सामान्य ज्ञान
कंधार प्राचीन नगर गंधार का ही रूपातंरण है। यह अफग़़ानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। सामरिक दृष्टि से कंधार काफ़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत से अफग़़ानिस्तान जाने वाली रेलवे लाइन यहीं पर समाप्त होती है। यह नगर महत्वपूर्ण मंडी भी है। पूर्व से पश्चिम को स्थल मार्ग से होने वाला अधिकांश व्यापार यहीं से होता है। कंधार में सोतों के पानी से सिंचाई की अनोखी व्यवस्था है। जगह-जगह कुएं खोदकर उनको सुरंग से मिला दिया गया है।
कंधार काबुल से लगभग 280 मील दक्षिण-पश्चिम और 3,462 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह नगर टरनाक एवं अगऱ््दाब नदियों के उपजाऊ मैदान के मध्य में स्थित है, जहां नहरों द्वारा सिंचाई होती है; परंतु इसके उत्तर का भाग उजाड़ है। समीप के नए ढंग से सिंचित मैदानों में फल, गेहूं, जौ, दालें, मजीठ, हींग, तंबाकू आदि उगाई जाती हैं। कंधार से नए चमन तक रेलमार्ग है और वहां तक पाकिस्तान से रेल जाती है।
प्राचीन कंधार नगर तीन मील में बसा हुआ है, जिसके चारों तरफ 24 फुट चौड़ी, 10 फुट गहरी खाई एवं 27 फुट ऊंची दीवार है। इस शहर के छह दरवाज़े हैं, जिनमें से दो पूरब, दो पश्चिम, एक उत्तर तथा एक दक्षिण में है। मुख्य सडक़ें 40 फुट से अधिक चौड़ी हैं। कंधार चार स्पष्ट भागों में विभक्त है, जिनमें अलग-अलग जाति (कबीले) के लोग रहते हैं। इनमें चार- दुर्रानी , घिलज़ाइ , पार्सिवन और काकार प्रसिद्ध हैं। कंधार का इतिहास उथल-पुथल से भरा हुआ है। पांचवीं शताब्दी ई. पू. में यह फ़ारस के साम्राज्य का भाग था। लगभग 326 ई. पू. में मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण करते समय इसे जीता और उसके मरने पर यह उसके सेनापति सेल्यूकस के अधिकार में आया। कुछ वर्ष के बाद सेल्यूकस ने इसे चन्द्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। यह अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। सम्राट अशोक का एक शिलालेख हाल ही में इस नगर के निकट से मिला है। मौर्य वंश के पतन पर यह बैक्ट्रिया, पार्थिया, कुषाण तथा शक राजाओं के अंतर्गत रहा। दशवी शताब्दी में यह अफग़़ानों के क़ब्ज़े में आ गया और मुस्लिम राज्य बन गया। ग्यारहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद, तेरहवीं शताब्दी में चंगेज़ खां तथा चौदहवीं शताब्दी में तैमूर ने इस पर अपना अधिकार जमाया। 507 ई. में कंधार को मुग़ल वंश के संस्थापक बाबर ने जीत लिया और 1625 ई. तक यह दिल्ली के मुग़ल बादशाहों के क़ब्ज़े में रहा। 1625 ई. में ही फ़ारस के शाह अब्बास ने इस पर दख़ल कर लिया। शाहजहां और औरंगज़ेब द्वारा इस पर दुबारा अधिकार करने के कई प्रयास किये गए, किंतु सारे प्रयास विफल हुए। कंधार थोड़े समय (1708-37 ई.) को छोडक़र नादिरशाह की मृत्यु के समय तक फ़ारस के क़ब्ज़े में रहा। 1747 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने अफग़़ानिस्तान के साथ इस पर भी अधिकार कर लिया था, किन्तु उसके पौत्र जमानशाह की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए कंधार काबुल से अलग हो गया।
वर्ष 1839 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अफग़़ानिस्तान के अमीर शाहशुजा की ओर से युद्ध करते हुए इस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और 1842 ई. तक अपने क़ब्ज़े में रखा। ब्रिटिश सेना ने 1879 ई. में इस पर फिर से दख़ल कर लिया, किन्तु 1881 ई. में ख़ाली कर देना पड़ा। तब से कंधार अफग़़ानिस्तान का ही एक भाग है। कंधार में वर्षा केवल जाड़े में बहुत कम मात्रा में होती है। गर्मी अधिक पड़ती है। यह स्थान फलों के लिए प्रसिद्ध है। अफग़़ानिस्तान का यह एक प्रधान व्यापारिक केंद्र है। यहां से भारत को फल निर्यात होते हैं। यहां के धनी व्यापारी हिन्दू हैं। नगर में लगभग 200 मस्जिदें हैं। दर्शनीय स्थलों में अहमदशाह का मक़बरा और एक मस्जिद प्रमुख हैं। जिसमें मुहम्मद साहब का कुर्ता रखा है।