विचार / लेख
राज ढाल
एक महेन्द्र सिंह टिकैत थे जो दिल्ली-लखनऊ कूच का ऐलान करते तो सरकारों के प्रतिनिधि उनको मनाने रिझाने सिसौली रवाना होने लगते। लेकिन टिकैत जो चाहते थे करते वही थे। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक उनके फोन को तरसते थे लेकिन यह उनकी ताकत का असर था जो उनकी सादगी, ईमानदारी और लाखों किसानों में उनके भरोसे के कारण थी। आंदोलनों में चौधरी साहब हमेशा मंच पर नहीं होते थे। वे हुक्का गुडगुडाते हुए किसानों की भीड़ में शामिल रहते थे। बहुत से विदेशी पत्रकारो को उनसे मिल कर समझ नहीं आता था कि वे जिससे मिल रहे हैं वे वही चौधरी साहब हैं। धूल माटी से लिपटा उनका कुर्ता, धोती और सिर पर टोपी के साथ बेलाग वाणी, उनको सबसे अलग बनाए हुई थी। जब पूरा देश उनकी ओर देखता था तो भी वे रूटीन के जरूरी काम उसी तरह करते हुए देखे जाते थे जैसा भारत में आम किसान अपने घरों में करता है। उनमें कभी कोई दंभ नहीं दिखा। आंदोलन सफल हुए हों या विफल हरेक से वे सीख लेते थे। किसी आंदोलन के लिए कभी किसी ने किसी बड़े आदमी से चंदा मांगते नहीं देखा। किसान अपना आंदोलन भी अपने दम खम पर करते थे और खुद नहीं बाकी लोगों को खिलाने के लिए भी साथ सामग्री ले जाते थे।
विशाल आंदोलनों को नियंत्रित करना आसान काम नहीं होता है। लेकिन टिकैत इस मामलें में बहुत सफल रहे। बड़ा से बड़ा और सरकार को हिला देने वाला आंदोलन क्यों न रहा हो, वह अनुशासनहीन नहीं रहा। मेरठ या दिल्ली में लाखों किसानों के जमावड़े के बाद भी न कहीं मारपीट न किसी दुकान वालों से लूटपाट या कोई अवांछित घटना नहीं हुई। आंदोलनों में भीड़ को नियंत्रित करना सरल नहीं होता। लेकिन चौधरी साहब ने आंदोलनों को अलग तरीके से चलाया। गांव से महिलाएं खाने पीने की सामग्री, हलवा, पूड़ी, छाछ, गुड़ इतनी मात्रा में भेजती थीं कि किसान ही नहीं पुलिस, पत्रकार और आम गरीब लोग सब खा पी लेते थे, कम नहीं पड़ता था। हर आंदोलन में टिकैत पूर्व सैनिकों को भी जोड़ लेते थे।
हर आंदोलन में चौधरी टिकैत ने किसानों के वाजिब दाम को केंद्र मे रखा। जीवन भर वे किसानों की लूट के खिलाफ सरकारों को आगाह करते रहे। उनका यह कहना एक हद तक सही है कि अगर 1967 को आधार साल मान कर कृषि उपज और बाकी सामानों की कीमतों का औसत निकाल कर फसलों का दाम तय हो तो एक हद तक किसानों की समस्या हल हो सकती है।