संपादकीय
अन्ना हज़ारे कुम्भकर्ण को मात देकर नींद से जागे हैं, और उन्होंने मोदी सरकार को चिट्ठी लिखी है कि किसानों की समस्या न सुलझी तो वे अनशन पर बैठेंगे. पिछली बार वे यूपीए सरकार को हटाने छह बरस से सो गए थे. अन्ना हजारे ने भारत के लोकतंत्र के लिए, यहां के संविधान के लिए, यहां की संसद के लिए जो हिकारत दिखाई, लोगों के बीच इस देश के संस्थानों के खिलाफ जो अनास्था बोई और रात-दिन खाद-पानी देकर उस फसल को लहलहाने का भी काम किया, वह सब जनता को थका देने वाला था। उन्होंने ने सुपारी लेकर कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के खिलाफ जो माहौल बनाया वह भनायक था.
एक वक्त ऐसा था जब एक तबके ने इस देश के लोगों को भड़का कर अयोध्या की तरफ रवाना कर दिया था और बाबरी मस्जिद को गिरवा दिया था। लेकिन दोबारा आज धर्मान्धता को, साम्प्रदायिकता को राजनीतिक मकसद से उस तरह कोई फिर इस्तेमाल कर सके, ऐसी कोई कल्पना भी नहीं करता, खुद मंदिरमार्गी भी नहीं करते। ऐसा ही तजुर्बा इमरजेंसी का रहा, और इस देश में कोई दोबारा वैसे दौर की कल्पना नहीं कर सकता। अन्ना हजारे ने भी देश के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन के नाम पर जो मनमानी की, नेताओं और अफसरों के सारे तबके को, संसद को जिस तरह से गालियां दीं, उनका एक न एक दिन इस देश की अमनपसंद जनता के बर्दाश्त से बाहर होना ही था, और वह बहुत जल्द हो गया। अन्ना के साथ एक दूसरी दिक्कत यह रही कि वे जिस लोकतंत्र और जनता की बात हर सांस के साथ बोल रहे थे, उसी जनता को उन्होंने तानाशाही के अपने साम्राज्य रालेगान सिद्धी में अपने गुलामों की तरह रखा। वहां उन्होंने पंचायत के चुनाव नहीं होने दिए, शराब पीने वालों को मंदिर में कसम दिलाने और खंभे से बांधकर कोड़े लगाने जैसे कानून बनाकर लागू किए, लोगों का टीवी पर मनोरंजन धार्मिक कार्यक्रमों तक सीमित कर दिया और महिलाओं के बारे में घोर अपमान की जुबान का इस्तेमाल किया। उनकी जिस ताजा बात को लेकर अभी लोग हक्का-बक्का हैं, उसमें उन्होंने मुंबई के अनशन के माईक से ही कहा है- बांझ औरत प्रसूता की वेदना को क्या समझेगी?
यह बात इस देश में शोषण का शिकार चली आ रहीं महिलाओं के लिए पुरूष प्रधान समाज की आम हिकारत का ही एक सुबूत है। हमने दर्जन भर से अधिक बार इस जगह इस बात को लेकर अन्ना की आलोचना की है कि उन्होंने लोकपाल मसौदा कमेटी में सरकार के न्यौते पर अपने जिन सदस्यों को रखा, उनमें एक भी महिला नहीं थीं। वैसे तो उसमें एक भी दलित नहीं था, एक भी अल्पसंख्यक नहीं था और समाज के या तथाकथित सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों के रूप में पांचों कुर्सियों पर अन्ना की टोली का कब्जा पूरी तरह अलोकतांत्रिक और गांधी विरोधी था। लेकिन हम उस बात पर अभी नहीं जा रहे हमारी तकलीफ बिना संतान वाली किसी महिला पर अन्ना हजारे के ऐसे घटिया बात को लेकर है। एक महिला जिसे प्राकृतिक कारणों से कोई संतान नहीं हुई है, वह परिवार और समाज के बीच वैसे भी लोगों के ताने और उनकी हिकारत का शिकार होती ही है। इस बात को भारत जैसे समाज में हर कोई अच्छी तरह जानता है। और रात-दिन बोलने वाले अन्ना हजारे जितने बुजुर्ग और अनुभवी को तो यह बात अपने बचपन से ही देखने मिली होगी कि बेऔलाद औरत को एक गाली की तरह कैसे भारतीय समाज इस्तेमाल करता है। ऐसी ही अनगिनत बातों का नतीजा यह रहा कि देश की जनता का अन्ना हजारे के प्रति सम्मान कम होते-होते अब इस कदर घट गया कि वह मुंबई जैसे महानगर में कुछ हजार पर टिक गया। लोगों को याद होगा कि किस तरह अन्ना हजारे ने एक विचलित या प्रचारप्रेमी नौजवान द्वारा शरद पवार पर हमला करने पर खुशी जाहिर की थी। मानो उनकी वह वीडियो क्लिप उनके लिए पर्याप्त आत्मघाती नहीं थी, उन्होंने उसके बाद कई बार उस हमले को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की और यहां तक कहा कि शरद पवार और उनके लोग उस थप्पड़ का बुरा क्यों मान रहे हैं? अपने गांव में अपने कद और अपनी शोहरत के आतंक तले तानाशाही चलाने वाले अन्ना हजारे को यह बात ठीक लग सकती है कि सरकार से नाराज या असहमत लोग सरकार को चला रहे लोगों पर हमले करें, लेकिन इस देश की हमारी समझ यह कहती है कि यहां की जनता हिंसक नहीं है और वह अभी भी उकसावे और भड़कावे के दौर में कभी चूक कर देने के अलावा लगभग हमेशा ही शांत रहती है। और कम से कम अन्ना हजारे जैसे महत्वोन्मादी, आत्मकेन्द्रित, तानाशाह और सिद्धांतों को लेकर पूरी तरह बेईमान के भड़कावे में वह बहुत लंबे समय तक नहीं रह सकती थी। इतिहास, और पिछले एक बरस का इतिहास इस बात का गवाह है कि अन्ना हजारे के सारे हमले सिर्फ केन्द्र सरकार और कांग्रेस पार्टी तक सीमित रहे। अपने ही साथी जस्टिस संतोष हेगड़े की रिपोर्ट में कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री को हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार से जब जोड़ा गया तब भी अन्ना हजारे का मुंह एक बार भी भाजपा के किसी राज के किसी भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं खुला। इतना ही नहीं देश में दूसरी जगहों पर दूसरी पार्टियों के राज में होती बेईमानी पर भी उन्होंने अपना मुंह बंद रखा। और जिस अंदाज में छोटे बच्चों ने जनमोर्चा के दिनों में गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है, के नारे लगाए थे, उसी अंदाज में अन्ना हजारे लोकपाल विधेयक को लेकर लगातार राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर हमले करते रहे। देश ने यह साफ-साफ देखा कि सोनिया गांधी की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने अन्ना हजारे की बातों को जिस तरह हफ्तों तक घंटों-घंटों सुना, और उसके बाद हर बार अन्ना की टोली बैठक से निकलकर सरकार को गालियां बकती रही, वह भी लोगों को, हमारे हिसाब से, निराश करने वाली बात थी। अन्ना हजारे ने इस विशाल देश की विविधता को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए अपने आंदोलन को, और उसके पहले की भी अपनी पूरी सोच को, पूरी तरह हिन्दूवादी रखा जिसमें कि अल्पसंख्यकों की, दलितों और आदिवासियों की, महिलाओं की कोई जगह नहीं थी। वे बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे घोषित रूप से हिन्दू विचारधारा के ही लिए काम करने वाले लोगों के साथ भागीदारी करते हुए देश भर के नेता बनने में लगे रहे।
अन्ना हजारे बरसों तक एक घोषणा को किए चल रहे थे कि आने वाले चुनावों में वे कांग्रेस पार्टी के खिलाफ प्रचार करेंगे। यह उनका लोकतांत्रिक हक है कि वे क्या करेंगे, वे और उनकी टोली के लोग पिछले महीनों में ऐसा कर भी चुके हैं। और ऐसी चुनावी राजनीति में भागीदार होकर, कांग्रेस के खिलाफ एक साजिश चलाकर अन्ना हजारे ने जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दी। जिनको राजनीति करना है उन्हें खुलकर राजनीति में आना चाहिए और भाड़े के भोंपुओं की तरह, गांधी टोपी की आड़ लेकर ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए।
हम इसे अन्ना का स्थायी अंत नहीं मानते, लेकिन यह आज की तारीख में उनके करिश्मे का फिलहाल अंत दिख रहा है कि मोदी सरकार के खिलाफ अनशन की उनकी मुनादी पर किसी की प्रतिक्रिया नहीं आयी। बहुत से लोग राख के ढेर से दोबारा उठकर खड़े होते हैं, और कल के दिन अन्ना हजारे भी भीड़ के बादशाह बन जाएं तो हम वैसी अविश्वसनीय लगती संभावना से इंकार नहीं करते। लेकिन आज इस अन्नातंत्री आंदोलन का यह हाल होना इस देश के लोकतंत्र के लिए एक अच्छी बात है और भावनात्मक उकसावे से बाहर आकर अब लोग यह सीखने की कोशिश करें कि किसी जननायक को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)