बीजेपी के लिए खुशख़बरी होगी.

लेकिन कांग्रेस के लिए ये ख़बर कैसी होगी? अखिलेश प्रताप सिंह कहते हैं, "हम अभी से राज्य में सक्रिय हो गए हैं और एआईएमआईएम को रोकने की हमारी तैयारी शुरू हो चुकी है."(bbc.com)

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