संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट में आम और खास के बीच इतना फर्क कभी न था..
22-Nov-2020 5:34 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट में आम और खास के बीच इतना फर्क कभी न था..

हाल के बरसों में हिन्दुस्तानी की सबसे बड़ी अदालत, सुप्रीम कोर्ट ने अनगिनत मामलों में एक ऐसा रूख दिखाया है जो कि देश की सत्ता सम्हाल रहे लोगों की पसंद की फिक्र करते दिखता है। सरकारी एजेंसियों या सरकार के तर्क मानने के लिए अदालत कुछ उत्साही दिखती है, और अदालत की अवमानना का खतरा खड़ा हो जाएगा अगर यह लिखा जाए कि बहुत से मामलों में अदालतें सरकार की असली पसंद के लिए लीक से हटकर भी सुनवाई करने को एक पैर पर खड़ी दिखीं, और एक गाना सा दिल्ली की अदालती हवा में गूंजता सुनाई देता रहा- हो तुमको जो पसंद, वही बात करेंगे। 

बहुत से चर्चित मामलों को लेकर जब देश की जनता यह उम्मीद कर रही थी कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के अधिकारों के बेजा दिखते इस्तेमाल को रोकने के लिए, उस पर सवाल खड़े करने के लिए तनकर खड़ी रहेगी, सुप्रीम कोर्ट के जजों का रूख, फैसलों का अंदाज इस बेजा का हिमायती दिखा। लोकतंत्र में संसद, सरकार, और अदालत, इन तीनों के बीच जो शक्ति संतुलन बनाया गया है, वह खोने में हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत ने खासा योगदान दिया दिखता है। सरकार की मनमानी पर काबू की जिम्मेदारी संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को दी थी, लेकिन एक के बाद दूसरे, और दूसरे के बाद तीसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार को मानो अपनी पहुंच से ऊपर का मान बैठी है। इस बारे में देश के बहुत से लोग बहुत कुछ बोल चुके हैं, और लिख भी चुके हैं, हम आज यहां जो लिख रहे हैं, वह पूरी तरह मौलिक और पहली बार नहीं है, लेकिन यह लिखना जरूरी इसलिए है कि लोगों को लोकतंत्र की इस जन्नत की हकीकत समझ पडऩा चाहिए।

हुआ यह है कि हिन्दुस्तान में कोई 45 बरस पहले आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का फतवा दिया था। उस वक्त इंदिरा के झंडाबरदार इस नारे की गूंज को आगे बढ़ाते रहे। उसकी ठोस वजह भी थी, इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था, और सत्ता पर बने रहने के लिए इंदिरा को इमरजेंसी लगानी पड़ी थी, और उस वक्त इंदिरा सरकार की आत्मरक्षा के लिए उसे यह लगना स्वाभाविक था कि न्यायपालिका सरकार के प्रति प्रतिबद्ध रहनी चाहिए। उस वक्त तो बहुत अधिक जज इंदिरा की मनमानी के खिलाफ अपना हौसला नहीं दिखा पाए थे, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट के एक-दो जज तो थे ही जो कि इंदिरा की मनमानी के खिलाफ खुलकर फैसला दे रहे थे। आज जब अर्नब गोस्वामी जैसे तथाकथित पत्रकार की जमानत अर्जी पर सुनवाई की बात आती है, या अर्नब के दूसरे मामले पर अर्जी लगती है, तो सुप्रीम कोर्ट के कोई जज आधी रात घर से सुनवाई को तैयार हो जाते हैं, तो किसी और जज को लगता है कि अर्नब के मामले में सुनवाई में एक दिन की भी देर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। दूसरी तरफ इस देश में सैकड़ों पत्रकार अलग-अलग राज्यों में महीनों से जेलों में सड़ रहे हैं, सामाजिक आंदोलनकारी मौत की कगार पर पहुंच हुए भी जमानत नहीं पा रहे हैं, और इस देश के अर्नबों को रातोंरात जमानत मिल जाती है। हो सकता है कि जज उनके मामले को लेकर सचमुच ही संतुष्ट हों कि उन्हें जमानत का हक है, लेकिन जाहिर तौर पर देश यह देख रहा है कि दूसरे पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और शिक्षक किस तरह महीनों और बरसों तक जेलों में बंद रखे जा रहे हैं, और उनके खिलाफ आखिर में चाहे सरकार की हार क्यों न हो जाए, इतने बरस कैद की सजा तो वे भुगत ही चुके रहेंगे। इसलिए देश के लोगों के बीच आजादी का हक जिस हद तक जजों की मर्जी, सत्ता की पसंद-नापसंद, और सबसे महंगे वकीलों को रखने की ताकत पर टिक गया है, वह हक्का-बक्का करता है। लोगों ने अभी यह भी लिखा है कि देश के सबसे महंगे वकील को रखने की ताकत किस तरह जमानत की संभावना को बढ़ा देती है। लोगों ने सुप्रीम कोर्ट को ही सीधे खुलकर अपने नाम से यह लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट को पसंद लोगों को आनन-फानन सुनवाई का मौका देकर अदालत बाकी आम लोगों के हक का मजाक उड़ा रही है। जिस तरह एक वक्त ताजमहल को लेकर एक शायर ने लिखा था कि इक शहंशाह ने बनवा  के हसीं ताजमहल, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक..., उसी तरह आज सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकीलों को रखने वाले शहंशाहों को बिजली की रफ्तार से मिलने वाले उनके पसंदीदा इंसाफ को देखकर यही लगता है कि यह उन बाकी तमाम गरीबों का मजाक है। 

दुनिया में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि इंसाफ न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। आज लगता है कि सुप्रीम कोर्ट देश के सबसे महंगे वकीलों के क्लाइंट, सत्ता की असली पसंद, और खुद सुप्रीम कोर्ट के जजों के प्रति इंसाफ को फिक्रमंद रह गया है। अपनी अवमानना को लेकर सुप्रीम कोर्ट जितना संवेदनशील हो गया है, उसे ट्विटर पर अपना अपमान देखते हुए उसके ऊपर-नीचे के ऐसे ट्वीट दिखाई नहीं पड़ते जिनमें इसी देश की महिलाओं को अलग-अलग विधियों से बलात्कार करने की धमकियां दी जाती हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट इस देश में इज्जत का हकदार एक ऐसा टापू बन गया है जिसके इर्द-गिर्द समंदर में डूबकर मर जाने के लिए बाकी तमाम नागरिक आजाद हैं? ट्वीट पढऩे के शौकीन सुप्रीम कोर्ट को देश की महिला आंदोलनकारियों, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ बलात्कार की खुली धमकियों को अनदेखा करने की जो आदत है, वह आदत बताती है कि सुप्रीम कोर्ट की असली पसंद क्या है। 

देश की सबसे बड़ी अदालत में खास और आम के बीच ऐसी गहरी और चौड़ी खाई पहले शायद कभी नहीं रही, और जिसे सत्ता नापसंद करती हो, जो देश के सबसे महंगे वकील रखने की औकात न रखते हों, उनके प्रति न्यायपालिका की अनदेखी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज हो गई है, लेकिन अदालत को इतिहास से अधिक अपने भविष्य की फिक्र है जो कि लोगों को दिख रही है, समझ पड़ रही है, लेकिन अदालत इसकी तरफ से बेफिक्र है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news