संपादकीय
केन्द्र सरकार किसान आंदोलन को लेकर बातचीत का एक सिलसिला तो चलाए हुए हैं लेकिन उससे परे उसका रूख पूरी तरह बेपरवाह भी दिख रहा है। केन्द्र ने ऐसे कई किसान संगठन होने का दावा किया है जो कि केन्द्र सरकार के नए किसान कानूनों के समर्थक हैं। दूसरी तरफ पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, और कुछ दूसरे प्र्रदेशों के जो किसान आंदोलन कर रहे हैं उनसे जूझने के लिए दिल्ली के इर्द-गिर्द भाजपा की सरकारों की पुलिस है ही। नतीजा यह है कि देश के दर्जन भर से अधिक प्रमुख विपक्षी दलों या किसान संगठनों की बात मीडिया के एक हिस्से से परे कोई मायने नहीं रख रही है क्योंकि केन्द्र सरकार को दुबारा सत्ता में आने के लिए जमीनी और किसानी मुद्दों की अधिक जरूरत नहीं है।
बात दरअसल यह है कि जब देश की देह पर कुछ ऐसी कमजोर नब्जें पता चल जाएं जिनसे बाकी शरीर की हलचल पर काबू होता है, तो फिर बाकी शरीर की अधिक फिक्र जरूरी भी नहीं होती। पिछले छह बरसों में केन्द्र की मोदी सरकार ने कभी नोटबंदी जैसा अप्रिय काम किया, कभी जीएसटी को बहुत खराब तरीके से लागू किया, कभी जेएनयू, जामिया मिलिया जैसे संस्थानों के रास्ते देश भर के छात्रों को नाराज किया, कभी मुस्लिम समुदाय को नाराज किया, तो कभी दलितों को। और कोरोना-लॉकडाऊन में तो देश के करोड़ों प्रवासी मजदूरों को बदहाल ही कर दिया। इसके बाद ऐसा लगता था कि जिस बिहार के प्रवासी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटे थे, उस बिहार में वे मजदूर भाजपा और नीतीश कुमार से हिसाब चुकता करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ कुछ नहीं, और मतदाताओं के बहुमत से ही बिहार में एनडीए की सरकार वापिस सत्ता पर लौटी। देश के बाकी जगहों पर भी चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी को कोई अधिक नुकसान नहीं हुआ, बल्कि फायदा ही फायदा हुआ, और अब तो वह मुस्लिमों के गढ़ हैदराबाद तक में वार्ड चुनाव तक घुसपैठ कर चुकी है।
दरअसल देश के असल मुद्दों का वोटों के साथ तीन तलाक इतना मजबूत हो गया है कि चुनाव आते-जाते रहते हैं, और सरकार अब मतदाताओं की किसी नाराजगी की फिक्र में नहीं है। ऐसा इसलिए है कि भाजपा के हाथ मतदाताओं की तमाम कमजोर नब्ज उसी तरह लग गई हैं जिस तरह कोई नाड़ी वैद्य शरीर का हाल तलाशते हैं, या एक्यूपंक्चर वाले जानते हैं कि किस-किस नब्ज पर सुई चुभानी है, या एक्यूप्रेशर वाले जानते हैं कि किस नस पर दबाना है। आज जब चुनावी विश्लेषणों के पंडित अटकल लगाते हैं कि वोटर किन-किन बातों से नाराज होकर, या नाराज होने की वजह से मोदी की पार्टी के खिलाफ वोट देंगे, तो मतदाता की नब्ज पर इन पंडितों का हाथ नहीं रहता। मतदाता की देह, उसका तन-मन, यह सब कुछ अब कई भावनात्मक मुद्दों के हाथों इस हद तक गिरवी रखे जा चुके हैं कि वे अपने नुकसान, और अपनी नाराजगी, इनसे परे जाकर हर चीज को राष्ट्रप्रेम और मोदी से जोड़ लेते हैं। एटीएम की कतार पर दिन गुजारते उन्हें अपने तकलीफ नहीं दिखती क्योंकि उनके सामने देश की सरहद पर खड़े फौजी को पेश किया गया है कि वह तो बिना शिकायत किए हफ्तों खड़े रहता है। जब राष्ट्रवाद सिर पर सवार होता है तो यह सवाल भी काफूर हो जाता है कि एटीएम का सरहद से क्या लेना-देना, और क्या नोटबंदी के लिए उस सैनिक ने कहा था? जब देश की सरकार और इस देश की सबसे कामयाब पार्टी जिंदगी की तमाम तकलीफों को राष्ट्रवाद से, संस्कृति के कथित इतिहास से ढांक देने में महारथ हासिल कर लेती है, तो फिर उसे चुनाव जीतने के लिए जमीनी मोर्चों पर कामयाबी की जरूरत नहीं रह जाती। आज यह देश मोदी है तो मुमकिन है, नाम की एक लहर पर सवार है, और लोगों का स्वाभिमान एक पेशेवर सर्फर की तरह लहरों पर सर्फिंग कर रहा है। ऐसे में राष्ट्रवादी भावनात्मकता का कोई मुकाबला नहीं हो सकता क्योंकि इसकी मौजूदा आक्रामकता से बढक़र अगर कोई दूसरी राष्ट्रवादिता सामने नहीं आती, तो फिर उसे कैसे शिकस्त दी जा सकती है। लोग अपने तन-मन से बेसुध अब एक ऐसी मानसिक हालत में चले गए हैं कि उन्हें अपने सुख-दुख की न खबर रही, और न ही फिक्र। लोकतंत्र के भीतर, लोकतांत्रिक नियमों को तोड़े बिना लोगों को एक सामूहिक सम्मोहन में इस तरह जकड़ा जा सकता है, यह कुछ बरस पहले तक अकल्पनीय था।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने इस लोकतंत्र के खेल के तमाम नियम बदल डाले हैं। पुराने नियमों के मुताबिक खेलने वाली टीमें अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं। जब आबादी का एक बड़ा हिस्सा उसकी तकलीफ के एहसास से आजाद कराया जा सकता है, तो फिर उस हिस्से से कुछ भी करवाया जा सकता है, कुछ भी करवाया जा रहा है। आज कोई आसार नहीं दिख रहे कि इस देश के लोग इस सामूहिक सम्मोहन से उबर सकेंगे। दरअसल उन्हें उबरने की जरूरत भी नहीं लग रही है, वे उसी में खुश हैं, डूबे हुए हैं। मीडिया का एक हिस्सा मोदी समर्थकों को भक्त लिखता है। ये लोग एक भक्तिभाव में डूबे हुए हैं, और ऐसे किसी को उससे उबरने के लिए कहना उसे जायज नहीं लगेगा, उसे लगेगा कि उसकी कोई पसंदीदा चीज उससे छीनी जा रही है। जो लोग दुनिया के कुछ दूसरे देशों के इतिहास की मिसालें देकर यह कहने की कोशिश करते हैं कि लोग ऐसे भक्तिभाव से उबरते भी हैं, उनकी दिक्कत यह है कि उनका दिमाग इतिहास के बक्से में बंद और उसी आकार का है। वह खुले आसमान के तहत यह नहीं सोच पाता है कि इतिहास की हर मिसाल भविष्य पर लागू नहीं होती। हिन्दुस्तान आज इतिहास की मिसालों से परे जी रहा है। और जिन लोगों का हाथ आज देश के बहुमत के दिल-दिमाग की नब्ज पर है, उन्हें हटाना डॉन को पकडऩे की तरह नामुमकिन न सही मुश्किल तो है। यह देश आज अपनी ही तकलीफ के एहसास से आजाद है, यह एक बहुत अनोखी नौबत है, और विपक्षियों के साथ दिक्कत यह है कि यह इतिहास की उनकी किन्हीं मिसालों के साथ फिट बैठने वाला केस नहीं है। आगे-आगे देखें, होता है क्या... क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)