संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय: स्क्रीन जानलेवा हो रही है बच्चों के लिए, सचेत हो जाएं
09-Dec-2020 2:16 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय: स्क्रीन जानलेवा हो रही है  बच्चों के लिए, सचेत हो जाएं

मोबाइल फोन पर एक गेम खेलते हुए एक छोटे बच्चे की खुदकुशी सामने आई है। यह बात दिल को दहलाने वाली है, और यह हादसा अपने आपमें अकेला नहीं है, हर कुछ हफ्तों में कोई बच्चा इसी तरह कुछ खेलते हुए जान दे रहा है। मोबाइल पर किसी एक गेम पर प्रदेश की सरकारें या देश की सरकार रोक लगाती हैं, और या तो उससे बचकर लोग यह खेलते रहते हैं, या फिर कोई नया कातिल-वीडियो खेल सामने आ जाता है। आज हालत यह है कि मोबाइल फोन के भयानक इस्तेमाल के चलते छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे भी बड़ों को देख-देखकर उस पर वीडियो देखे बिना खाने-पीने से मना कर देते हैं, और उनको कुछ खिलाने के चक्कर में मां-बाप तुरंत समझौता कर लेते हैं।

अब चौथाई सदी पहले तक हिन्दुस्तान में जो फोन किसी ने देखा-सुना नहीं था, उसने इस भयानक रफ्तार से, और इस भयानक हद तक घुसपैठ कर ली है कि पति-पत्नी में फोन के बुरी तरह इस्तेमाल को लेकर तलाक की नौबत आ रही है, अपनी मर्जी का फोन पाने के लिए जिद करते हुए बच्चे मांग पूरी न होने पर खुदकुशी कर रहे हैं। फोन पर तरह-तरह के एप्लीकेशन के चलते लोग लापरवाही में अपनी फोटो या वीडियो बांट रहे हैं, और उसके फैल जाने पर जान ले रहे हैं, या जान दे रहे हैं। कुल मिलाकर टेक्नालॉजी और उसके इस्तेमाल को लेकर लोगों में समझ की कमी खूनी हुई जा रही है। डिजिटल नशा सिर चढक़र बोल रहा है, और दुनिया के दूसरे कई देशों की तरह इसके नशे से नशामुक्ति करवाने के लिए हिन्दुस्तान में भी अभियान चलाने की जरूरत आ खड़ी हुई है।

दुनिया के बाल मनोचिकित्सकों का मानना है कि छोटे बच्चों के सामने फोन, कम्प्यूटर, या टीवी, किसी भी तरह की स्क्रीन एक दिन में तीस मिनट से अधिक नहीं रहनी चाहिए, वरना उनकी दिमागी सेहत पर, उनकी आंखों पर इसका बुरा असर पड़ता है। लेकिन बच्चों के इर्द-गिर्द रहने पर भी परिवार के बड़े लोग अपनी जरूरत, अपने शौक, या अपनी लत के चलते हुए ऐसे तमाम डिजिटल उपकरणों का घंटों इस्तेमाल करते हैं, और उनके चाहे-अनचाहे छोटे बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं। सरकारें तो किसी खूनी खेल पर कानूनी रोक लगाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रही हैं, लेकिन घर के भीतर ऐसे प्रतिबंधित खेलों से परे परिवार के लोग कितनी देर तक किस स्क्रीन पर क्या देखते हैं, इस पर तो न कोई सरकार निगरानी रख सकती, न इसे रोकने का कोई कानून बन सकता। लोगों को खुद ही अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, और अपने न सही, अपने बच्चों के भले के लिए तमाम किस्म के डिजिटल उपकरणों का रोजाना का एक ऐसा कोटा तय करना होगा जिससे कि बच्चों के सामने ये सामान कम से कम शुरू हों।

यह भी समझने की जरूरत है कि बच्चों के दिमाग विकसित होने के जो शुरूआती बरस रहते हैं, उसमें उनके सामने कल्पनाएं अधिक महत्वपूर्ण रहती हैं, बजाय रेडीमेड फिल्मों के, या कि गढ़े हुए संगीत के। जब वे खुद कुछ लकीरें बनाते हैं, या चीजों को ठोक-बजाकर आवाज पैदा करते हैं, तो वही उनके मानसिक विकास के लिए बेहतर होता है, फिर चाहे वह कार्टून फिल्मों की तरह अधिक चटख रंगों वाला न हो, या स्टूडियो में बनाए गए गीत-संगीत जितना मधुर न हो। इसलिए छोटे बच्चों को बड़ा करते हुए आज के वक्त यह सावधानी इसलिए भी अधिक जरूरी है क्योंकि हर आम परिवार में एक से अधिक ऐसे फोन या दूसरे उपकरण हो गए हैं जिन पर लगभग मुफ्त मिलने वाले इंटरनेट से ऐसी तमाम फिल्में बच्चों को दिखाई जा सकती हैं। ऐसा करना परिवार के बड़े लोगों को अपने दूसरे काम करने के लिए वक्त तो दिला देता है, लेकिन छोटे बच्चों को बहुत बुरी तरह ऐसे वीडियो, और फिर आगे जाकर ऐसे गेम का नशेड़ी भी बना देता है। परिवार के बड़े लोगों के एक सामाजिक-शिक्षण की जरूरत है ताकि वे उपकरणों के बीच रहते हुए भी अपने बच्चों को एक सेहतमंद माहौल में बड़ा कर सकें। इस बात की गंभीरता जिनको नहीं लग रही है, वे कल मोबाइल-गेम खेलते हुए इस तरह खुदकुशी करने वाले बच्चे की खबर कुछ बार जरूर पढ़ लें। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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