संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अब इलाहाबाद हाईकोर्ट वाला यूपी किस तरह गढ़ेगा लव-जेहाद विरोधी कानून
25-Nov-2020 7:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अब इलाहाबाद हाईकोर्ट वाला यूपी किस तरह गढ़ेगा लव-जेहाद विरोधी कानून

आज जब हिन्दुस्तान में भाजपाशासित कई प्रदेश तथाकथित लव-जेहाद के खिलाफ कानून बनाने की घोषणा कर चुके हैं, और उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में इसे लेकर मुख्यमंत्री एक बैठक ले चुके हैं, तो उसी उत्तरप्रदेश के हाईकोर्ट का एक फैसला लोकतंत्र को मजबूती देने वाला भी आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने एक मुद्दा यह था कि प्रियंका नाम की एक हिन्दू बालिग युवती ने अपनी मर्जी से सलामत अंसारी नाम के नौजवान से शादी की, और शादी के वक्त उसने इस्लाम मंजूर कर लिया। इस पर लडक़ी के परिवार ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि यह शादी अपहरण करके जबर्दस्ती की गई है। अब हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इन दोनों को हिन्दू और मुस्लिम की तरह देखने से इंकार कर दिया, और कहा कि ये दोनों बालिग नागरिक हैं, और अपनी मर्जी से शादी करना उनका मूल अधिकार है। उनके इस अधिकार को किसी तरह कम नहीं किया जा सकता। यह फैसला देते हुए अदालत ने अपने ही कुछ पिछले फैसलों को गलत बताया जिनमें कहा गया था कि विवाह के लिए धर्मांतरण प्रतिबंधित है, और ऐसे विवाह अवैध हैं। 

आज देश में उछाले गए एक नारे से भडक़ी भावनाओं के बीच यह फैसला एक बड़ी राहत की तरह आया है और इससे भारतीय संविधान की यह सोच भी साफ होती है कि दो धर्मों के लोगों के बीच किसी बालिग शादी को लेकर लव-जेहाद विरोधी कानून सरीखा कुछ नहीं किया जा सकता। अब संविधान की इस बुनियादी सोच के खिलाफ जाकर अगर कोई राज्य ऐसा कोई कानून बनाते हैं तो शायद सुप्रीम कोर्ट के रहते हुए वह कानून लागू करने के लिए नहीं बनेगा, बल्कि भावनाओं को भडक़ाने के लिए बनेगा। 

हिन्दुस्तान में ऐसी अनगिनत मिसालें हैं जिनमें भाजपा के ही बहुत से मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू लड़कियों से शादी की है। घनघोर हिन्दुत्व की बात करने वाले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने खुद एक गैरहिन्दू महिला से शादी की है, उनकी बेटी ने एक मुस्लिम से शादी की है, और सोशल मीडिया पर तैर रही बाकी चर्चा अगर सही है तो परिवार में एक-दो और लोग, एक-दो और धर्मों में शादी करने वाले हैं। किसी व्यक्ति के नाम की चर्चा ऐसे संदर्भ में ठीक नहीं है, लेकिन इस लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक व्यवस्था के बीच काम करने वाली, और सत्ता तक पहुंचने वाली पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे सरकारें चला रही हैं, उस संविधान के मूलभूत अधिकारों को बदलना किसी राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इसलिए दो धर्मों के लोगों के बीच किसी शादी के खिलाफ जिस तरह के कानून का फतवा दिया जा रहा है, वह कानून चुनावी राजनीति के ईंधन की तरह तो बन सकता है, लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट में बिना कलफ के पजामे की तरह फर्श पर गिर पड़ेगा। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में ही नहीं, अमरीका जैसे अधिक पढ़े-लिखे देश में भी लोग इतने कमसमझ रहते हैं कि उन्हें फर्जी मुद्दों के आधार पर भडक़ाना आसान रहता है। मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पिछले चार बरस से यही करते आए हैं। हिन्दुस्तान में भी अलग-अलग कई सरकारें कभी गाय के नाम पर तो कभी पाकिस्तान के नाम पर इसी तरह का काम करते आई हैं। अब सरकारी रिकॉर्ड से परे रहते आए एक शब्द, लव-जेहाद, को लेकर एक कानून बनाने की बात हो रही है। और यह कानून मानो इस देश के प्रति प्रेम, और इसके खिलाफ गद्दारी के बीच एक जनमतसंग्रह होने जा रहा है। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला बड़ी राहत देने वाला है, ऐसा नहीं कि उसने संविधान का कोई अनोखा विश्लेषण कर दिया है, और कोई अविश्वसनीय सा निष्कर्ष निकाल दिया है। उसने महज इतना किया है कि लोगों को दो दर्जन शब्दोंं में बतला दिया है कि अपने मर्जी से शादी करना अलग-अलग धर्मों के लोगों के बालिगों का बुनियादी अधिकार है, उस पर न कोई सरकार रोक लगा सकती, और न ही कोई अदालत। अब देखना यह है कि जिस इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह साफ-साफ पारदर्शी आदेश दिया है उस इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र के भीतर लखनऊ में बैठी यूपी सरकार किस तरह इसके खिलाफ एक कानून बनाती है। 

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