सामान्य ज्ञान
कव्वाली गायन का एक ऐसा अंदाज है जोकि आध्यात्म और उत्तरी भारत और पाकिस्तान के कलात्मक जीवन से जुड़ी है। कव्वाली एक सूफ़ी परम्परा है। अरबी में इसे रहस्यवाद यानी तसव्वुफ़ के नाम से जाना जाता है। ये इन्सान को निर्देश देती है कि वह हमेशा खुदा को याद रखें। एक आध्यात्मिक शक्ति के रूप में संगीत का प्रयोग भी इसीलिए होता है।
11वीं सदी के अन्त तक समा की परम्परा थी इसकी शुरूआत शेख के तहत हुयी थी। कव्वाली एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें गीत की शुरुआत एक से होती है और शब्दों को बार बार दोहराया जाता है। इसके हर एक शब्द में गहरा अर्थ छुपा होता है। सबसे ज्यादा सामान्य राग जो इसमें इस्तेमाल होती है वह है बिलावल खमाज काफ़ी और कल्याण।
कव्वाली की संरचना शस्त्रीय संगीत से मिलती जुलती है, क्योंकि इसकी शुरुआत भी आलाप से होती है और धीरे-धीरे उत्तेजना आती है। इसका गोल होता है कि श्रोता इसकी गायकी में डूबकर फऩा हो जाये। अधिकांश का यह विश्वास है कि सन- 1143 से 1234 के बीच ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती ने इसकी स्थापना की थी। उसके बाद अमीर खुसरो ने कव्वाली के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने एक साथ तुर्की फ़ारसी और भारतीय संगीत तत्व को मिश्रित्त किया है। आज भी भारतीय राग के साथ फ़ारसी मुअक्कम को मिलाया जाता है।
20 वीं सदी के मध्य से बढ़ते हुये फि़ल्म उद्योग ने कव्वाली की लोकप्रियता को बढ़ाया है। फिल्म इंडस्ट्री ने कव्वाली के विकास को प्रभावित किया है। लोगों पर फिल्मी कव्वाली का एक असर मज़हबी भी पड़ा है। अंतर्राष्टï्रीय क्षेत्र में नुसरत फ़तेह अली खान जैसे संगीतकारों ने कव्वाली पर ज़ोर दिया है।
मरुस्थल
शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में पाए जाने वाले वे क्षेत्र जहां वर्षा कम या नहीं के बराबर होती है एवं वनस्पतियां नहीं उगती हैं, मरुस्थल कहलाते हैं। ऐसे प्रदेशों में बालुकाभित्ति, कंकड़-पत्थर एवं चट्टान की अधिकता रहती है। मरुस्थल निम्न प्रकार के होते हैं-
वास्तविक मरुस्थल- इसमें बालू की प्रचुरता पाई जाती है।
पथरीले मरुस्थल- इसमें कंकड़-पत्थर से युक्त भूमि पाई जाती है। इन्हें अल्जीरिया में रेग तथा लीबिया में सेरिर के नाम से जाना जाता है।
चट्टानी मरुस्थल- इनमें चट्टानी भूमि का हिस्सा अधिकाधिक होता है। इन्हें सहारा क्षेत्र में हमादा कहा जाता है।