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देव आनंद की पुण्यतिथि पर ‘गाइड’ की याद
03-Dec-2020 3:53 PM
देव आनंद की पुण्यतिथि पर ‘गाइड’ की याद

-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

कुछ फिल्म ऐसी होती हैं जो जनमानस में गहरी पैठ बनाती हैं, उनमें से एक है ‘गाइड’. सन 1965 में बनी यह फिल्म प्रदर्शन की शुरुआत में पिटने लगी, फिर धीरे से उठने लगी और खूब चली, अब तक चल रही है।

आर.के.नारायण की लिखी, साहित्य अकादमी से पुरस्कृत (1960), कहानी ‘द गाइड’ को कुछ उलटफेर के साथ ‘गाइड’ के नाम से इस फिल्म को नवकेतन इंटरनेशनल के बैनर तले बनाया गया, निर्देशक थे विजय आनंद. राजू गाइड और रोजी के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी पर फिल्म बनाने का निर्णय अत्यंत साहसिक था क्योंकि इसकी कहानी का स्वाद उस समय की सामाजिक सोच के अनुरूप नहीं था।

कहानी जबरदस्त थी, रोजी नाम की लडक़ी जिसकी पति से नहीं पटती। वह अपने पति को किसी अन्य स्त्री के साथ रंगरेलियां करते देख कर राजू गाइड से प्रेम करने लगती हैं। राजू का परिवार रोजी को स्वीकार नहीं करता क्योंकि रोजी एक वेश्या की बेटी थी। घर से विद्रोह करके राजू अपनी रोजी के साथ अलग रहने लगता हैं। राजू रोजी को नृत्यांगना बनने के लिए प्रोत्साहित करता है और उसकी नृत्य प्रतिभा को समाज के समक्ष प्रस्तुत करके स्थापित करता है. वह लोकप्रिय होकर ‘स्टार’ बन जाती है। इस बीच राजू को जुए और नशे की लत लग जाती है। एक दिन अचानक रोजी का पूर्व पति रोजी से मिलने के लिए आता है, राजू को डर था कि रोजी कहीं उसे छोडक़र चली न जाए इसलिए वह उसे मिलने नहीं देता और झूठ बोलकर एक जालसाजी कर बैठता है। रोजी और राजू के संबंधों में खटास आ जाती है। जालसाजी के अपराध में उसे दो वर्ष की सजा हो जाती है। जेल से रिहाई होने के बाद राजू अभाव और अकेलेपन के कारण अनाश्रित इधर-उधर भटकते रहता है। एक दिन वह एक गाँव के मंदिर के अहाते में सो जाता है और अगली सुबह एक साधु ठंड से ठिठुरते हुए राजू के ऊपर पीला वस्त्र ओढ़ा देता है। गाँव वाले राजू को भी साधु समझने लगते हैं। एक ग्रामीण की पारिवारिक समस्या का समाधान कर देने के कारण उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। उसी समय गाँव में अवर्षा के कारण अकाल की नौबत आ जाती है। गाँव वाले राजू को वर्षा के लिए उपवास करने का आग्रह करते हैं। राजू उनका मन रखने के लिए मजबूरन उपवास करता है और उनके विश्वास की रक्षा करते-करते अपने प्राण त्याग देता है।

एक विवाहित स्त्री की दुनियावी आजादी का साहसिक चित्रण उस समय भारतीय जनमानस के गले उतरना असंभव था लेकिन विजय आनन्द के कसे हुए निर्देशन, वहीदा रहमान के अभूतपूर्व अभिनय व नृत्य, फली मिस्त्री की मनभावन फोटोग्राफी, शैलेन्द्र के हृदयस्पर्शी गीत तथा सचिनदेव बर्मन के संगीत ने ऐसी कलाकृति को साकार कर दिया जो सिनेमा के परदे से लोगों के दिल में उतरकर आज भी प्रकाशित है.

इस फिल्म की कहानी के एक दृश्य में नायिका को अपना गुस्सा, दु:ख और आजादी की चाहत व्यक्त करनी थी. इसे दिखाने के लिए कुछ नया करने का विचार विजय आनंद के दिमाग में आया. तय यह हुआ कि एक सर्पिणी-नृत्य के माध्यम से नायिका के मनोभावों को अंकित किया जाए. सपेरों की बस्ती का सेट लगाया गया जहाँ वहीदा रहमान को नृत्य करके नायिका के भावों को व्यक्त करना था। केवल नृत्य, नृत्य के साथ संगीत लेकिन कोई शब्द नहीं। बेक-ग्राउंड संगीत रचने की जि़म्मेदारी बर्मन दादा पर थी। संगीत में ‘इफेक्ट’ पैदा करने के लिए सामान्य साजों के अतिरिक्त बहुत कुछ जोड़ा गया, जैसे, ताल में प्रभाव के लिए तबला, ढोलक, ढोल, चेंदा और ढपली का अलग-अलग मूड के अनुसार उपयोग किया गया। अतिरिक्त प्रभाव उत्पन्न करने के लिए घुँघरू, झांझरी, कब्बस और रेजो-रेजो की मदद ली. सितार, बेन्जो, मेंडोलिन और क्ले-वायलिन आदि वाद्य-यन्त्रों का सहारा लेकर सर्पिणी नृत्य का पार्श्व संगीत तैयार किया गया. सचिन दा ने वहीदा से कहा, ‘देखो, इस कम्पोजीशन में शब्द नहीं हैं, केवल म्यूजिक है. अब मौका है तुम्हें अपना हुनर दिखाने का।’ सचिनदेव बर्मन खुश थे लेकिन सोच रहे थे कि क्या यह दर्शकों को पसंद आएगा?

शूटिंग चालू हुई तब वे भी वहां वहीदा की प्रस्तुति देखने के लिए खुद मौजूद थे। वहीदा रहमान काली और लाल रंग की साड़ी पहनकर आई, साथ में सह-नर्तकियां भी ग्रामीण वेशभूषा में आकर खड़ी हो गई। वहीदा विश्वास भरी मुस्कुराहट के साथ सेट पर खड़ी होकर बेक-ग्राउंड-म्यूजिक को ध्यान से सुनने लगी। अचानक उसके चेहरे की रंगत और शरीर की भाषा बदलने लगी। क्रोध, मायूसी और निर्भीकता का भाव उभरने लगे। कई शाट्स के बाद नृत्य निर्देशक हीरालाल और सोहनलाल के मार्गदर्शन में नृत्य का फिल्मांकन संपन्न हुआ। उस प्रस्तुति में वह वहीदा ‘रोजी’ बन गई थी।

सचिन दा ने खुश होकर कहा, ‘वहीदा, मैंने सोचा नहीं था कि ऐसा होगा। मुझे तो बहुत डर लग रहा था मगर लगता है तुम्हारा गुस्सा, तुम्हारा दु:ख, सब कुछ उसमें निकल आया।’ उस वर्ष के ‘फिल्म फेयर अवार्ड्स’ में फिल्म गाइड को सात श्रेणियों में पुरस्कार मिले जिनमें से एक था, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, वहीदा रहमान।

यह तय करना मुश्किल है कि फिल्म ‘गाइड’ का कौन सा पक्ष अधिक मज़बूत है। ‘गाइड’ को क्लासिक फिल्म का दर्जा देने के अनेक कारण हैं। क्लासिक की हैसियत उसे नसीब होती है जिस फिल्म का हर पहलू नायाब हो। कहानी से लेकर संगीत तक, सब लाजवाब था। देवआनंद ने इस फिल्म को तसल्ली से बनाया, हर दृश्य की कल्पना को वास्तविकता से जोडऩे की भरपूर कोशिश की. एक प्रयोगवादी कहानी के उतार-चढ़ाव को गीत-संगीत के साथ सजाकर लोकप्रिय फिल्म की शक्ल में पेश करना निर्देशक विजय आनन्द के लिए नि:संदेह चुनौतीपूर्ण रहा होगा। अदायगी की चर्चा करें तो वहीदा के अलावा गाइड के रोल में देवआनंद और रोजी के पति के रूप में किशोर साहू ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया, वहीँ पर अनवर हुसैन ने राजू के मित्र की छोटी सी भूमिका में पूरा मज़मा लूट लिया।

फिल्म समीक्षक प्रह्लाद अग्रवाल की मान्यता है, ‘देवआनंद इस बात को मानने के लिए कभी तैयार नहीं हो सकते की ‘गाइड’ उनसे पहले विजयआनंद की फिल्म है, और, जो शैलेन्द्र ने कथा के फलसफे को करिश्माई गीतों में अवाम के दिलों में गंगा-जमुनी रसधारा की तरह न उतार दिया होता तो देवआनंद की अदाकारी किसी काम न आती।’

विजयआनंद का निर्देशन व संवाद, फली मिस्त्री की नयनाभिराम फोटोग्राफी और शैलेन्द्र द्वारा लिखे व सचिनदेव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध दस सुमधुर गीतों ने इस फिल्म को एक क्लासिक फिल्म का दर्जा दे दिया।

एक और सच्ची घटना है, ‘गाइड’ के लिए शैलेन्द्र लिखित गीत ‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान...’ का संगीत तैयार किया जा रहा था. प्रेक्टिस के दौरान सचिनदा के नियमित तबलावादक मारुतीराव कीर उस समय उपस्थित नहीं थे इसलिए संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा ने तबला सम्हाल लिया। दादा ने शिवकुमार का तबलावादन सुनकर आदेश दिया, ‘इस गाने का रिकार्डिंग में तबला तुम बजाएगा।’

शिवकुमार शर्मा ने कहा, ‘दादा, मैंने तबला बजाना छोड़ दिया है, मैं तो केवल संतूर बजाता हूँ।’ ‘वो सब ठीक है पर इस बार तुम ही बजाएगा।’ दादा ने अंतिम फैसला सुनाया।

 ‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान।’ को आपने कई बार सुना होगा। लताजी की शिकायत भरी मीठी आवाज का असर ऐसा है कि इस गीत के संगीत पर ध्यान ही नहीं जाता। एक बार आप इस गीत को फिर से सुनिए और तबले की थाप पर अपना ध्यान केन्द्रित करिएगा, ताल के कितने रंग है, इस गीत में! तबले की थाप को सुनो तो ऐसा लगता है जैसे आकाश में कोई पतंग लहरा रही हो, बल खा रही हो और गर्वोन्मत्त होकर आसमान को भेद रही हो। यह संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा का तबलावादन था।   

सात ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ हासिल करने वाली इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार न मिलना आश्चर्यजनक है जबकि बालीवुड की सर्वश्रेष्ठ पार्श्व संगीत की सूची में ‘गाइड’ का ग्यारहवें स्थान पर प्रतिष्ठित है.।

‘गाइड’ जैसी फिल्म का निर्माण हिंदी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व प्रयास था। सिनेमा तो कल्पना को वास्तविकता में परावर्तित करने का कलात्मक विधा है। ‘गाइड’ का हर फ्रेम दर्शक को इस तरह बांधता है जैसे दर्शक स्वयं कहानी का हिस्सा हो. इसे ही तो नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक भरत मुनि कहते हैं, ‘दर्शक का कथा से तादात्म्यीकरण।’

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