विचार / लेख
ध्रुव गुप्त
उर्दू शायरी के लंबे सफऱ में पाकिस्तान की लोकप्रिय शायरा परवीन शाकिर को शायरी के तीसरे पड़ाव का मीलस्तम्भ माना जाता है। उनकी शायरी खुशबू के उस सफऱ की तरह है जो रूह की गहराईयों तक पहुंचती है। परवीन ने स्त्री के प्रेम, एकांत, भावुकता, निजी और वैचारिक स्वतंत्रता, जिजीविषा, स्वाभिमान और अथक संघर्षों का जैसा हृदयस्पर्शी चित्र खींचा है, उससे गुजऱना एक विरल अनुभव है।
परवीन की शायरी में यथास्थिति के खिलाफ गहरा प्रतिरोध तो है, लेकिन उस प्रतिरोध का स्वर कर्कश नहीं, मुलायम है। कठोर परिस्थितियों के बीच यह मुलायमियत उनकी शायरी की रूह है। मात्र बयालीस साल की उम्र में एक सडक़ दुर्घटना में दिवंगत परवीन की कविताओं में एक जीवंत लडक़ी भी है, प्रेमिका भी, पत्नी भी, कामकाजी स्त्री भी, मां भी और पुरूषों की दुनिया में पांव टिकाने की जद्दोज़हद करती एक ख़ुद्दार औरत भी। यानी एक मुकम्मल औरत उनकी कविताओं में सांस लेती महसूस होती है।.अपनी नज़्मों और गज़़लों में उन्होंने प्रेम और विरह के ज़ुदा-ज़ुदा रंगों की कसीदाकारी के अलावा स्त्री-जीवन के उन अछूते मसलों को भी छुआ है जिनपर पारंपरिक शायरों की नजऱ नहीं गई। यह बेवज़ह नहीं कि आज की युवा पीढ़ी की वे सबसे प्रिय शायरा हैं। उनके यौमे विलादत (24 नवंबर) पर ख़ेराज-ए-अक़ीदत, उनकी एक गज़़ल के अशआर के साथ !
उसी तरह से हर इक जख़़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुजऱ गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चांद - सा देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनजऱ थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का जर्ऱा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफिऱ का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
बस एक रेत का जर्ऱा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफिऱ का रास्ता देखे