विचार / लेख

रचेगा, सो बचेगा
25-Nov-2020 11:39 AM
रचेगा, सो बचेगा

विक्टर ह्यूगो

-चैतन्य नागर

लिखने के स्त्रोत को निर्मल वर्मा खंगालने की कोशिश किया करते थे। करीब तेईस वर्ष पहले जब निर्मल वर्मा वाराणसी में राजघाट के कृष्णमूर्ति फाउंडेशन स्थित सेंटर पर आये थे तो उस समय उनसे यही सवाल मैंने पूछा था : लेखक क्या लिखता है और क्यों? क्यों में 'कैसे' भी छिपा हुआ है, और क्या लिखता है से ज्यादा कीमती सवाल है कि लेखक कैसे लिखता है। 

मेरा प्रश्न यह भी है कि क्या हर रचनाकार अपनी रचनात्मकता के स्त्रोत तक जाने की कोशिश करता होगा? यह सवाल सिर्फ लेखन से जुड़े लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि हर विधा में काम कर रहे कलाकार के लिए हैं। विन्सेंट वॉन गो यह मानता था कि हर पेंटिंग में जीवन होता है और वह जीवन कलाकार की आत्मा ही उसे प्रदान करती है। महान संगीतकार बेटोफेन के बारे में एक मशहूर लेखक ने लिखा कि वह तो इतने बधिर हैं कि खुद को चित्रकार समझ बैठते हैं! रचनात्मकता के स्त्रोत में थोड़ी गहराई में उतरने पर दिखता है कि विधाएं भले ही अलग अलग हों, कोई स्त्रोत है जो हर कलाकार के मन-मस्तिष्क से होकर प्रवाहित होता है, और वह अक्सर एक ही स्त्रोत होता है, अलग अलग वाह्य अभिव्यक्तियों के बावजूद। किशोरी अमोनकर जब गाती थीं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता था कि कौन है जो उनके जरिये, उन्हें गा रहा है! अक्सर कोई रचनात्मक ऊर्जा कलाकार का एक माध्यम के रूप में मानो इस्तेमाल करती प्रतीत होती है।पर ऐसा कहने में रचनात्मकता को एक रहस्यमयी प्रक्रिया बनाने के खतरे हैं। उसपर अनावश्यक और बोझिल आध्यात्मिकता की खरोंचे भी पड़ सकती हैं।

विक्टर ह्यूगो कहते थे कि मैं तभी लिखता हूँ जब प्रेरणा मिलती है पर मैंने यह तय किया हुआ है कि किसी भी हालत में मैं रोज़ सुबह नौ बजे प्रेरित होता रहूँ! टी एस एलियट ने रचनात्मकता के बारे में एक बड़ी ही विवादस्पद बात कह डाली। उनका कहना था कि अपरिपक्व कवि नक़ल करते हैं; महान कवि तो चोरी करते हैं। इस बात को लेकर भी बड़ा विवाद था कि यह बात ऑस्कर वाइल्ड ने कही है या पाब्लो पिकासो ने, पर यह अब करीब करीब तय हो चुका है कि यह वक्तव्य एलियट का ही है। इसे स्पष्ट करते हुए एलियट कहते हैं : 'खराब कवि जो भी उठाते हैं, उसे भद्दा बना कर छोड़ देते हैं जबकि उम्दा कवि उसे बेहतर बना डालता है या कम से कम कुछ अलग तो बना ही देता है'।

हर लेखक के अपने अनुभव होते हैं, जिन्हें वह अपने संस्कारों के आलोक में देखता-समझता है। उन अनुभवों के साथ उसका गहरा तादात्म्य भी स्थापित हो जाता है। उन्ही अनुभवों को ही वह अपनी रचनाओं में व्यक्त किये चला जाता है। ऐसा अचेतन या अवचेतन स्तर पर भी होता है क्योंकि लेखक के लिए खुद यह जान पाना मुश्किल हो सकता है कि कौन सी रचना अतीत में हुए किस अनुभव से उपजी है। अक्सर लेखक इस बारे में कोई प्रश्न उठाने में खतरा भी महसूस कर सकता है कि वे अनुभव वास्तविक हैं या काल्पनिक, छिछले हैं, या गहरे; या फिर मूलभूत रूप से किस मानसिक उद्वेलन से उपजे हैं। इन बातों को उठाने से लेखन के प्रवाह रुक सकता है।अक्सर इस तरह के मूलभूत सवालों में लेखक खतरा महसूस करता है। लेखक या कवि किसी गहरी या अब्सोल्युट या अंतिम अंतर्दृष्टि की खोज में नहीं रहता, अपनी आंशिक अंतर्दृष्टि को साझा करने की एक व्याकुलता होती है उसमें और अपनी 'खोज' पर प्रश्न उठाने से उसकी अभिव्यक्ति बाधित होगी इस तथ्य से वह अच्छी तरह परिचित होता है। प्रश्न की आंच में बहुधा कई निष्कर्ष मुरझा सकते हैं, जबकि लेखक उन निष्कर्षों को पूरे विश्वास के साथ व्यक्त करना चाहता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो लेखक की संस्कारबद्धता उसके लिखने का स्त्रोत हो सकती है।

भावनाएं या विचार भी रचनाकार को लेखन की दिशा में ले जाते हैं। पर विचार का महिमामंडन न करके उनकी संरचना को खंगालने की कोशिश की जानी चाहिए। गौरतलब है कि विचार भी खास किस्म के संस्कार से ही उपजते हैं। अक्सर वे स्मृतियों के प्रत्युत्तर के रूप में व्यक्त होते हैं। लेखक स्मृतियों से अपनी ऊर्जा लेता है। सुखद स्मृतियों से भी और दुखदायी यादों से भी। इन्हें लेकर अलग- अलग रस निर्मित करता है। क्या मृत स्मृतियाँ उत्कृष्ट, जीवंत लेखन को जन्म दे सकती हैं? इस प्रश्न को लेखक दर्शन और मनोविज्ञान के पाले में धकेल देता है। हाइकू के जनक बाशो स्मृतियों पर निर्भर नहीं रहते, सिर्फ और सिर्फ वर्तमान क्षण को उकेरते हैं।'ताल पुराना/ कूदा दादुर/ डुबुक', में अतीत की कोई परछाई नहीं, सिर्फ वर्तमान का शुद्ध अवलोकन है, उसका उत्सव है जो कि स्मृतियों के नीचे दबे मन की सीमाओं से परे है। कहीं ऐसा इशारा है कि स्मृतियों से परे भी कोई ऐसा अवलोकन है, जो वर्तमान क्षण में है, ज़्यादा टटका है, सिर्फ नए वस्त्र धारण किये हुए कोई मृत देह नहीं। 'तुमि केमोन कोरे जे गान कोरो हे गुनी, आमी ओवाक होए शुनी, केबोल शुनी', गुरुदेव टैगोर के इस सुनने में, अवाक होकर सुनने में स्मृति कहाँ, कहाँ है कोई संचित ज्ञान, कहाँ है बीते हुए कल की कोई परछाई!

हाँ, गहरी ऊब और द्वंद्व भी लेखन या किसी अन्य तरह की सृजनशीलता की ऊर्जा को जन्म दे सकते हैं। अक्सर कलाकार के जीवन और लेखन में भयंकर द्वंद्व देखा जा सकता है। वॉर एंड पीस का संत लेखक टॉलस्टॉय अपनी पत्नी के साथ भयंकर कलह में जीता रहा। अपने मशहूर उपन्यास एना कारेनीना के प्रारंभ में ही उन्होंने दुखी परिवार की दशा के बारे में लिखा है। दरअसल द्वंद्व एक तरह की ऊर्जा पैदा करता है और किसी सृजनशील व्यक्ति में यह ऊर्जा सौन्दर्यपूर्ण और प्रभावी ढंग से व्यक्त भी हो सकती है पर उसके पीछे छिपा बैठा, बिलबिलाता, तड़पता रचनाकार दुनिया की नज़र से बचा रह जाता है। निदा फाजली इसे बखूबी कहते हैं: 'मेरी आवाज़ तो पर्दा है मेरे चेहरे का, मैं हूँ खामोश जहाँ मुझको वहां से सुनिए'। पर खामोशी के पीछे छिपे ज़ख्मों को कौन देख पाता है! शब्दों के सौन्दर्य में खोये पाठक और दर्शक बस वाह-वाही में मगन हो जाते हैं।

प्रतिष्ठा की कामना, खुद को बाकियों से अलग दिखाने की इच्छा भी लेखन के लिए प्रेरित कर सकती है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा लेखन या किसी और कला की ओर ले जा सकती है। और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रेरित लेखक किसी राजनेता की तरह भयंकर परिश्रमी और उर्वर भी हो सकता है।    

अनवरत चलने वाले विचार के बीच का पल भर का अंतराल सृजनशीलता का एक बहुत ही समृद्ध स्त्रोत होता है। यह अंतराल बहुत ही कीमती होता है और संभवतः यही सृजनात्मक संवेग को जन्म देता है; उसके बाद इसकी अभिव्यक्ति तो एक तरह से यंत्रवत होती है, बाहरी माध्यमों का सहारा लेती है। नन्दलाल बोस ने इस यांत्रिकता से बचने के लिए रंग भी खुद ही बनाए। तो यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या अनवरत चलने वाले विचारों में कोई सृजनशीलता होती है, या फिर उनके खुद बखुद थम जाने से उपजी खामोशी सृजनशील होती है। विज्ञान के क्षेत्र में आर्किमिडीज़ की अंतर्दृष्टि जो उनके दिमाग में नहाते वक़्त कौंधी थी, एक अलग तरह की रचनात्मकता की तरफ इशारा करती है जिसकी ज़मीन विचारों के निरंतर प्रवाह से हट कर है। जो वैज्ञानिक निर्वस्त्र होकर अपनी खोज की घोषणा करते हुए सड़कों पर दौड़ लगा सकता है, वह परंपरागत विचारों की गिरफ्त से तो जरुर ही बाहर रहा होगा।

और भी बहुत कुछ हो सकता है। मन की हर बारीक से बारीक हरकत और उसकी अभिव्यक्ति पर आँखे टिकाये रखना आसान नहीं होता। सृजनात्मकता अपने आपमें ही बड़ी कोमल वस्तु है, इसकी पीड़ा को समझना, इसके मार्ग पर चलना, इसे संजोये रखना, बुझने से रोकना, यह सब कुछ एक चुनौती जैसा है, खासकर आज के माहौल में जहाँ हर स्तर पर एक उठा पटक मची हुई है। सही अर्थ में एक गहरे सृजनशील व्यक्ति के लिए आज का समय तरह तरह की अनिश्चितताओं और संदेहों से भरा हुआ है। फिर भी बात यही सच है कि जो रचेगा, आखिर में वही बचेगा।

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